सोमवार, 30 अक्टूबर 2023

माता लक्ष्मी और राजा बलि की कहानी, तीन पग भूमि,वामन अवतार

 लक्ष्मी माता ने राजा बलि से क्या माँगा

वामन अवतार

भक्त प्रह्लाद के पौत्र बलि यज्ञ कर रहे थे तभी उनकी यज्ञशाला में नारायण प्रभु (विष्णु जी ) का वामन के रूप में आगमन हुआ। वामन  बलि के द्वार पर खड़े हो कर दान की याचना करने लगे। तब बलि ने वहाँ आकर वामन से  मन चाहा दान माँगने को कहा तब वामन  ने तीन पग भूमि मांगी। बलि ने संकल्प कर के तीन पग भूमि का दान किया। अब वामन ने तुरंत अपना रूप वामन से विराट किया और पहले चरण में नीचे के लोक और दूसरे चरण में ऊपर के सारे लोक नाप लिए इस तरह से वामन ने दो पग में सारे ब्रह्माण्ड को नाप लिया और बलि से तीसरा पग रखने के लिए स्थान माँगने लगे। तब बलि ने अपने शिर पर तीसरा पग रखने को कहा! वामन ने तीसरा पैर बलि के सिर पर रखा।


वामन बलि के इस भाव पर प्रसन्न हुए और बलि को आने वाले मन्वन्तर में इंद्र बनने का आशीर्वाद दिया पर तब तक बलि को सुतल लोग में वास करने को कहा। वामन ने बलि से कहा मै तुम्हारे दान देने की प्रवित्ति से बहुत प्रसन्न हूँ आज से तुम्हारे दान देने की प्रवित्ति के लिए इस दान का नाम “बलिदान” के नाम से जाना जायगा साथ ही बलि से मांगो क्या माँगना चाहते हो कहकर वर माँगने को कहा। तब बली ने कहा प्रभु अभी अभी मैंने ही आप को ये सम्पूर्ण सृष्टि दान की है और मै दान की हुई वस्तु वापस नहीं ले सकता। हे प्रभु आप अगर मुझे कुछ देना ही चाहते हो तो मै आप से आप को ही मांगता हूँ। वामन ने बलि से कहा- राजा बलि तुम अगले मन्वन्तर के आने तक सुतल लोक में वास करना और मैं तुम्हारा द्वारपाल बनकर नित्य तुम्हारे साथ रहूँगा वामन बलि को ले कर सुतल लोक चले गए।


नारद जी सारा वृत्तांत सुनाने लक्ष्मी जी के पास पहुचे और कहने लगे की हे माता आज से आप संन्यास ले लो क्योकि अब आप के पति विष्णु जी आपके पास नहीं आएँगे। लक्ष्मी जी नारद जी की रहस्यमयी बातो को सुनकर नारद से कहा की स्पष्ट बात कीजिये तब नारद जी ने लक्ष्मी जी को सारा वृतांत सुनाया और कहा की अबसे वे  “राजा बलि के यहाँ द्वारपाल हैं ” तब माता लक्ष्मी ने  इस समस्या का उपाय पूछा ! तब नारद जी ने माता लक्ष्मी को संकेत दिया की बलि के कोई बहन नहीं है।


माता लक्ष्मी नारद जी के संकेत को समझ गई और सुतल लोक में राजा बली के पास एक सामान्य स्त्री का रूप धारण कर पहुँच गई। राजा बलि ने देखा की एक स्त्री हमारे द्वार पर कुछ माँगने आयी है और उस स्त्री से पूछा की आप को क्या चाहिए निःसंकोच कहिये। तब माता लक्ष्मी ने कहा की मेरे कोई भाई नहीं  है मुझे भी अन्य स्त्रियो की भाँती अपने माय के जाने की इच्छा होती है पर मैं कहा जाऊ और रोने लगी। तब बलि ने कहा मेरी कोई बहन नहीं है तो आज से हम दोनों भाई बहन हुए। तभी माता लक्ष्मी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधा और बलि ने अपनी बहन स्वीकार  किया और कुछ माँगने को कहा तब माता लक्ष्मी ने कहा भैया मेरे पास किसी बात की कमी नहीं है बस तुम अपने द्वार पर खड़े इस द्वारपाल को मुक्त कर दो तब राजाबलि ने माता लक्ष्मी से पूछा की बहन तुम इस द्वारपाल को मुक्त क्यों  करवाना चाहती हो ! तब भगवान् लक्ष्मी-नारायण चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गए। राजा  बलि ने जब यह बात जानी कि उन्होंने जिसे अपनी बहन बनाया है वो साक्षात् माता लक्ष्मी है तब वो माता लक्ष्मी से क्षमा माँगने लगे। तब माता लक्ष्मी ने कहा कि इसमें आप का कोई दोष नहीं है मैं ही यहाँ अपने पति को वापस ले जाने आयी थी। फिर माता लक्ष्मी अपने पति को बलि से मुक्त कराकर बैकुंठ ले गयी।


विशेष - जहाँ नारायण (विष्णु जी देव है देव का एक कर्म है परोपकारी) होते है वहां लक्ष्मी स्वयं ही चल कर आ जाती है। यानि परोपकारी अथवा दान देने वाले (नारायण राजा बलि के घर में थे) के घर लक्ष्मी जी नारायण के साथ आती है उन्ही को सुखी करती है। जहाँ नारायण की सेवा होती है वहां लक्ष्मी बिना आमंत्रण के आ जाती है। जिस प्रकार बलि के घर में नारायण विराजमान थे तो माता लक्ष्मी स्वयं चलकर वहाँ आ गयी। बलि ने अपने जीवन में दान की प्रवृत्ति को अपना कर बहुत सत्कर्म किये इसलिए नारायण उनको प्राप्त हुए और नारायण के आते ही लक्ष्मी भी वह स्वयं चल कर आ गयी। इसलिए दान जैसी प्रवृति को अपने अंदर पैदा करो  ! ध्यान रहे दान नेक कमाई से ही फलीभूत होता है भ्रष्टाचारी की कमाई निष्फल ही रहती है ! संतोषी जीवन अपनाओ  जो आपकी सादगी एवं अपरिग्रह की प्रवृति से ही संभव है! प्रभु में श्रद्धा  एवं भक्ति, गौमाता को पुण्यात्मा मानकर उसकी सेवा, एवं शुद्ध  शाकाहार अपनाओं, करुणा को चुनो ! एक  सत्कर्म पूरा हो तो दूसरा सत्कर्म करो दूसरा पूरा हो तो तीसरा करो।

जो हमेशा सत्कर्म करते है लक्ष्मी नारायण उन्ही को प्राप्त होते है।



कार्तिक मास भगवान विष्णु का प्रिय महीना की विस्तृत जानकारी, कार्तिक मास महत्व

 कार्तिक मास प्रारम्भ

भगवान विष्णु का प्रिय महीना

मोक्ष प्राप्ति के लिए इस माह में कर लें ये कार्य


कार्तिक मास


जैसे सतयुग के समान कोई युग नहीं है, वेदों के समान कोई शास्त्र नहीं है, और गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है, वैसे ही कार्तिक के समान कोई मास नहीं है (स्कंद पुराण)।


हिंदू कैलेंडर के मुताबिक साल का 8वां महीना कार्तिक का होता है। हिंदू धर्म में इसे बेहद पवित्र माह में से एक माना गया है। इस माह में कई बड़े त्योहार तो आते ही हैं। लेकिन ये माह भगवान विष्णु को समर्पित है। इस माह में श्री हरि, तुलसी जी की पूजा से विशेष फलों की प्राप्ति होती है। बता दें कि इस बार कार्तिक माह की शुरुआत 28 अक्टूबर से हो रही है। कहते हैं कि अगर इस माह में सच्चे दिल और पूरी श्रद्धा से भगवान विष्णु की पूजा की जाए, तो व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिलती है। साथ ही, व्यक्ति को मृ्त्यु के पश्चात बैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हर माह किसी न किसी देवता को समर्पित होता है। हर माह के कुछ नियम होते हैं। इन नियमों के पालन के साथ अगर पूजा-आराधना की जाती है तो शुभ फलों की प्राप्ति होती है। 


कार्तिक माह में भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए क्या करें और क्या नहीं ?????


ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करना

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शास्त्रों में बताया गया है कि कार्तिक माह में ब्रह्मा मुहूर्त में स्नान करना बेहद शुभ माना गया है। कार्तिक माह में ब्रह्म मुहूर्त में उठना और किसी पवित्र नदी या घर में ही गंगाजल डालकर स्नान करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है। भगवान विष्णु की कृपा बरसती है।


तुलसी पूजा

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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कार्तिक माह में तुलसी पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। हिंदू धर्म में तुलसी को पूजनीय स्थान प्राप्त है। कहते हैं कि तुलसी में मां लक्ष्मी का वास होता है और भगवान विष्णु को तुलसी बेहद प्रिय है। इस माह में तुलसी की पूजा से भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी दोनों की कृपा बरसती है। कहते हैं कि इस माह में देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु योग निद्रा से जागते हैं और सबसे पहले तुलसी मां की ही पुकार सुनते हैं। इसलिए इस माह में तुलसी पूजन का खास महत्व है।


दीपदान

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मान्यता है कि इस माह में दीप दान करने से भक्तों की सभी मोकामनाएं पूर्ण होती हैं। शरद पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक दीपदान करना चाहिए। इस माह में संभव हो तो किसी पवित्र नदी या फिर घर पर तुलसी के पास ही नियमित रूप से दीपदान करें। इससे घर में सुख- समृद्धि की प्राप्ति होती है।


जमीन पर सोने का विधान

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- कार्तिक माह में जमीन पर सोने का विधान है। कहते हैं कि जमीन पर सोने से व्यक्ति के मन में पवित्र विचार आते हैं। कार्तिक माह में जमीन पर सोना तीसरा प्रमुख काम है।


ब्रह्मचर्य व्रत का पालन 

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- इतना ही नहीं, कार्तिक माह में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। इन नियमों का पालन करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है और व्यक्ति को भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है। मृत्यु के बाद व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त होता है।


कार्तिक मास महत्व


🪔भविष्य पुराण के अनुसार, हे ऋषि, जो भगवान श्रीकृष्ण के मंदिर के अंदर और बाहर दीप-माला की व्यवस्था करता है, वह उन्हीं द्वीपों द्वारा प्रकाशित पथ पर परमधाम के लिए प्रस्थान करेगा। (१४०) (स्कंद पुराण, ब्रह्मा और नारद के बीच संवाद) एक व्यक्ति जो कार्तिक के दौरान और विशेष रूप से एकादशी के दिनों में एक सुंदर दीप-माला की व्यवस्था करता है, जब भगवान जागते हैं, अपने तेज से चारों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और स्थित होते हैं। एक चमकदार वाहन पर, अपने शरीर की चमक से ब्रह्मांड को रोशन करते है। वे जितने घी के दीयों की व्यवस्था करते थे, उतने हजारों वर्षों तक भगवद्धाम में रहेंगे।


🪔कार्तिक माह में दीप जलाना भगवान श्रीकृष्ण की सेवा है। भगवान श्रीकृष्ण के मंदिर के अंदर और बाहर दीप-माला की व्यवस्था करने से व्यक्ति को भगवान के समान स्वरूप की प्राप्ति होती है।


🪔कार्तिक मास में जब कोई दीपक अर्पित करता है तो उसके लाखों-करोड़ों पाप पलक झपकते ही नष्ट हो जाते हैं।


🪔जो भक्त भगवान केशव को प्रसन्न करने के लिए दीपक अर्पित करते हैं, वह इस मृत्युलोक में पुनः जन्म नहीं लेते।


🪔जो भक्त घी का दीपक अर्पित करते हैं, उन्हें अश्वमेध-यज्ञ करने से क्या लाभ? इस प्रकार के दीपदान से अनेक अश्वमेध-यज्ञों का फल प्राप्त होता है।


🪔यदि कोई भगवान श्री हरि के मंदिर में थोड़े समय के लिए भी (कार्तिक के मास में)  दीपक जलाता है, तो उसने लाखों कल्पों के लिए जो भी पाप अर्जित किए हैं (एक कल्प 1000 युग के बराबर) सभी नष्ट हो जाते हैं।


🪔किसी के जीवन में भले ही कोई मंत्र न हो, कोई पवित्र कर्म न हो, और कोई पवित्रता न हो, उनके जीवन में भी कार्तिक मास में दीपक अर्पण करने से सब कुछ सही हो जाता है।


🪔जो भक्त कार्तिक के महीने में भगवान श्री कृष्ण को दीपक अर्पित करते है, उन्हें सभी यज्ञों और सभी पवित्र नदियों में स्नान करने के समान फल प्राप्त होता है।


🪔पितृ पक्ष के अनुसार, जब परिवार में कोई कार्तिक के महीने में भगवान केशव को दीपदान से प्रसन्न करता है, तो भगवान की कृपा से जो सुदर्शन-चक्र को अपने हाथ में रखते हैं, सभी पितरों को मुक्ति मिल जाएगी।


🪔कार्तिक मास में दीपक अर्पण से मेरु पर्वत या मंदरा पर्वत जितना बड़ा पापों का संग्रह जल जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।


🪔जो व्यक्ति कार्तिक के दौरान भगवान श्रीकृष्ण को दीपक अर्पित करता है, वह शाश्वत आध्यात्मिक संसार को प्राप्त करता है जहां कोई दुःख नहीं है।




शनिवार, 28 अक्टूबर 2023

करवाचौथ व्रत की कथा जानिए कैसे हुई इसकी शुरुआत व्रत की पूरी विधि

  करवाचौथ 

करवाचौथ


"सती के शाप से भयभीत होकर यमराज ने तुरंत मगरमच्छ को यमलोक भेज दिया और करवा के पति को जीवनदान दिया। इसलिए करवाचौथ के व्रत में सुहागन स्त्रियां करवा माता से प्रार्थना करती हैं कि हे करवा माता जैसे आपने अपने पति को मृत्यु के मुंह से वापस निकाल लिया वैसे ही मेरे सुहाग की भी रक्षा करना।"

करवा चौथ व्रत : 

सुबह 6:36 से रात 8:26 बजे तक है. 

करवा चौथ पूजा

शाम 5:36 मिनट से शाम 6:54 मिनट तक है.

करवा चौथ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान का पर्व है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। यह पर्व सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ मनाती हैं। यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब ४ बजे के बाद शुरू होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है।


ग्रामीण स्त्रियों से लेकर आधुनिक महिलाओं तक सभी नारियाँ करवाचौथ का व्रत बडी़ श्रद्धा एवं उत्साह के साथ रखती हैं। शास्त्रों के अनुसार यह व्रत कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करना चाहिए। पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है। 


करवाचौथ में भी संकष्टीगणेश चतुर्थी की तरह दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अ‌र्घ्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है। वर्तमान समय में करवाचौथ व्रतोत्सव ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं लेकिन अधिकतर स्त्रियां निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं।


कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं।


यह व्रत 12 वर्ष तक अथवा 16 वर्ष तक लगातार हर वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन (उपसंहार) किया जाता है। जो सुहागिन स्त्रियाँ आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं। इस व्रत के समान सौभाग्यदायक व्रत अन्य कोई दूसरा नहीं है। अतः सुहागिन स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षार्थ इस व्रत का सतत पालन करें।


भारत देश में वैसे तो चौथ माता जी के कही मंदिर स्थित है, लेकिन सबसे प्राचीन एवं सबसे अधिक ख्याति प्राप्त मंदिर राजस्थान राज्य के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा गाँव में स्थित है। चौथ माता के नाम पर इस गाँव का नाम बरवाड़ा से चौथ का बरवाड़ा पड़ गया। चौथ माता मंदिर की स्थापना महाराजा भीमसिंह चौहान ने की थी।


कार्तिक कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी अर्थात उस चतुर्थी की रात्रि को जिसमें चंद्रमा दिखाई देने वाला है, उस दिन प्रातः स्नान करके अपने सुहाग (पति) की आयु, आरोग्य, सौभाग्य का संकल्प लेकर दिनभर निराहार रहें। 


जानिए कैसे हुई इसकी शुरुआत। कैसे करें पूजन और व्रत की पूरी विधि


उस दिन भगवान शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा का पूजन करें। पूजन करने के लिए बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी बनाकर उपरोक्त वर्णित सभी देवों को स्थापित करें।


शुद्ध घी में आटे को सेंककर उसमें शक्कर अथवा खांड मिलाकर मोदक (लड्डू) नैवेद्य हेतु बनाएँ।


काली मिट्टी में शक्कर की चासनी मिलाकर उस मिट्टी से तैयार किए गए मिट्टी के करवे अथवा तांबे के बने हुए करवे। 10 अथवा 13 करवे अपनी सामर्थ्य अनुसार रखें।


कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं।


पूजन विधि


बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी पर शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा की स्थापना करें। मूर्ति के अभाव में सुपारी पर नाड़ा बाँधकर देवता की भावना करके स्थापित करें। पश्चात यथाशक्ति देवों का पूजन करें।


पूजन हेतु निम्न मंत्र बोलें 


'ॐ शिवायै नमः' से पार्वती का, 'ॐ नमः शिवाय' से शिव का, 'ॐ षण्मुखाय नमः' से स्वामी कार्तिकेय का, 'ॐ गणेशाय नमः' से गणेश का तथा 'ॐ सोमाय नमः' से चंद्रमा का पूजन करें।


करवों में लड्डू का नैवेद्य रखकर नैवेद्य अर्पित करें। एक लोटा, एक वस्त्र व एक विशेष करवा दक्षिणा के रूप में अर्पित कर पूजन समापन करें। करवा चौथ व्रत की कथा पढ़ें अथवा सुनें।


सायंकाल चंद्रमा के उदित हो जाने पर चंद्रमा का पूजन कर अर्घ्य प्रदान करें। इसके पश्चात ब्राह्मण, सुहागिन स्त्रियों व पति के माता-पिता को भोजन कराएँ। भोजन के पश्चात ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दें।


पति की माता (अर्थात अपनी सासूजी) को उपरोक्त रूप से अर्पित एक लोटा, वस्त्र व विशेष करवा भेंट कर आशीर्वाद लें। यदि वे जीवित न हों तो उनके तुल्य किसी अन्य स्त्री को भेंट करें। इसके पश्चात स्वयं व परिवार के अन्य सदस्य भोजन करें।


करवाचौथ व्रत की प्रथम कथा


बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी।


शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है।


सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो।


इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है।


वह पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है।


उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है।


सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है।


एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियाँ उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।


इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूँकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह के वह चली जाती है।


सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है।


अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अँगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुँह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्रीगणेश-श्रीगणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है। हे श्री गणेश माँ गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।


द्वितीय कथा


इस कथा का सार यह है कि शाकप्रस्थपुर वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती ने करवा चौथ का व्रत किया था। नियमानुसार उसे चंद्रोदय के बाद भोजन करना था, परंतु उससे भूख नहीं सही गई और वह व्याकुल हो उठी। उसके भाइयों से अपनी बहन की व्याकुलता देखी नहीं गई और उन्होंने पीपल की आड़ में आतिशबाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करा दिया।


परिणाम यह हुआ कि उसका पति तत्काल अदृश्य हो गया। अधीर वीरवती ने बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी को व्रत रखा और करवा चौथ के दिन उसकी तपस्या से उसका पति पुनः प्राप्त हो गया।


तृतीय कथा


एक समय की बात है कि एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे के गाँव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। स्नान करते समय वहाँ एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह मनुष्य करवा-करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा।


उसकी आवाज सुनकर उसकी पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को कच्चे धागे से बाँध दिया। मगर को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से कहने लगी- हे भगवन! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगर को पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में ले जाओ।


यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी। सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।


चौथी कथा


एक बार पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रोपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। कृष्ण भगवान ने कहा- बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था।


पूजन कर चंद्रमा को अर्घ्‍य देकर फिर भोजन ग्रहण किया जाता है। सोने, चाँदी या मिट्टी के करवे का आपस में आदान-प्रदान किया जाता है, जो आपसी प्रेम-भाव को बढ़ाता है। पूजन करने के बाद महिलाएँ अपने सास-ससुर एवं बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेती हैं।


तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी।


एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी।


भाइयों से न रहा गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी- देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया।


भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। अब वह दुःखी हो विलाप करने लगी, तभी वहाँ से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुःख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुःख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला।


अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से हिन्दू महिलाएँ अपने अखंड सुहाग के लिए करवा चौथ व्रत करती हैं। 

नमस्कार मित्रों ,भाई और बहनों मै यह ब्लॉग आप सब के लिए कड़ी मेहनत और पूरी निष्ठा से तैयार करता हूँ |  बहुत देख समझ कर कही कोई गलती न हो जाये | जिस भी टॉपिक पर ब्लॉग होता है उनसे सम्बंधित व्यक्तियों और पंडित जी के परामर्श से ही लिखता हूँ | यदि भूल बस कोई गलती हो जाये तो मे क्षमा चाहता हूँ | और मेरे ब्लॉग आपको पसंद आते है तो इसको फॉलो और लिखे और शेयर करना न भूलें | मैं अपने धर्म और देश की लोककथाएं और देवी देवताओं की कथा कहानी उपाए भक्तों तक पहुचनाना चाहता हूँ | इससे सभी को लाभ मिले और सभी के घर परिवार में सुख और शांति बानी रहे | 


शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2023

चंद्र ग्रहण का समय ,पौराणिक कथा ,सूतक काल , क्या करें ,क्या ना करें ,पुण्य काल , कहाँ कहाँ दिखाई देगा चंद्र ग्रहण

                                                                        


चंद्र - ग्रहण

                                   चंद्र - ग्रहण 

                                  

 28 अक्टूबर 2023 शनिवार 

साल का अंतिम चंद्र ग्रहण प्रारंभ समय: 28 अक्टूबर, देर रात 01:06 बजे‌… 
चंद्र ग्रहण समापन समय: 28 अक्टूबर, मध्य रात्रि 02:22 बजे
सूतक काल का समय: 28 अक्टूबर, दोपहर 02:52 बजे से लेकर मध्य रात्रि 02:22 बजे तक…


चंद्रग्रहण सिर्फ और सिर्फ वैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण घटना है। साल का अंतिम चंद्रग्रहण शरद पूर्णिमा के दिन लगने जा रहा है। शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी 16 कलाओं से परिपूर्ण रहता है ऐसे में इस दिन ग्रहण लगना बेहद महत्वपूर्ण रहने वाला है। इस साल का अंतिम चंद्रग्रहण मेष राशि में लगने जा रहा है। ग्रहण का असर सभी राशियों पर दिखाई देने वाला है।


चंद्र-ग्रहण का समय-: 


चंद्रग्रहण 28 अक्टूबर 2023, शनिवार देर रात 1 बजकर 5 मिनट से लेकर 2 बजकर 24 मिनट तक रहेगा। यानी यह ग्रहण 1 घंटा 18 मिनट का रहेगा। इस चंद्र ग्रहण का सूतक काल भारत में मान्य होगा।


ग्रहण सूतक काल समय-: 

चंद्रग्रहण का सूतक काल ग्रहण के 9 घंटे पूर्व से शुरु हो जाता है अतः भारतीय समय अनुसार, चंद्रग्रहण का सूतक शाम में 4 बजकर 5 मिनट पर आरंभ हो जाएगा। इस ग्रहण में चंद्रबिम्ब दक्षिण की तरफ से ग्रस्त होगा।


ग्रहण काल में अनुष्ठान पूजा पाठ करने की शास्त्रोक्त व्यवस्था:-

"ग्रस्यमाने भवेत्स्नानं ग्रस्ते होमो विधीयते।
मुच्यमाने भवेद्दानं मुक्तौ स्नानं विधीयते।।"
                            (वृद्ध वसिष्ठ)

सूर्येन्दु -ग्रहणं यावत्तावत् कुर्याज्जपादिकम्।। 
                          (शिव रहस्ये)
 ग्रहणकाल शुरू होते ही तत्काल सचैल ( वस्त्र सहित स्नान )  करने के उपरान्त शुद्ध वस्त्र धारण करने के उपरान्त पूजन पाठ से सम्बन्धित देवी देवता का ध्यान करके ध्यान करके मानसिक पूजा एवं धूप, दीप करने के उपरान्त पाठ, जप हवन इत्यादि अनेक प्रकार के मंत्र साधनाओं से सम्बन्धित अनुष्ठान पूजा पाठ सिद्धि कुछ भी कर सकते हैं। ग्रहण समाप्ति के बाद पुनः सचैल  स्नान करना चाहिए।

विशेष ध्यान दें:- ग्रहणकाल प्रारम्भ होने में सचैल स्नान ग्रहणकाल में जप पूजा पाठ होम मुक्त काल में दान व ग्रहण मुक्त होने के बाद स्नान करना अनिवार्य आवश्यक कर्म है। सभी सनातन धर्मावलंबी जनों को ध्यानपूर्वक यह कार्य अवश्य करना चाहिए। बाल, वृद्ध, रोगी के लिए कोई नियम लागू नहीं होता है।। शास्त्रों में इनके लिए छूट दी गई है।।


ग्रहणकाल में दूषित अन्न व अदूषित ख़ाद्य पदार्थ की शास्त्रीय व्यवस्था:-

"सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहुदर्शने।
स्नात्वा कर्माणि कुर्वीत शृतमन्नं विवर्जयेत्।।"

विशेष ध्यान दें :- 

पका हुआ अन्न, कटी हुई सब्जी, व कटे हुए फल ग्रहणकाल में दूषित हो जाते हैं।
 ये शास्त्रों में वर्णित परिहार पदार्थ डाल देने से भी अर्थात  तिल, कुश, तुलसी पत्र डालने से भी शुद्ध (ग्रहण करने योग्य) नहीं होते हैं। 
अन्न को यदि ग्रहणकाल के पूर्व या सूतक काल के पूर्व ही क्यों न पकाया गया हो ग्रहणकाल में तिल, कुश डालने के बाद भी ग्रहणकाल के बाद खान-पान के योग्य कदापि नहीं हो सकता है।।

कौन कौन से पदार्थ ग्रहण काल के बाद खान-पान योग्य हो सकते हैं:-

सूतक काल ,ग्रहणकाल के पूर्व तेल या घी में  पका हुआ (तला हुआ) अन्न , घी, तेल , दूध, दही, लस्सी, मक्खन, पनीर, अचार चटनी, कांजी, सिरका, मुरब्बा में तिल या कुशा रख देने से ये ग्रहणकाल में भी दूषित नहीं होते हैं। 

वारि-तक्रारनालादि तिल -दर्भैर्न दुष्यति।।
 (मन्वर्थ मुक्तावलि)

उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है कि इस वर्ष ग्रहणकाल शरद पूर्णिमा में पड़ने के कारण शरद पूर्णिमा को को रात्रि में खुले आसमान में रखी जाने वाली गौ दुग्ध खीर सूतक काल से पहले भी बनाकर रख देने के बावजूद तथा परिहार स्वरूप कुश, तिल, तुलसी पत्ती आदि कुछ भी डालने से ग्रहणकाल के बाद भी आसमान में रखने से खाने योग्य शास्त्र सम्मत आदेशानुसार नहीं हो सकती है।
अब जबरजस्ती किसी को खाना है। तो हम रोक नहीं सकते हैं। 
तुलसी पत्ती डालने का प्रमाण हमें नहीं मिला है। लेकिन हर घर परिवार में तुलसी पत्ती होने से ऐसा प्रचलित है। 

शास्त्रों में तिल कुश डालने का प्रमाण आधार मिलता है।तुलसी पत्ती का नहीं। यह भी  ध्यान रखें।।
सूखे खाद्यान्न (गेहूं ,चना,दाल, चावल ,आटा,आलू प्याज, लहसुन, टमाटर सब्जी, फल ) ये प्रदूषित नहीं होते हैं। इनमें तिल या कुशा रखने की आवश्यकता नहीं होती है।।

ग्रहणकाल में श्राद्ध करने का भी विशेष माहात्म्य है। लेकिन पिण्ड रहित श्राद्ध करने का विधान शास्त्रों में वर्णित किया गया है। 

लेकिन मेरे सामने प्रश्न आया है कि इस सम्बन्ध में शास्त्र सम्मत प्रमाण आधार युक्त जानकारी व्यवस्था क्या है? जो शास्त्र सम्मत प्रमाण आधार युक्त जानकारी है वह मैं प्रेषित कर रहा हूं।।

ध्यान रहे:-

कुछ पंचांगकार सम्पादकों ने भी ग्रहणकाल से पूर्व खीर बनाने की तथा अनेक शहरों के ब्राह्मणों पुरोहितों आचार्यों ने यजमानों को प्रसन्न रखने हेतु खीर बनाकर रखने की अनुमति दे दी है। तथा बहुत से शहरों में ब्राह्मणों पुरोहितों आचार्यों ने अखबारों में भी प्रकाशित करवा रखा है।।

लेकिन ध्यान रखें उन सभी का यह कथन केवल लोगों के मन की बात बनाये रखने का ही है :-

 शास्त्र सम्मत प्रमाण आधार युक्त नहीं है।। शास्त्र सम्मत प्रमाण आधार युक्त जानकारी यही है कि आप खीर गाय के दूध से बनाकर सूतक काल से पहले रख ही नहीं सकते हैं।। इसका शास्त्र सम्मत कोई विकल्प कोई परिहार नहीं है।। 

अतः सभी विद्वानों को शास्त्रों में वर्णित नियमानुसार ही समाज को बताया जाना चाहिए।। शास्त्र विरुद्ध अशास्त्रीय मनमानी आचरण करते हुए समाज को दिग्भ्रमित नहीं करना चाहिए।

हां यदि कोई रात्रि में 29 तारीख की रात्रि को 2:23 ग्रहणकाल के बाद सचैल वस्त्र सहित स्नान करने के उपरान्त कुश तिल पड़ा हुआ दूध से खीर बनाकर रखता है तो शास्त्र सम्मत प्रमाण आधार युक्त सही तरीका होगा।। 
लेकिन रात्रि में सभी वर्णों के लिए करना ऐसा सम्भव नहीं है।। जो नहीं कर सकते हैं वे न ही करें तो ज्यादा बेहतर उत्तम अच्छा रहेगा।।

देश और दुनिया में कहां- कहां दिखाई देगा ग्रहण-: 

चंद्रग्रहण भारत, ऑस्ट्रेलिया, संपूर्ण एशिया, यूरोप, अफ्रीका, दक्षिणी-पूर्वी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, कैनेडा, ब्राजील , एटलांटिक महासागर में यह ग्रहण दिखाई देगा। भारत में यह ग्रहण शुरुआत से अंत तक दिखाई देगा।


सूतक काल में न करें ये काम-: 


चंद्रग्रहण का सूतक शाम में 4 बजकर 5 मिनट पर प्रारंभ हो जाएगा। इस दौरान आपको किसी प्रकार का मांगलिक कार्य, स्नान, हवन और भगवान की मूर्ति का स्पर्श नहीं करना चाहिए। इस समय आप अपने गुरु मंत्र, भगवान नाम जप, श्रीहनुमान चालीसा कर सकते हैं।


 चंद्र ग्रहण- सूतक काल के दौरान भोजन बनाना व भोजन करना भी उचित नहीं है। हालांकि, सूतक काल में गर्भवती स्त्री, बच्चे, वृद्ध जन भोजन कर सकते हैं। ऐसा करने से उन्हें दोष नहीं लगेगा। ध्यान रखें की सूतक काल आरंभ होने से पहले खाने पीने की चीजों में तुलसी के पत्ते डाल दें। इसके अलावा आप इसमें कुश भी डाल सकते हैं।


चंद्र ग्रहण पुण्य काल-:

 चंद्र, ग्रहण से मुक्त होने के बाद स्नान- दान- पुण्य- पूजा उपासना इत्यादि का विशेष महत्व है। अतः 29 अक्टूबर, सुबह स्नान के बाद भगवान की पूजा- उपासना, दान पुण्य करें। ऐसा करने से चंद्र ग्रहण के अशुभ प्रभाव कम होते हैं।


देश और दुनिया में कहां- कहां दिखाई देगा ग्रहण-: 

चंद्रग्रहण भारत, ऑस्ट्रेलिया, संपूर्ण एशिया, यूरोप, अफ्रीका, दक्षिणी-पूर्वी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, कैनेडा, ब्राजील , एटलांटिक महासागर में यह ग्रहण दिखाई देगा। भारत में यह ग्रहण शुरुआत से अंत तक दिखाई देगा।


चंद्र ग्रहण कब और कैसे होता है :-

चंद्र ग्रहण पूर्णिमा के दिन होता है जब पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के बीच आती है | पृथ्वी की छाया चन्द्रमा मे पड़ती है | जिससे यह कुछ देर या घंटों तक धुंधला हो जाता है या कभी कभी लाल लाल दिखाई पड़ता है | 


चंद्र ग्रहण पौराणिक कथा 

पौराणिक कथा के अनुसार देवों और दानवों के बीच समुद्र मंथन के दौरान 14 रत्नों में एक अमृत कलश भी निकला था. इसके लिए देवताओं और दानवों में विवाद होने लगा. इसको सुलझाने के लिए मोहिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया. मोहिनी रूप धारण किये हुए भगवान विष्णु ने अपने हाथ में अमृत कलश देवों और दानवों में समान भाग में बांटने का विचार रखा, जिसे भगवान विष्णु के मोहिनी रूप से आसक्त होकर दानवों ने स्वीकार कर लिया. तब भगवान विष्णु ने देवताओं और असुरों को अलग-अलग लाइन में बैठा दिया.

दानवों के साथ कुछ गलत हो रहा है. इसकी भनक दैत्यों की पंक्ति में स्वर्भानु नाम के दैत्य को लग गई. उसे यह आभास हुआ कि मोहिनी रूप में दानवों के साथ धोखा किया जा रहा है. ऐसे में वह देवताओं का रूप धारण कर सूर्य और चन्द्रमा के बगल आकर बैठ गए. जैसे ही अमृत पान को मिला, वैसे ही सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और यह बात भगवान विष्णु को बताई, जिस पर क्रोधित होकर नारायण भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र के राहु के गले पर वार किया, लेकिन तब तक राहु अमृत पी चुका था. इससे उसकी मृत्यु तो नहीं हुई, परन्तु उसके शरीर के दो धड़ जरूर हो गए.


सिर वाले भाग को राहु और धड़ वाले भाग को केतु कहा गया. इसके बाद ब्रह्मा जी ने स्वर्भानु के सिर को एक सर्प वाले शरीर से जोड़ दिया. यह शरीर ही राहु कहलाया और उसके धड़ को सर्प के दूसरे सिरे के साथ जोड़ दिया, जो केतु कहलाया. सूर्य और चंद्रमा के पोल खोलने के कारण राहु और केतु दोनों इनके दुश्मन बन गए. इसी कारण ये राहु और केतु पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा को ग्रस लेते है | 





शरद पूर्णिमा की खीर , ग्रहण , सूतक काल , खीर बनाने का समय व शरद पूर्णिमा की खीर का महत्व पढे़

शरद पूर्णिमा की खीर , ग्रहण , सूतक काल , खीर बनाने का समय व शरद पूर्णिमा की खीर का महत्व पढे़  

शरद पूर्णिमा


कब है शरद पूर्णिमा 2023…!? 

शरद पूर्णिमा तिथि का प्रारंभ: 28 अक्टूबर, शनिवार, प्रात: 04:17 बजे से…
शरद पूर्णिमा तिथि का समापन: 29 अक्टूबर, रविवार, 01:53 AM पर…

 कब है चंद्र ग्रहण 2023…!? 

साल का अंतिम चंद्र ग्रहण प्रारंभ समय: 28 अक्टूबर, देर रात 01:06 बजे‌… 
चंद्र ग्रहण समापन समय: 28 अक्टूबर, मध्य रात्रि 02:22 बजे
सूतक काल का समय: 28 अक्टूबर, दोपहर 02:52 बजे से लेकर मध्य रात्रि 02:22 बजे तक…

चंद्र ग्रहण के समय न रखें शरद पूर्णिमा की खीर, इस गलती से बचें… 

28 अक्टूबर को शरद पूर्णिमा है और उस दिन चंद्र ग्रहण का सूतक काल दोपहर से प्रारंभ है. यदि आप इस दिन खीर बनाकर रखते हैं तो वह दूषित हो जाएगा. सूतक काल के पूर्व आप खीर बना लेते हैं तो भी वह ग्रहण से दूषित होगा. उसे आप ग्रहण के बाद चंद्रमा की रोशनी में रखकर नहीं खा सकते हैं. दूषित खीर आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है.

 शरद पूर्णिमा 2023 खीर रखने का सही समय… 

आप शरद पूर्णिमा की खीर चतुर्दशी की रात यानि 27 अक्टूबर शुक्रवार की रात बना लें. फिर 28 अक्टूबर को जब शरद पूर्णिमा की तिथि प्रात: 04:17 बजे से शुरू हो तो उस समय उस खीर को चंद्रमा की रोशनी में रख दें. उस दिन चंद्रास्त प्रात: 04:42 पर होगा. यह समय नई दिल्ली का है. चंद्रास्त के बाद उस खीर को खा सकते हैं. 28 अक्टूबर के प्रात: पूर्णिमा तिथि में चंद्रमा की औषधियुक्त रोशनी प्राप्त हो जाएगी.

दूसरा विकल्प यह है कि आप 28 अक्टूबर के मध्य रात्रि चंद्र ग्रहण के बाद खीर बनाएं और उसे खुले आसमान के नीचे रख दें ताकि उसमें चंद्रमा की रोशनी पड़े. बाद में उस खीर को खा सकते हैं.

शरद पूर्णिमा की खीर का महत्व… 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा 16 कलाओं से पूर्ण होकर आलोकित होता है. इस वजह से उसकी किरणों में अमृत के समान औषधीय गुण होते हैं. जब हम शरद पूर्णिमा की रात खीर को खुले आसमान के नीचे रखते हैं तो उसमें चंद्रमा की किरणें पड़ती हैं, जिससे वह खीर औषधीय गुणों वाला हो जाता है. खीर की सामग्री दूध, चावल और चीनी तीनों ही चंद्रमा से जुड़ी वस्तुएं हैं, इसके सेवन से स्वास्थ्य लाभ तो होता ही है, कुंडली का चंद्र दोष निवारण भी होता है.




गुरुवार, 26 अक्टूबर 2023

जानिए क्या है शरद पूर्णिमा की कथा और इसका महत्त्व

  शरद पूर्णिमा और की कथा और इसका महत्त्व 


शरद पूर्णिमा


पौराणिक कथा के अनुसार - समुद्र मंथन के दौरान माता लक्ष्मी प्रगट हुई थी | मान्यता है की भगवान विष्णु जी के साथ माता लक्ष्मी गरुड़ मे बैठकर पृथ्वीलोक का भ्रमण करती है | ऐसे मे जो भक्त सारी रात जागकर व्रत रखते है माता उन पर अपनी कृपा बरसाती है | 

 एक और मान्यता है कि इस दिन भगवान् श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ महारास रचाया था | मुख्य रूप से पूर्णिमा का व्रत लक्ष्मी प्राप्ति के लिए किया  जाता है | इस दिन जागरण करने वालों की धन-संपत्ति में वृद्धि होती है. रात को चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करने की परंपरा है.

इस दिन मंदिरों में विशेष सेवा -पूजन व श्रृंगार किया जाता है। भगवान को सफेद वस्त्र धारण कराये जाते है। रात को भगवान को दूध और चावल से बनी खीर का भोग लगाया जाता है। भोग लगाकर खीर को रात भर चन्द्रमा की चांदनी में रखा जाता है ।


शरद पूर्णिमा कब मनाई जाती है :-

आश्विन मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते है | इस दिन चन्द्रमा अपने पूरे तेज़ मे सोलह कलाओं के साथ चमकता है | ऐसी मान्यता है की आज की रात चन्द्रमा से अमृत बरसता है | इस दिन चन्द्रमा की किरणों मे आत्मा शरीर दोनों शुद्ध करने की शक्ति होती है |हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार सोलह कलाओं के सामंजस्य से ही किसी सम्पूर्ण मानव का जन्म होता है। सिर्फ भगवान श्री कृष्ण का जन्म पूरी सोलह कलाओं के साथ हुआ था।

बहुत जगह शरद पूर्णिमा व्रत को कोज़गारी व्रत/पूजा के नाम से जाना जाता है | इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं | कोजागरी का मतलब होता है कौन जाग रहा है। ऐसा माना जाता है की माँ लक्ष्मी विचरण करते हुए पूछती है कौन जाग रहा है , जो जाग रहा होता है , उसे माँ लक्ष्मी धन धान्य से परिपूर्ण करती है।


शरद पूर्णिमा की कथा :-

एक साहूकार था उसकी दो बेटिया थी। वह दोनों पूर्णिमा का व्रत करती थी। बड़ी बेटी व्रत पूरा करती थी ओर छोटी बेटी अधूरा व्रत करती थी।

साहूकार ने दोनों बेटियो का धूमधाम से विवाह किया। कुछ समय पश्चात दोनों गर्भवती हुई और दोनों ने बच्चो को जन्म दिया परन्तु छोटी बेटी के संतान होते ही मर गयी। इसके बाद भी छोटी बेटी के जब भी संतान होती , होते ही मर जाती थी।


छोटी बेटी संतान की मृत्यु से बहुत दुखी हो गयी उसने पंडितो से इसका कारण पूछा तो पंडितो ने बताया की तुम अधूरा व्रत करती हो जिसके कारण तुम्हारी संतान नहीं बचती हैं। अगर तुम पूर्णिमा का पूरा व्रत विधि पूर्वक करोगी तो तुम्हारी संतान जीवित रहेगी।

पंडितो के कहे अनुसार उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत विधि पूर्वक किया । इससे उसे लड़का हुआ परंतु तुरन्त ही मर गया। उसने लड़के को पीढ़े पर लेटाया और चादर से उड़ा कर अपनी बड़ी बहन के पास गयी और उसे बुला कर लायी।

बहन को उसी पीढ़े पर बैठने को कहा । बहन जैसे ही पीढ़े पर बैठने लगी तो उसका घाघरा बच्चे को छू गया ,घाघरा छूते ही बच्चा जीवित हो गया और रोने लगा।

तब बड़ी बहन छोटी बहन से बोली –” तू मुझ पर कलंक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता ”

तब छोटी बहन बोली ,” यह तो पहले से ही मृत था। तेरे पुण्य से जीवित हो गया ”

तेरे भाग्य से इसका पुनर्जीवन हुआ हैं। ”

बच्चे की आवाज़ सुनकर छोटी बहन बहुत खुश हुई उसने अपनी बड़ी बहन से कहा –

तू पूरा व्रत करती थी और मैं अधूरा व्रत करती थी इसीलिए तेरे ऊपर हमेशा भगवान की कृपा हुई और मैं हमेशा अधूरा व्रत करती थी इसीलिये मुझे दोष लगा और मेरी संतान जीवित नहीं रहती थी।

आज तेरे भाग्य से मेरी संतान जीवित हो गयी। उसने पूरे गाँव में ढिंढोरा पिटवा दिया की जो कोई भी व्रत करे वह पूरा व्रत करे अधूरा न करे।

शरद पूर्णिमा की विधि-विधान 

इस दिन मनुष्य विधिपूर्वक स्नान करके उपवास रखे और जितेन्द्रिय भाव से रहे। धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए दीपक जलाए। फिर घी मिश्रित खीर बनायें और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमाँ की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक निर्धनों और दीन-बन्धुुुओं को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही माङ्गलिक गीत गाकर तथा मङ्गलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनन्तर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा किसी दीन दुःखी को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी।

इस प्रकार प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अन्त होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।


शरद पूर्णिमा की खीर का महत्व… 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा 16 कलाओं से पूर्ण होकर आलोकित होता है. इस वजह से उसकी किरणों में अमृत के समान औषधीय गुण होते हैं. जब हम शरद पूर्णिमा की रात खीर को खुले आसमान के नीचे रखते हैं तो उसमें चंद्रमा की किरणें पड़ती हैं, जिससे वह खीर औषधीय गुणों वाला हो जाता है. खीर की सामग्री दूध, चावल और चीनी तीनों ही चंद्रमा से जुड़ी वस्तुएं हैं, इसके सेवन से स्वास्थ्य लाभ तो होता ही है, कुंडली का चंद्र दोष निवारण भी होता है.


देवी माँ के 9 वाहन सिंह,हंस,व्याघ्र,वृषभ,गरुड़,मयूर,उल्लू,गदर्भ,हाथी का अर्थ

माता रानी के 9 अलग अलग रूप है और उनकी अलग अलग सवारी है | माँ के इन 9 रूपों को पाप का विनाश करने वाली कहा जाता है | पुराणों अनुसार हर देवी देवता के अलग वाहन है जो कल्पना न होकर उनसे सम्बंधित शक्ति का परिचय देते है | 

देवी माँ के 9 वाहनों का अर्थ



देवी माँ के 9 वाहन और उनका अर्थ


1- सिंह - देवी दुर्गा का वाहन सिंह बल का प्रतीक है माता दुर्गा के उपासक शक्तिशाली होते है और शत्रुओ का सामना करने में समर्थ होते है !


2 - हंस -  देवी सरस्वती का वाहन हंस है मोती चुगना उसकी विशेषता है इन गुणों को अपनाकर ब्रह्म पद पाया जाता है ! 


3- व्याघ्र - यह स्फूर्ति व निरंतर कर्म करने का प्रतीक है अतः माता देवी कुछ विशिष्ट रूपों में बाघ की सवारी करती है ! 


4 - वृषभ -  बैल ब्रह्मचर्य व संयम का प्रतीक है यह बल व सकारात्म ऊर्जा की प्राप्ति करता है इसलिए न केवल भगवती शैलपुत्री अपितु भगवान शिव नंदी की ही सवारी करते है !


5 - गरुड़ -  भगवती लक्ष्मी जब भगवान नारायण के साथ विचरण करती है तो वे विष्णु वाहन गरुड़ पर विराजमान होती है गरुड़ त्याग व वैराग्य के प्रतीक है इन्हें पक्षियों का राजा माना जाता है !


6 - मयूर -  भगवान कार्तिकेय की  परम शक्ति कार्तिकेय मोर पर विराजित है मोर सौन्दर्य , लावण्य , स्नेह , व योग शक्ति का प्रतीक है ! 


7 - उल्लू -  माता लक्ष्मी का वाहन उल्लू आध्यात्मिक दृष्टि से अंघता का प्रतीक है सांसारिक जीवन में लक्ष्मी यानि धन दौलत के पीछे भागने वाला इंसान आत्मज्ञान रूपी सूर्य को नहीं देख पाता है ! 


8 - गर्दभ -  यह तमोगुण का प्रतीक है इसलिए भगवती कालरात्रि ने इसे अपने वाहन के रूप में चुना है माता शीतला माता का वाहन भी गधा ही होता है ! 


9 - हाथी -  देवी विभिन्न रूपों में हाथी पर विराजमान होती है अनेक लोकदेवीयाँ हाथी पर बैठती है |  तंत्र शास्त्र के अनुसार देवी का एक नाम गजलक्ष्मी भी है ! 

बुधवार, 25 अक्टूबर 2023

कुबेर का घर एक शिक्षाप्रद कहानी

 कुबेर का सच्चा घर 


  एक साधु, विचित्र स्वभाव का था। वह बोलता कम था। उसके बोलने का ढंग भी अजीब था। उनकी माँग सुनकर सब लोग हँसते थे।

     कोई चिढ़ जाता था, तो कोई उसकी माँग सुनी अनुसनी कर अपने काम में जुट जाता था।

     साधु प्रत्येक घर के सामने खड़ा होकर पुकारता।

     माई! अंजुलि भर मोती देना.. ईश्वर, तुम्हारा कल्याण करेगा.. भला करेगा।'

     साधु की यह विचित्र माँग सुनकर स्त्रियाँ चकित हो उठती थीं। वे कहती थीं - 'बाबा! यहाँ तो पेट भरने के लाले पड़े हैं। तुम्हें इतने ढेर सारे मोती कहाँ से दे सकेंगे।

     किसी राजमहल में जाकर मोती माँगना। जाओ बाबा, जाओ... आगे बढ़ो...।'

     साधु को खाली हाथ, गाँव छोड़ता देख एक बुढ़िया को उस पर दया आई। बुढ़िया ने साधु को पास बुलाया।

     उसकी हथेली पर एक नन्हा सा मोती रखकर वह बोली:- साधु महाराज! मेरे पास अंजुलि भर मोती तो नहीं हैं। नाक की नथनी टूटी, तो यह एक मोती मिला है। मैंने इसे संभालकर रखा था। यह मोती ले लो। मेरे पास एक मोती है, ऐसा मेरे मन को गर्व तो नहीं होगा। इसलिए तुम्हें सौंप रही हूँ। कृपा कर इसे स्वीकार करें। हमारे गाँव से, खाली हाथ मत जाना।'

     बुढ़िया के  हाथ का नन्हा सा मोती देखकर साधु हँसने लगा।

     उसने कहा, 'माताजी! यह छोटा मोती मैं अपनी फटी हुई झोली में कहाँ रखूँ? इसे आप अपने ही पास रखना।'

     ऐसा कहकर साधु उस गाँव के बाहर निकल पड़ा। दूसरे गाँव में आकर साधु प्रत्येक घर के सामने खड़ा होकर पुकारने लगा..!

     माताजी प्याली भर मोती देना। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेगा।'

     साधु की यह विचित्र माँग सुनकर वहाँ की स्त्रियाँ भी अचंभित हो उठीं। वहाँ भी साधु को प्याली भर मोती नहीं मिले।

     अंत में निराश होकर वह वहाँ से भी खाली हाथ जाने लगा।

     उस गाँव के एक छोर में किसान का एक ही घर था। वहाँ मोती माँगने की चाह उसे घर के सामने ले गई।

     माताजी! प्याली भर मोती देना.. ईश्वर, तुम्हारा भला करेगा। साधु ने पुकार लगाई।

     किसान सहसा बाहर आया। ‍उसने साधु के लिए ओसारे में चादर बिछाई। और साधु से विनती की,कि....!

     साधु महाराज, पधारिए... विराजमान होइए।' किसान ने साधु को प्रणामकिया और मुड़कर पत्नी को आवाज दी..!

     लक्ष्मी, बाहर साधु जी आए हैं। इनके दर्शन कर लो। किसान की पत्नी तुरंत बाहर आई। उसने साधुजी के पाँव धोकर दर्शन किए।

     किसान ने कहा- 'देख लक्ष्मी; साधुजी बहुत भूखे हैं। इनके भोजन की तुरंत व्यवस्था करना।

     अंजुलि भर मोती लेकर पीसना, और उसकी रोटियाँ बनाना। तब तक मैं मोतियों की गागर लेकर आता हूँ।' ऐसा कहकर वह किसान खाली गागर लेकर घर के बाहर निकला। 

     कुछ समय पश्चात किसान लौट आया। तब तक लक्ष्मी ने भोजन बनाकर तैयार कर रखा था।

     साधु ने पेट भर भोजन किया। वह प्रसन्न हुआ। उसने हँसकर किसान से कहा... 'बहुत दिनों बाद कुबेर के घर का भोजन मिला है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

     अब तुम्हारी याद आती रहे, इसलिए मुझे कान भर मोती देना। मैं तुम दंपति को सदैव याद करूँगा।'उस पर किसान ने हँसकर कहा - 'साधु महाराज! मैं अनपढ़ किसान, आपको कान भर मोती कैसे दे सकता हूँ?

     आप ज्ञान संपन्न हैं। इस कारण "हम" दोनों आपसे कान भर मोतियों की अपेक्षा रखते हैं।'

     साधु ने आँखें बन्द कर कहा - 'नहीं किसान राजा, तुम अनपढ़ नहीं हो। तुम तो विद्वान हो। इस कारण तुम मेरी इच्छा पूरी करने में सक्षम रहे। 

     मेरी विचित्र माँग पूरी होने तक मैं हमेशा भूखा-प्यासा हूँ। जब तुम जैसा कोई कुबेर भंडारी मिल जाता है तो मै, पेट भरकर भोजन कर लेता हूँ।

     साधु ने, किसान की ओर देखा और कहा- "जो फसल के दानों, पानी की बूँदों और उपदेश के शब्दों को मोती समझता है। वही मेरी दृष्टि से सच्चा कुबेर का घर है।

     मैं वहाँ पेट भरकर भोजन करता हूँ। फिर वह भोजन दाल-रोटी हो या चटनी रोटी। प्रसन्नता का नमक उसमें स्वाद भर देता है।

     जहाँ आतिथ्‍य का वास है। वहाँ मुझे भोजन अवश्य मिल जाता है। अच्छा, अब मुझे चलने की अन‍ुमति दे। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे।'

     किसान दंपत्ति को आशीर्वाद देकर साधु महाराज आगे चल पड़ा। 

और कहा -  

  पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं। जल, अन्न और सुभाषित। मूर्ख लोग ही पत्थर के टुकड़ों हीरे, मोती माणिक्य आदि को रत्न कहते हैं।

 

51 शक्तिपीठों की संक्षिप्त पौराणिक कथा एवं विवरण

कैसे हुआ शक्तिपीठों का निर्माण

51 शक्तिपीठ

भगवान शिव के क्रोध भरे तांडव पर पृथ्वी पर प्रलय का खतरा बढ़ने लगा, जिसे रोकने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से मां सती के शरीर को खंड-खंड कर दिया. मां सती के शरीर के हिस्से धरती पर जहां गिरे, वहां एक शक्तिपीठ की स्थापना हुई. ऐसे कुल 51 शक्तिपीठों का निर्माण हुआ.


51 शक्तिपीठ पौराणिक कथा एवं विवरण


 हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में जरूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।


ज्ञातव्य है की इन 51 शक्तिपीठों में भारत-विभाजन के बाद 5 और भी कम हो गए और आज के भारत में 42 शक्ति पीठ रह गए है। 1 शक्तिपीठ पकिस्तान में चला गया और 4 बांग्लादेश में। शेष 4 पीठो में 1 श्रीलंका में, 1 तिब्बत में तथा 2 नेपाल में है।

                                                                  

या देवी सर्व भुतेशु शक्ति रुपेन सस्मिथा नम: तस्ये नम: तस्ये नम: तस्ये नमो नम:|| 


देश-विदेश में स्थित इन 51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है, वह यह है कि राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने सती के रूप में जन्म लिया था और भगवान शिव से विवाह किया। एक बार मुनियों का एक समूह यज्ञ करवा रहा था। यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था। जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए। भगवान शिव दक्ष के दामाद थे। यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए। दक्ष अपने दामाद शिव को हमेशा निरादर भाव से देखते थे। सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व / ब्रिहासनी' नामक यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ मेंब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता और सती के पति भगवान शिव को इस यज्ञ में शामिल होने के लिए निमन्त्रण नहीं भेजा था। जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए। नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा। सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। 'तंत्र-चूड़ामणि' के अनुसार इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र याआभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या करशिव को पुन: पति रूप में प्राप्त किया।


शक्तिपीठों का विवरण   

                                                                                                  किरीट कात्यायनी शक्तिपीठ 👉 पश्चिम बंगाल के हुगली नदी के तट लालबाग कोट पर स्थित है किरीट शक्तिपीठ, जहां सती माता का किरीट यानी शिराभूषण या मुकुट गिरा था। यहां की शक्ति विमला अथवा भुवनेश्वरी तथा भैरव संवर्त हैं।


कात्यायनी शक्तिपीठ👉 वृन्दावन, मथुरा के भूतेश्वर में स्थित है कात्यायनी वृन्दावन शक्तिपीठ जहां सती का केशपाश गिरा था। यहां की शक्ति देवी कात्यायनी हैं।


करवीर शक्तिपीठ👉 महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का त्रिनेत्र गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव क्रोधशिश हैं। यहां महालक्ष्मी का निज निवास माना जाता है। 


श्री पर्वत शक्तिपीठ👉 इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतान्तर है कुछ विद्वानों का मानना है कि इस पीठ का मूल स्थल लद्दाख है, जबकि कुछ का मानना है कि यह असम के सिलहट में है जहां माता सती का दक्षिण तल्प यानी कनपटी गिरा था। यहां की शक्ति श्री सुन्दरी एवं भैरव सुन्दरानन्द हैं।  


विशालाक्षी शक्तिपीठ👉  उत्तर प्रदेश, वाराणसी के मीरघाट पर स्थित है शक्तिपीठ जहां माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहां की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं। 


गोदावरी तट शक्तिपीठ👉 आंध्रप्रदेश के कब्बूर में गोदावरी तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का वामगण्ड यानी बायां कपोल गिरा था। यहां की शक्ति विश्वेश्वरी या रुक्मणी तथा भैरव दण्डपाणि हैं। 


शुचीन्द्रम शक्तिपीठ👉 तमिलनाडु, कन्याकुमारी के त्रिासागर संगम स्थल पर स्थित है यह शुची शक्तिपीठ, जहां सती के उफध्र्वदन्त (मतान्तर से पृष्ठ भागद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति नारायणी तथा भैरव संहार या संकूर हैं।  


पंच सागर शक्तिपीठ👉 इस शक्तिपीठ का कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है लेकिन यहां माता का नीचे के दान्त गिरे थे। यहां की शक्ति वाराही तथा भैरव महारुद्र हैं।  


ज्वालामुखी शक्तिपीठ👉  हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां सती का जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा व भैरव उन्मत्त हैं।


भैरव पर्वत शक्तिपीठ👉 इस शक्तिपीठ को लेकर विद्वानों में मतदभेद है। कुछ  गुजरात के गिरिनार के निकट भैरव पर्वत को तो कुछ मध्य प्रदेश के उज्जैन के निकट क्षीप्रा नदी तट पर वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं, जहां माता का उफध्र्व ओष्ठ गिरा है। यहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण हैं।  


अट्टहास शक्तिपीठ👉 अट्टहास शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के लाबपुर में स्थित है। जहां माता का अध्रोष्ठ यानी नीचे का होंठ गिरा था। यहां की शक्ति पफुल्लरा तथा भैरव विश्वेश हैं।


जनस्थान शक्तिपीठ👉 महाराष्ट्र नासिक के पंचवटी में स्थित है जनस्थान शक्तिपीठ जहां माता का ठुड्डी गिरी थी। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव विकृताक्ष हैं।


कश्मीर शक्तिपीठ👉 जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में स्थित है यह शक्तिपीठ जहां माता का कण्ठ गिरा था। यहां की शक्ति महामाया तथा भैरव त्रिसंध्येश्वर हैं।


नन्दीपुर शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के सैन्थया में स्थित है यह पीठ, जहां देवी की देह का कण्ठहार गिरा था। यहां कि शक्ति निन्दनी और भैरव निन्दकेश्वर हैं।


श्री शैल शक्तिपीठ👉 आंध्रप्रदेश  के कुर्नूल के पास है श्री शैल का शक्तिपीठ, जहां माता का ग्रीवा गिरा था। यहां की शक्ति महालक्ष्मी तथा भैरव संवरानन्द अथव ईश्वरानन्द हैं। 


नलहरी शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के बोलपुर में है नलहरी शक्तिपीठ, जहां माता का उदरनली गिरी थी। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव योगीश हैं।. 


मिथिला शक्तिपीठ👉 इसका निश्चित स्थान अज्ञात है। स्थान को लेकर मन्तारतर है तीन स्थानों पर मिथिला शक्तिपीठ को माना जाता है, वह है नेपाल के जनकपुर, बिहार के समस्तीपुर और सहरसा, जहां माता का वाम स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति उमा या महादेवी तथा भैरव महोदर हैं। 


रत्नावली शक्तिपीठ👉 इसका निश्चित स्थान अज्ञात है, बंगाज पंजिका के अनुसार यह तमिलनाडु के चेन्नई में कहीं स्थित है रत्नावली शक्तिपीठ जहां माता का दक्षिण स्कंध् गिरा था। यहां की शक्ति कुमारी तथा भैरव शिव हैं। 


अम्बाजी शक्तिपीठ, प्रभास पीठ👉  गुजरात गूना गढ़ के गिरनार पर्वत के प्रथत शिखर पर देवी अिम्बका का भव्य विशाल मन्दिर है, जहां माता का उदर गिरा था। यहां की शक्ति चन्द्रभागा तथा भैरव वक्रतुण्ड है। ऐसी भी मान्यता है कि गिरिनार पर्वत के निकट ही सती का उध्र्वोष्ठ गिरा था, जहां की शक्ति अवन्ती तथा भैरव लंबकर्ण है। 


जालंधर शक्तिपीठ 👉 पंजाब के जालंधर में स्थित है माता का जालंधर शक्तिपीठ जहां माता का वामस्तन गिरा था। यहां की शक्ति त्रिपुरमालिनी तथा भैरव भीषण हैं। 


रामागरि शक्तिपीठ👉 इस शक्ति पीठ की स्थिति को लेकर भी विद्वानों में मतान्तर है। कुछ उत्तर प्रदेश के चित्राकूट तो कुछ मध्य प्रदेश के मैहर में मानते हैं, जहां माता का दाहिना स्तन गिरा था। यहा की शक्ति शिवानी तथा भैरव चण्ड हैं।


वैद्यनाथ का हार्द शक्तिपीठ👉 झारखण्ड के गिरिडीह, देवघर स्थित है वैद्यनाथ हार्द शक्तिपीठ, जहां माता का हृदय गिरा था। यहां की शक्ति जयदुर्गा तथा भैरव वैद्यनाथ है। एक मान्यतानुसार यहीं पर सती का दाह-संस्कार भी हुआ था।


वक्त्रोश्वर शक्तिपीठ👉 माता का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के सैिन्थया में स्थित है जहां माता का मन गिरा था। यहां की शक्ति महिषासुरमदिनी तथा भैरव वक्त्रानाथ हैं। 


कण्यकाश्रम कन्याकुमारी शक्तिपीठ👉 तमिलनाडु के कन्याकुमारी के तीन सागरों हिन्द महासागर, अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ीद्ध के संगम पर स्थित है कण्यकाश्रम शक्तिपीठ, जहां माता का पीठ मतान्तर से उध्र्वदन्त गिरा था। यहां की शक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमषि या स्थाणु हैं। 


बहुला शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के कटवा जंक्शन के निकट केतुग्राम में स्थित है बहुला शक्तिपीठ, जहां माता का वाम बाहु गिरा था। यहां की शक्ति बहुला तथा भैरव भीरुक हैं।


उज्जयिनी शक्तिपीठ👉 मध्य प्रदेश के उज्जैन के पावन क्षिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है उज्जयिनी शक्तिपीठ। जहां माता का कुहनी गिरा था। यहां की शक्ति मंगल चण्डिका तथा भैरव मांगल्य कपिलांबर हैं।


मणिवेदिका शक्तिपीठ👉 राजस्थान के पुष्कर में स्थित है मणिदेविका शक्तिपीठ, जिसे गायत्री मन्दिर के नाम से जाना जाता है यहीं माता की कलाइयां गिरी थीं। यहां की शक्ति गायत्री तथा भैरव शर्वानन्द हैं।


प्रयाग शक्तिपीठ👉 उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्थित है। यहां माता की हाथ की अंगुलियां गिरी थी। लेकिन, स्थानों को लेकर मतभेद इसे यहां अक्षयवट, मीरापुर और अलोपी स्थानों गिरा माना जाता है। तीनों शक्तिपीठ की शक्ति ललिता हैं।विरजाक्षेत्रा, 


उत्कल शक्तिपीठ👉 उड़ीसा के पुरी और याजपुर में माना जाता है जहां माता की नाभि गिरा था। यहां की शक्ति  विमला तथा भैरव जगन्नाथ पुरुषोत्तम हैं।


कांची शक्तिपीठ👉 तमिलनाडु के कांचीवरम् में स्थित है माता का कांची शक्तिपीठ, जहां माता का कंकाल गिरा था। यहां की शक्ति देवगर्भा तथा भैरव रुरु हैं।


कालमाध्व शक्तिपीठ👉 इस शक्तिपीठ के बारे कोई निश्चित स्थान ज्ञात नहीं है। परन्तु, यहां माता का वाम नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति काली तथा भैरव असितांग हैं।


शोण शक्तिपीठ👉 मध्य प्रदेश के अमरकंटक के नर्मदा मन्दिर शोण शक्तिपीठ है। यहां माता का दक्षिण नितम्ब गिरा था। एक दूसरी मान्यता यह है कि  बिहार के सासाराम का ताराचण्डी मन्दिर ही शोण तटस्था शक्तिपीठ है। यहां सती का दायां नेत्रा गिरा था ऐसा माना जाता है। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी तथा भैरव भद्रसेन हैं।


कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ👉 कामगिरिअसम गुवाहाटी के कामगिरि पर्वत पर स्थित है यह शक्तिपीठ, जहां माता का योनि गिरा था। यहां की शक्ति कामाख्या तथा भैरव उमानन्द हैं।


जयन्ती शक्तिपीठ👉 जयन्ती शक्तिपीठ मेघालय के जयन्तिया पहाडी पर स्थित है, जहां माता का वाम जंघा गिरा था। यहां की शक्ति जयन्ती तथा भैरव क्रमदीश्वर हैं।


मगध् शक्तिपीठ👉 बिहार की राजधनी पटना में स्थित पटनेश्वरी देवी को ही शक्तिपीठ माना जाता है जहां माता का दाहिना जंघा गिरा था। यहां की शक्ति सर्वानन्दकरी तथा भैरव व्योमकेश हैं।


त्रिस्तोता शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के शालवाड़ी गांव में तीस्ता नदी पर स्थित है त्रिस्तोता शक्तिपीठ, जहां माता का वामपाद गिरा था। यहां की शक्ति भ्रामरी तथा भैरव ईश्वर हैं।


त्रिपुरी सुन्दरी शक्तित्रिपुरी पीठ👉 त्रिपुरा के राध किशोर ग्राम में स्थित है त्रिपुरे सुन्दरी शक्तिपीठ, जहां माता का दक्षिण पाद गिरा था। यहां की शक्ति त्रिापुर सुन्दरी तथा भैरव त्रिपुरेश हैं।


विभाष शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के ताम्रलुक ग्रााम में स्थित है विभाष शक्तिपीठ, जहां माता का वाम टखना गिरा था। यहां की शक्ति कापालिनी, भीमरूपा तथा भैरव सर्वानन्द हैं।


देवीकूप पीठ कुरुक्षेत्र  (शक्तिपीठ)👉  हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन के निकट द्वैपायन सरोवर के पास स्थित है कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे श्रीदेवीकूप(भद्रकाली पीठ के नाम से मान्य है। माता का दहिने चरण (गुल्पफद्ध गिरे थे। यहां की शक्ति सावित्री तथा भैरव स्थाणु हैं।


युगाद्या शक्तिपीठ (क्षीरग्राम शक्तिपीठ)👉  पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले के क्षीरग्राम में स्थित है युगाद्या शक्तिपीठ, यहां सती के दाहिने चरण का अंगूठा गिरा था।


विराट का अम्बिका शक्तिपीठ👉  राजस्थान के गुलाबी नगरी जयपुर के वैराटग्राम में स्थित है विराट शक्तिपीठ, जहाँ सती के 'दायें पाँव की उँगलियाँ' गिरी थीं।। यहां की शक्ति अंबिका तथा भैरव अमृत हैं। 


काली शक्तिपीठ👉 पश्चिम बंगाल, कोलकाता के कालीघाट में कालीमन्दिर के नाम से प्रसिध यह शक्तिपीठ, जहां माता के दाएं पांव की अंगूठा छोड़ 4 अन्य अंगुलियां गिरी थीं। यहां की शक्ति कालिका तथा भैरव नकुलेश हैं। 


मानस शक्तिपीठ👉 तिब्बत के मानसरोवर तट पर स्थित है मानस शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना हथेली का निपात हुआ था। यहां की शक्ति की दाक्षायणी तथा भैरव अमर हैं।


लंका शक्तिपीठ👉 श्रीलंका में स्थित है लंका शक्तिपीठ, जहां माता का नूपुर गिरा था। यहां की शक्ति इन्द्राक्षी तथा भैरव राक्षसेश्वर हैं। लेकिन, उस स्थान ज्ञात नहीं है कि श्रीलंका के किस स्थान पर गिरे थे। 


गण्डकी शक्तिपीठ👉 नेपाल में गण्डकी नदी के उद्गम पर स्थित है गण्डकी शक्तिपीठ, जहां सती के दक्षिणगण्ड(कपोल) गिरा था। यहां शक्ति `गण्डकी´ तथा भैरव `चक्रपाणि´ हैं।


गुह्येश्वरी शक्तिपीठ 👉 नेपाल के काठमाण्डू में पशुपतिनाथ मन्दिर के पास ही स्थित है गुह्येश्वरी शक्तिपीठ है, जहां माता सती के दोनों जानु (घुटने) गिरे थे। यहां की शक्ति `महामाया´ और भैरव `कपाल´ हैं।


हिंगलाज शक्तिपीठ👉 पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रान्त में स्थित है माता हिंगलाज शक्तिपीठ, जहां माता का ब्रह्मरन्ध्र गिरा था।


सुगंध शक्तिपीठ👉 बांग्लादेश के खुलना में सुगंध नदी के तट पर स्थित है उग्रतारा देवी का शक्तिपीठ, जहां माता का नासिका गिरा था। यहां की देवी सुनन्दा है तथा भैरव त्रयम्बक हैं।


करतोयाघाट शक्तिपीठ👉 बंग्लादेश भवानीपुर के बेगड़ा में  करतोया नदी के तट पर स्थित है करतोयाघाट शक्तिपीठ, जहां माता का वाम तल्प गिरा था। यहां देवी अपर्णा रूप में तथा शिव वामन भैरव रूप में वास करते हैं।


चट्टल शक्तिपीठ 👉 बंग्लादेश के चटगांव  में स्थित है चट्टल का भवानी शक्तिपीठ, जहां माता का दाहिना बाहु यानी भुजा गिरा था। यहां की शक्ति भवानी  तथा भेरव चन्द्रशेखर हैं।


यशोरेश्वरी शक्तिपीठ👉 बांग्लादेश के जैसोर खुलना में स्थित है माता का प्रसि( यशोरेश्वरी शक्तिपीठ, जहां माता का बायीं हथेली गिरा था। यहां शक्ति यशोरेश्वरी तथा भैरव चन्द्र हैं।  

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