बुधवार, 31 जुलाई 2024

जब जीवित मनुष्य पंहुचा यमलोक.... एक शिक्षाप्रद कथा


जीवित मनुष्य जब पंहुचा यमलोक.... एक शिक्षाप्रद  कथा



एक हाथी था। वह मर गया तो धर्मराज के यहाँ पहुँचा। धर्मराज ने उससे पूछा - ‘अरे! तुझे इतना बड़ा शरीर दिया, फिर भी तू मनुष्य के वश में हो गया। तेरे एक पैर जितना था मनुष्य, उसके वश में तू हो गया।’ वह हाथी बोला - ‘महाराज! यह मनुष्य ऐसा ही है।


बड़े-बड़े इसके वश में हो जाते हैं।’ धर्मराज ने कहा - ‘हमारे यहाँ तो अनगिनत आदमी आते हैं।’ हाथी ने जवाब दिया - ‘आपके यहाँ मुर्दे आते हैं, जो जीवित आदमी आये तो पता लगे। धर्मराज ने दूतो से कहा - ‘अरे! एक जीवित आदमी ले आओ।’ दूतों ने कहा - ‘ठीक है।’


दूत घूमते ही रहते थे। गर्मी के दिनों में उन्होंने देखा कि छत के ऊपर एक आदमी सोया हुआ है। दूतों ने उसकी खाट उठा ली और ले चले। उस आदमीं की नींद खुली तो देखा कि क्या बात है। वह कायस्थ था। ग्रन्थ लिखा करता था। ग्रंथो में धर्मराज के दूतों के लक्षण आते हैं। उसने जेब से कागज और कलम निकाली। कागज पर कुछ लिखा और जेब में रख लिया। उसने सोचा कि हम कुछ चीं-चपड़ करेंगे तो गिर जायेंगें, हड्डियाँ बिखर जायँगी। वह बेचारा खाट पर पड़ा रहा कि जो होगा, देखा जायगा।


सुबह होते ही दूत पहुँच गये। धर्मराज की सभा लगी हुई थी। दूतों ने खाट नीचे रखी। उस कायस्थ ने तुरन्त जेब से कागज निकाला और दूतों को दे दिया कि धर्मराज को दे दो। उस पर विष्णु भगवान् का नाम लिखा था। दूतों ने यह कागज धर्मराज को दे दिया। धर्मराज ने पत्र पढ़ा। उसमें लिखा था - ‘धर्मराज जी से नारायण की यथायोग्य। यह हमारा मुनीम आपके पास आता है। इसके द्वारा ही सब काम कराना। दस्तखत - नारायण, वैकुण्ठपुरी।


पत्र पढ़कर धर्मराज ने अपनी गद्दी छोड़ दी और बोले - ‘आइये महाराज! गद्दी पर बैठो।’ धर्मराज ने कायस्थ को गद्दी पर बैठा दिया कि भगवान् का हुक्म है।


अब दूत दूसरे आदमी को लाये। कायस्थ बोला - ‘यह कौन है?’ दूत-महाराज! यह डाका डालने वाला है। बहुतों को लूट लिया, बहुतों को मार दिया। इसको क्या दण्ड दिया जाय?’ कायस्थ - ‘इसको वैकुण्ठ में भेजो।’


‘यह कौन है?’


‘महाराज! यह दूध बेचने वाली है। इसने पानी मिलाकर दूध बेचा जिससे बच्चों के पेट बढ़ गये, वह बीमार हो गये। इसका क्या करें?’


‘इसको भी वैकुण्ठ में भेजो।’ ‘यह कौन है?


‘इसने झूठी गवाही देकर बेचारे लोगों को फँसा दिया। इसका क्या किया जाये?’


‘अरे! पूछते क्या हो? वैकुण्ठ में भेजो।’


अब व्यभिचारी आये, पापी आये, हिंसा करने वाला आये, कोई भी आये, उसके लिए एक ही आज्ञा कि ‘वैकुण्ठ में भेजो।’ अब धर्मराज क्या करें? गद्दी पर बैठा मालिक जो कह रहा है, वही ठीक! वहाँ वैकुण्ठ में जाने वालों की कतार लग गयी। भगवान् ने देखा कि अरे! इतने लोग यहाँ कैसे आ रहे हैं? कहीं मृत्युलोक में कोई महात्मा प्रकट हो गये? बात क्या है, जो सभी को बैकुण्ठ में भेज रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? देखा कि यह तो धर्मराज के यहाँ से आ रहे हैं।


भगवान् धर्मराज के यहाँ पहुँचे। भगवान् को देखकर सब खड़े हो गये। धर्मराज भी खड़े हो गये। वह कायस्थ भी खड़ा हो गया। भगवान् ने पूछा - ‘धर्मराज! आपने सबको वैकुण्ठ भेज दिया, बात क्या है? क्या इतने लोग भक्त हो गये?’


धर्मराज - ‘प्रभो! मेरा काम नहीं है। आपने जो मुनीम भेजा है, उसका काम है।’


भगवान् ने कायस्थ से पूछा - ‘तुम्हे किसने भेजा?’


कायस्थ - ‘आपने महाराज!’


‘हमने कैसे भेजा?’


‘क्या मेरे बाप के हाथ की बात है, जो यहाँ आता? आपने ही तो भेजा है। आपकी मर्जी के बिना कोई काम होता है क्या? क्या यह मेरे बल से हुआ है?’


‘ठीक है! तूने यह क्या किया?’


‘मैंने क्या किया महाराज?’


‘तूने सबको वैकुण्ठ में भेज दिया।’


‘यदि वैकुण्ठ में भेजना खराब काम है तो जितने संत-महात्मा हैं, उनको दण्ड दिया जाये। यदि यह खराब काम नहीं है तो उलाहना किस बात की? इस पर भी आपको यह पसंद न हो तो सब को वापस भेज दो। परन्तु भगवद्गीता में लिखा यह श्लोक आपको निकालना पड़ेगा - ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम’ ‘मेरे धाम में जाकर पीछे लौटकर कोई नहीं आता।




‘बात तो ठीक है  कितना ही बड़ा पापी हो, यदि वह वैकुण्ठ में चला जाय तो पीछे लौटकर थोड़े ही आयेगा। उसके पाप तो सब नष्ट हो गये। पर यह काम तूने क्यों किया?’


‘मैंने क्या किया महाराज? मेरे हाथ में जब बात आयेगी तो मै यही करूँगा, सबको वैकुण्ठ भेजूँगा। मैं किसी को दण्ड क्यों दूँ? मै जानता हूँ कि थोड़ी देर देने के लिए गद्दी मिली है, तो फिर अच्छा काम क्यों न करूँ? लोगों का उद्धार करना खराब काम है क्या?’


भगवान् ने धर्मराज से पूछा - ‘धर्मराज! तुमने इसको गद्दी कैसे दे दी?


धर्मराज बोले - ‘महाराज! देखिये, आपका कागज आया है। नीचे साफ-साफ आपके दस्तखत हैं।’


भगवान् ने कायस्थ से पूछा - ‘क्यों रे! यह कागज मैंने कब दिया तेरे को?’


कायस्थ बोला - ‘आपने गीता में कहा है - ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ ‘मै सबके हृदय में रहता हूँ’, अतः हृदय से आज्ञा आयी कि कागज लिख दे तो मैंने लिख दिया। हुक्म तो आपका ही हुआ। यदि आप इसको मेरा मानते हैं तो गीता में से उपर्युक्त बात निकाल दीजिये।’


भगवान् ने कहा - ‘ठीक।’ धर्मराज से पूछा - ‘अरे धर्मराज! बात क्या है? यह कैसे आया?’


धर्मराज बोले - ‘महाराज! कैसे क्या आया, आपका पुत्र ले आया।’ दूतों से पूछा - ‘यह बात कैसे हुई?’


दूत बोले - ‘महाराज! आपने ही तो एक दिन कहा था कि एक जीवित आदमी लाना।’


धर्मराज - ‘तो वह यही है क्या? अरे! परिचय तो कराते।’


दूत - ‘हम क्या परिचय कराते महाराज। आपने तो कागज लिया और इसको गद्दी पर बैठा दिया। हमने सोचा कि परिचय होगा, फिर हमारी हिम्मत कैसे होती बोलने की?’


हाथी वहाँ खड़ा सब देख रहा था, बोला - ‘जै रामजी की! आपने कहा था कि तू कैसे आदमी के वश में हो गया? मैं क्या वश में हो गया, वश में तो धर्मराज हो गये और भगवान् हो गये। यह काले माथेवाला आदमी बड़ा विचित्र है महाराज! यह चाहे तो बड़ी उथल-पुथल कर दे। यह तो खुद ही संसार में फँस गया।’


भगवान् ने कहा - ‘अच्छा! जो हुआ सो हुआ, अब तो नीचे चला जा।’


कायस्थ बोला - ‘गीता में आपने कहा है - ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’ ‘मेरे को प्राप्त होकर पुनः जन्म नहीं लेता’ तो बतायें, मैं आपको प्राप्त हुआ कि नहीं?


भगवान् - ‘अछ भाई! तू चल मेरे साथ।’


कायस्थ - ‘महाराज! केवल मैं ही चलूँ? हाथी पीछे रहेगा बेचारा? इसकी कृपा से ही तो मैं यहाँ आया। इसको भी तो लो साथ में।’


हाथी बोला - ‘मेरे बहुत से भाई यहीं नरकों में बैठे हैं, सबको साथ ले लो।’


भगवान् बोले - ‘चलो भाई! सबको ले लो!’ भगवान् के आने से हाथी का भी कल्याण हो गया, कायस्थ का भी कल्याण हो गया और अन्य जीवों का भी कल्याण हो गया।


यह कहानी तो कल्पित है, पर इसका सिद्धांत पक्का है कि अपने हाथ में कोई अधिकार आये तो सबका भला करो। जितना कर सको, उतना भला करो। अपनी तरफ से किसी का बुरा मत करो, किसी को दुःख मत दो। गीता का सिद्धांत है - ‘सर्वभूतहिते रताः’ ‘प्राणिमात्र के हित में प्रीति हो।’ अधिकार हो, पद हो, थोड़े ही दिन रहने वाला है। सदा रहने वाला नहीं है। इसलिये सबके साथ अच्छे से अच्छा बर्ताव करो।


बहुत ही रोचक कहानी जीवित मनुष्य जब पंहुचा यमलोक  एक शिक्षाप्रद  कथा

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सोमवार, 29 जुलाई 2024

एक बहुत प्यारी सी कहानी... तो ऐसे टूटा पत्नि का भ्रम...

 

सीख देने वाली प्रेरणादायक कहानी


पत्नी और पति में झगड़ा हो गया। पति और बच्चे खाना खाकर सो गए तो पत्नी घर से बाहर निकाल गई, यह सोचकर कि अब वह अपने पति के साथ नहीं रह सकती। मोहल्ले की गलियों में इधर-उधर भटक रही थी, कि तभी उसे एक घर से आवाज सुनाई दी, जहाँ एक स्त्री रोटी के लिए ईश्वर से अपने बच्चे के लिए प्रार्थनाएं कर रही थी।


वह थोड़ा और आगे बढ़ी तो एक और घर से आवाज आई, जहाँ एक स्त्री ईश्वर से अपने बेटे को हर परेशानी से बचाने की दुआ कर रही थी। एक और घर से आवाज आ रही थी जहाँ एक पति अपनी पत्नी से कह रहा था कि वह मकान मालिक से कुछ और दिन की मोहलत मांग लें और उससे हाथ जोड़कर अनुरोध करें कि रोज-रोज आकर उन्हें तंग न करें।


थोड़ा और आगे बढ़ी तो एक बुज़ुर्ग दादी अपने पोते से कह रही थी, "बेटा, कितने दिन हो गए तुम मेरे लिए दवाई नहीं लाए।" पोता रोटी खाते हुए कह रहा था, "दादी माँ, अब मेडिकल वाला भी दवा नहीं देता और मेरे पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि मैं आपके लिए दवाई ले आऊं।"


थोड़ा और आगे बढ़ी तो एक घर से स्त्री की आवाज आ रही थी जो अपने भूखे बच्चों को यह कह रही थी कि आज तुम्हारे बाबा तुम्हें खाने के लिए कुछ ना कुछ जरूर लाएंगे, तब तक तुम सो जाओ। जब तुम्हारे बाबा आएंगे तो मैं तुम्हें जगा दूंगी। वह औरत कुछ देर वहीं खड़ी रही और सोचते हुए अपने घर की ओर वापस लौट गई कि जो लोग हमारे सामने खुश और सुखी दिखाई देते हैं, उनके पास भी कोई ना कोई कहानी होती है।


फिर भी, यह सब अपने दुख और दर्द को छुपाकर जीते हैं। वह औरत अपने घर वापस लौट आई और ईश्वर का धन्यवाद करने लगी कि उसके पास अपना मकान, संतान, और एक अच्छा पति है। हाँ, कभी-कभी पति से नोक-झोंक हो जाती है, लेकिन फिर भी वह उसका बहुत ख्याल रखता है। वह औरत सोच रही थी कि उसकी जिंदगी में कितने दुख हैं, मगर जब उसने लोगों की बातें सुनीं तो उसे यह एहसास हुआ कि लोगों के दुख तो उससे भी ज्यादा हैं।


सीख - जरूरी नहीं कि आपके सामने खुश और सुखी नजर आने वाले सभी लोगों का जीवन परफेक्ट हो। उनके जीवन में भी कोई न कोई परेशानी या तकलीफ होती है, लेकिन सभी अपनी परेशानी और तकलीफ को छुपाकर मुस्कुराते हैं। दूसरों की हंसी के पीछे भी दुख और मातम के आंसू छिपे होते हैं। कठिनाइयों और परीक्षणों के बावजूद जीना जीवन की वास्तविकता है, यही सच्ची जिंदगी है।



पति-पत्नि की सीख देने वाली प्रेरणादायक कहानी

  ऐसे टूटा पत्नि का भ्रम  एक बहुत प्यारी सी कहानी 

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शनिवार, 27 जुलाई 2024

बहुत ही रोचकप्रसंग राजा जन्मेजय और वेदव्यास जी का..... होनी तो होके रहे

होनी बहुत बलवान है



अभिमन्यु के पुत्र ,राजा परीक्षित थे | 

राजा परीक्षित के बाद उन के लड़के जनमेजय राजा बने |


एक दिन जनमेजय वेदव्यास जी के पास बैठे थे| बातों ही बातों में जन्मेजय ने कुछ नाराजगी से वेदव्यास जी से कहा.. कि, "जहां आप समर्थ थे, भगवान श्रीकृष्ण थे, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य कुलगुरू कृपाचार्य जी, धर्मराज युधिष्ठिर, जैसे महान लोग उपस्थित थे.. फिर भी आप महाभारत के युद्ध को होने से नहीं रोक पाए और देखते-देखते अपार जन-धन की हानि हो गई| यदि मैं उस समय रहा होता तो, अपने पुरुषार्थ से इस विनाश को होने से बचा लेता" |


अहंकार से भरे जन्मेजय के शब्द सुन कर भी, व्यास जी शांत रहे |


 उन्होंने कहा, "पुत्र अपने पूर्वजों की क्षमता पर शंका न करो | यह विधि द्वारा निश्चित था, जो बदला नहीं जा सकता था, यदि ऐसा हो सकता तो श्रीकृष्ण में ही इतनी सामर्थ्य थी कि वे युद्ध को रोक सकते थे|


जन्मेजय अपनी बात पर अड़ा रहा और बोला, "मैं इस सिद्धांत को नहीं मानता| आप तो भविष्यवक्ता है, मेरे जीवन की होने वाली किसी होनी को बताइए.. मैं उसे रोककर प्रमाणित कर दूंगा कि विधि का विधान निश्चित नहीं होता" |


व्यास जी ने कहा, "पुत्र यदि तू यही चाहता है तो सुन.." |


कुछ वर्ष बाद तू काले घोड़े पर बैठकर शिकार करने जाएगा दक्षिण दिशा में समुद्र तट पर पहुंचेगा वहां  तुम्हें एक सुंदर स्त्री मिलेगी.. जिसे तू महलों में लाएगा, और उससे विवाह करेगा | मैं तुम को मना करूँगा कि ये सब मत करना लेकिन फिर भी तुम यह सब करोगे | इसके बाद उस लड़की के कहने पर तू एक यज्ञ करेगा| मैं तुम को आज ही चेता कर रहा हूं कि उस यज्ञ को तुम वृद्ध ब्राह्मणो से कराना.. लेकिन, वह यज्ञ तुम युवा ब्राह्मणो से कराओगे और..


जनमेजय ने हंसते हुए व्यासजी की बात काटते हुए कहा कि, मै आज के बाद काले घोड़े पर ही नही बैठूंगा? तो ये सब घटनाऐ घटित ही नही होगी|


व्यासजी ने कहा कि, "ये सब होगा और अभी आगे की सुन,"उस यज्ञ मे एक ऐसी घटना घटित होगी...कि तुम ,उस रानी के कहने पर उन युवा ब्राह्मणों को प्राण दंड दोगे, जिससे तुझे ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा और तुझे कुष्ठ रोग होगा और वही तेरी मृत्यु का कारण बनेगा| इस घटनाक्रम को रोक सको तो रोक लो| 


वेदव्यास जी की बात सुनकर जन्मेजय ने एहतियात वश शिकार पर जाना ही छोड़ दिया| परंतु जब होनी का समय आया तो उसे शिकार पर जाने की बलवती इच्छा हुई| उस ने सोचा कि काला घोड़ा नहीं लूंगा.. पर उस दिन उसे अस्तबल में काला घोड़ा ही मिला| तब उस ने सोचा कि.. मैं दक्षिण दिशा में नहीं जाऊंगा परंतु घोड़ा अनियंत्रित होकर दक्षिण दिशा की ओर गया और समुद्र तट पर पहुंचा वहां पर उसने एक सुंदर स्त्री को देखा, और उस पर मोहित हुआ| जन्मेजय ने सोचा कि इसे लेकर महल मे तो जाउंगा लेकिन शादी नहीं करूंगा | 


परंतु, उसे महलों में लाने के बाद, उसके प्यार में पड़कर उस से विवाह भी कर लिया| फिर रानी के कहने से जन्मेजय द्वारा यज्ञ भी किया गया| उस यज्ञ में युवा ब्राह्मण ही, रक्खे गए | 

किसी बात पर युवा ब्राह्मण...रानी पर हंसने लगे| रानी क्रोधित हो गई ,और रानी के कहने पर राजा जन्मेजय ने उन्हें प्राण दंड की सजा दे दी.. फलस्वरुप  उसे कोढ हो गया | 


अब जन्मेजय घबरा गया और तुरंत व्यास जी के पास पहुंचा...और उनसे जीवन बचाने के लिए प्रार्थना करने लगा | 


वेदव्यास जी ने कहा कि, "एक अंतिम अवसर तेरे प्राण बचाने का और देता हूं... मैं तुझे महाभारत में हुई घटना का श्रवण कराऊंगा जिसे तुझे श्रद्धा एवं विश्वास के साथ सुनना है... इससे तेरा कोढ् मिटता जाएगा | 


परंतु यदि किसी भी प्रसंग पर तूने अविश्वास किया.., तो मैं महाभारत का प्रसंग रोक दूंगा..और फिर मैं भी तेरा जीवन नहीं बचा पाऊंगा...याद रखना अब तेरे पास यह अंतिम अवसर है| 


अब तक जन्मेजय को व्यासजी की बातों पर पूरा विश्वास हो चुका था, इसलिए वह पूरी श्रद्धा और विश्वास से कथा श्रवण करने लगा | 


व्यासजी ने कथा आरम्भ करी और जब भीम के बल के वे प्रसंग सुनाऐ ....जिसमें भीम ने हाथियों को सूंडों से पकड़कर उन्हें अंतरिक्ष में उछाला...वे हाथी आज भी अंतरिक्ष में घूम रहे हैं....तब जन्मेजय अपने आप को रोक नहीं पाया और बोल उठा कि ये कैसे संभव  हो सकता है| मैं नहीं मानता| 


व्यास जी ने महाभारत का प्रसंग रोक दिया....और कहा..कि,"पुत्र मैंने तुझे कितना समझाया...कि अविश्वास मत करना...परंतु तुम अपने स्वभाव को नियंत्रित नहीं कर पाए| क्योंकि यह होनी द्वारा निश्चित था"| 


फिर व्यास जी ने अपनी मंत्र शक्ति से आवाहन किया..और वे हाथी पृथ्वी की आकर्षण शक्ति में आकर नीचे गिरने लगे...तब व्यास जी ने कहा, यह मेरी बात का प्रमाण है" | 


जितनी मात्रा में जन्मेजय ने श्रद्धा विश्वास से कथा श्रवण की,

उतनी मात्रा में  वह उस कुष्ठ रोग से मुक्त हुआ परंतु एक बिंदु रह गया और वही उसकी मृत्यु का कारण बना| 


सार :-

 पहले बनती है तकदीरे फिर बनते हैं शरीर| कर्म हमारे हाथ मे है...लेकिन उस का फल हमारे हाथों में नहीं  है | 


गीता के 11 वें अध्याय के 33 वे श्लोक मैं श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "उठ खड़ा हो और अपने कार्य द्वारा यश प्राप्त कर| यह सब तो मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं तू तो केवल निमित्त बना है |


होनी को टाला नहीं जा सकता लेकिन नेक कर्म व ईश्वर नाम जाप से होनी के प्रभाव को कम किया जा सकता है अर्थात रोग आएंगे परंतु पीड़ा नहीं होगी | 


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बहुत ही रोचकप्रसंग राजा जन्मेजय और वेदव्यास जी का..... होनी तो होके रहे 


मौन के महत्तव को जानकर हैरान हो जायेगे आप?...

 

मौन की  महत्त्वता




एक मछलीमार कांटा डाले तालाब के किनारे बैठा था। काफी समय बाद भी कोई मछली कांटे में नहीं फँसी, ना ही कोई हलचल हुई तो वह सोचने लगा... कहीं ऐसा तो नहीं कि मैने कांटा गलत जगह डाला है, यहाँ कोई मछली ही न हो !

    उसने तालाब में झाँका तो देखा कि उसके कांटे के आसपास तो बहुत-सी मछलियाँ थीं। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी मछलियाँ होने के बाद भी कोई मछली फँसी क्यों नहीं !  एक राहगीर ने जब यह नजारा देखा तो उससे कहा-- "लगता है भैया, यहाँ पर मछली मारने बहुत दिनों बाद आए हो! अब इस तालाब की मछलियाँ कांटे में नहीं फँसती।"

    मछलीमार ने हैरत से पूछा-- "क्यों, ऐसा क्या है यहाँ ?

    राहगीर बोला-- "पिछले दिनों तालाब के किनारे एक बहुत बड़े संत ठहरे थे। उन्होने यहाँ मौन की महत्ता पर प्रवचन दिया था। उनकी वाणी में इतना तेज था कि जब वे प्रवचन देते तो सारी मछलियाँ भी बड़े ध्यान से सुनतीं। यह उनके प्रवचनों का ही असर है कि उसके बाद जब भी कोई इन्हें फँसाने के लिए कांटा डालकर बैठता है तो ये मौन धारण कर लेती हैं। जब मछली मुँह खोलेगी ही नहीं तो कांटे में फँसेगी कैसे ? इसलिए बेहतर यहीं होगा कि आप कहीं और जाकर कांटा डालो।"   

    परमात्मा ने हर इंसान को दो आँख, दो कान, दो नासिका, हर इन्द्रिय दो-2 ही प्रदान किया है। पर जिह्वा एक ही दी.. क्या कारण रहा होगा ? क्योंकि यह एक ही अनेकों भयंकर परिस्थितियाँ पैदा करने के लिये पर्याप्त है।  संत ने कितनी सही बात कही कि जब मुँह खोलोगे ही नहीं तो फँसोगे कैसे ?

    अगर इन्द्रिय पर संयम करना चाहते हैं तो.. इस जिह्वा पर नियंत्रण कर लेवें बाकी सब इन्द्रियां स्वयं नियंत्रित रहेंगी। यह बात हमें भी अपने जीवन में उतार लेनी चाहिए..!!                            

 मौन के महत्तव को जानकर हैरान हो जायेगे आप?...         

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बुधवार, 24 जुलाई 2024

सुहागिनों के लिए क्यों शुभ है हरियाली तीज ?..


सुहागिनों के लिए क्यों शुभ है हरियाली तीज ?..


हरियाली तीज

सावन का महीना प्रेम और उत्साह का महीना माना जाता है। इस महीने में नई-नवेली दुल्हन अपने मायके जाकर झूला झूलती हैं और सखियों से अपने पिया और उनके प्रेम की बातें करती है। प्रेम के धागे को मजबूत करने के लिए इस महीने में कई त्योहार मनाये जाते हैं। इन्हीं में से एक त्योहार है- 'हरियाली तीज'। यह त्योहार हर साल श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस त्योहार के विषय में मान्यता है कि माता पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या की थी।


इससे प्रसन्न होकर शिव ने 'हरियाली तीज' के दिन ही पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। इस त्योहार के विषय में यह मान्यता भी है कि इससे सुहाग की उम्र लंबी होती है।

कुंवारी कन्याओं को इस व्रत से मनचाहा जीवन साथी मिलता है। हरियाली तीज में हरी चूड़ियां, हरा वस्त्र और मेंहदी का विशेष महत्व है। मेंहदी सुहाग का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। इसलिए महिलाएं सुहाग पर्व में मेंहदी जरूर लगाती हैं। इसकी शीतल तासीर प्रेम और उमंग को संतुलन प्रदान करने का भी काम करती है। माना जाता है कि मेंहदी बुरी भावना को नियंत्रित करती है। हरियाली तीज का नियम है कि क्रोध को मन में नहीं आने दें। मेंहदी का औषधीय गुण इसमें महिलाओं की मदद करता है। सावन में पड़ने वाली फुहारों से प्रकृति में हरियाली छा जाती है। सुहागन स्त्रियां प्रकृति की इसी हरियाली को अपने ऊपर समेट लेती हैं। इस मौके पर नई-नवेली दुल्हन को सास उपहार भेजकर आशीर्वाद देती है। कुल मिलाकर इस त्योहार का आशय यह है कि सावन की फुहारों की तरह सुहागनें प्रेम की फुहारों से अपने परिवार को खुशहाली प्रदान करेंगी और वंश को आगे बढ़ाएँगी।


वर्षा का मौसम

सावन के महीने में सबसे अधिक बारिश होती है, जो शिव के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करती है। भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताई है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांये चन्द्रमा और अग्नि मध्य नेत्र है। जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने की शुरुआत होती है। सूर्य गर्म है, जो ऊष्मा देता है, जबकि चंद्रमा ठंडा है, जो शीतलता प्रदान करता है। इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिस होती है, जिससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोलेनाथ को ठंडक व सुकून मिलता है। इसलिए शिव का सावन से इतना गहरा लगाव है।


सावन और साधना

सावन और साधना के बीच चंचल और अति चलायमान मन की एकाग्रता एक अहम कड़ी है, जिसके बिना परम तत्व की प्राप्ति असंभव है। साधक की साधना जब शुरू होती है, तब मन एक विकराल बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। उसे नियंत्रित करना सहज नहीं होता। लिहाजा मन को ही साधने में साधक को लंबा और धैर्य का सफर तय करना होता है। इसलिए कहा गया है कि मन ही मोक्ष और बंधन का कारण है। अर्थात मन से ही मुक्ति है और मन ही बंधन का कारण है। भगवान शंकर ने मस्तक में ही चंद्रमा को दृढ़ कर रखा है, इसीलिए साधक की साधना बिना किसी बाधा के पूर्ण होती है।


सुहागिनों के लिए क्यों शुभ है हरियाली तीज ?..  

हरियाली तीज के बारे मे जानिए कुछ खास और रोचक तथ्य 



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क्यों प्रिय है महादेव को श्रवण मास ?.. श्रावण मास का आध्यात्मिक महत्त्व



क्यों प्रिय है महादेव को श्रवण मास


 श्रावण मास का आध्यात्मिक महत्त्व

श्रावण अथवा सावन हिंदु पंचांग के अनुसार वर्ष का पाँचवा महीना ईस्वी कलेंडर के जुलाई या अगस्त माह में पड़ता है। इस वर्ष श्रावण मास 22 जुलाई से 19 अगस्त तक रहेगा। इसे वर्षा ऋतु का महीना या 'पावस ऋतु' भी कहा जाता है, क्योंकि इस समय बहुत वर्षा होती है। इस माह में अनेक महत्त्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं, जिसमें 'हरियाली तीज', 'रक्षाबन्धन', 'नागपंचमी' आदि प्रमुख हैं। 'श्रावण पूर्णिमा' को दक्षिण भारत में 'नारियली पूर्णिमा' व 'अवनी अवित्तम', मध्य भारत में 'कजरी पूनम', उत्तर भारत में 'रक्षाबंधन' और गुजरात में 'पवित्रोपना' के रूप में मनाया जाता है। त्योहारों की विविधता ही तो भारत की विशिष्टता की पहचान है। 'श्रावण' यानी सावन माह में भगवान शिव की अराधना का विशेष महत्त्व है। इस माह में पड़ने वाले सोमवार "सावन के सोमवार" कहे जाते हैं, जिनमें स्त्रियाँ तथा विशेषतौर से कुंवारी युवतियाँ भगवान शिव के निमित्त व्रत आदि रखती हैं।


महादेव को प्रिय सावन

सावन माह के बारे में एक पौराणिक कथा है कि- "जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।


इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा के अनुसार, मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में ही घोर तप कर शिव की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए थे।


भगवान शिव को सावन का महीना प्रिय होने का अन्य कारण यह भी है कि भगवान शिव सावन के महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे और वहां उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।

पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि इसी सावन मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की| लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम 'नीलकंठ महादेव' पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास में भोले को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। 'शिवपुराण' में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है।


शास्त्रों में वर्णित है कि सावन महीने में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। इसलिए ये समय भक्तों, साधु-संतों सभी के लिए अमूल्य होता है। यह चार महीनों में होने वाला एक वैदिक यज्ञ है, जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है, जिसे 'चौमासा' भी कहा जाता है; तत्पश्चात सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।


शिव की पूजा

सावन मास में भगवान शंकर की पूजा उनके परिवार के सदस्यों संग करनी चाहिए। इस माह में भगवान शिव के 'रुद्राभिषेक' का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस मास में प्रत्येक दिन 'रुद्राभिषेक' किया जा सकता है, जबकि अन्य माह में शिववास का मुहूर्त देखना पड़ता है। भगवान शिव के रुद्राभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी, गंगाजल तथा गन्ने के रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक कराने के बाद बेलपत्र, शमीपत्र, कुशा तथा दूब आदि से शिवजी को प्रसन्न करते हैं। अंत में भांग, धतूरा तथा श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रूप में चढा़या जाता है।


शिवलिंग पर बेलपत्र तथा शमीपत्र चढा़ने का वर्णन पुराणों में भी किया गया है। बेलपत्र भोलेनाथ को प्रसन्न करने के शिवलिंग पर चढा़या जाता है। कहा जाता है कि 'आक' का एक फूल शिवलिंग पर चढ़ाने से सोने के दान के बराबर फल मिलता है। हज़ार आक के फूलों की अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों को चढ़ाने की अपेक्षा एक बिल्व पत्र से दान का पुण्य मिल जाता है। हज़ार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी होते हैं। हज़ार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हज़ार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हज़ार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हज़ार शमी के पत्तों के बराकर एक नीलकमल, हज़ार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हज़ार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।


बेलपत्र

भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सरल तरीका उन्हें 'बेलपत्र' अर्पित करना है। बेलपत्र के पीछे भी एक पौराणिक कथा का महत्त्व है। इस कथा के अनुसार- "भील नाम का एक डाकू था। यह डाकू अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटता था। एक बार सावन माह में यह डाकू राहगीरों को लूटने के उद्देश्य से जंगल में गया और एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गया। एक दिन-रात पूरा बीत जाने पर भी उसे कोई शिकार नहीं मिला। जिस पेड़ पर वह डाकू छिपा था, वह बेल का पेड़ था। रात-दिन पूरा बीतने पर वह परेशान होकर बेल के पत्ते तोड़कर नीचे फेंकने लगा। उसी पेड़ के नीचे एक शिवलिंग स्थापित था। जो पत्ते वह डाकू तोडकर नीचे फेंख रहा था, वह अनजाने में शिवलिंग पर ही गिर रहे थे। लगातार बेल के पत्ते शिवलिंग पर गिरने से भगवान शिव प्रसन्न हुए और अचानक डाकू के सामने प्रकट हो गए और डाकू को वरदान माँगने को कहा। उस दिन से बिल्व-पत्र का महत्ता और बढ़ गया।


सावन सोमवार का महत्त्व

श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिव के निमित्त व्रत किए जाते हैं। इस मास में शिव जी की पूजा का विशेष विधान हैं। कुछ भक्त तो पूरे मास ही भगवान शिव की पूजा-आराधना और व्रत करते हैं। अधिकांश व्यक्ति केवल श्रावण मास में पड़ने वाले सोमवार का ही व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिव के व्रतों, पूजा और शिव जी की आरती का विशेष महत्त्व है। शिव के ये व्रत शुभदायी और फलदायी होते हैं। इन व्रतों को करने वाले सभी भक्तों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। यह व्रत भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए किये जाते हैं। व्रत में भगवान शिव का पूजन करके एक समय ही भोजन किया जाता है। व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती का ध्यान कर 'शिव पंचाक्षर मन्त्र' का जप करते हुए पूजन करना चाहिए।


सावन के महीने में सोमवार महत्वपूर्ण होता है। सोमवार का अंक 2 होता है, जो चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व करता है। चन्द्रमा मन का संकेतक है और वह भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान है। 'चंद्रमा मनसो जात:' यानी 'चंद्रमा मन का मालिक है' और उसके नियंत्रण और नियमण में उसका अहम योगदान है। यानी भगवान शंकर मस्तक पर चंद्रमा को नियंत्रित कर उक्त साधक या भक्त के मन को एकाग्रचित कर उसे अविद्या रूपी माया के मोहपाश से मुक्त कर देते हैं। भगवान शंकर की कृपा से भक्त त्रिगुणातीत भाव को प्राप्त करता है और यही उसके जन्म-मरण से मुक्ति का मुख्य आधार सिद्ध होता है।


काँवर

ऐसी मान्यता है कि भारत की पवित्र नदियों के जल से अभिषेक किए जाने से शिव प्रसन्न होकर भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं। 'काँवर' संस्कृत भाषा के शब्द 'कांवांरथी' से बना है। यह एक प्रकार की बहंगी है, जो बाँस की फट्टी से बनाई जाती है। 'काँवर' तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप की खुशबू, मुख में 'बोल बम' का नारा, मन में 'बाबा एक सहारा।' माना जाता है कि पहला 'काँवरिया' रावण था। श्रीराम ने भी भगवान शिव को कांवर चढ़ाई थी।


हरियाली तीज

सावन का महीना प्रेम और उत्साह का महीना माना जाता है। इस महीने में नई-नवेली दुल्हन अपने मायके जाकर झूला झूलती हैं और सखियों से अपने पिया और उनके प्रेम की बातें करती है। प्रेम के धागे को मजबूत करने के लिए इस महीने में कई त्योहार मनाये जाते हैं। इन्हीं में से एक त्योहार है- 'हरियाली तीज'। यह त्योहार हर साल श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस त्योहार के विषय में मान्यता है कि माता पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या की थी।


इससे प्रसन्न होकर शिव ने 'हरियाली तीज' के दिन ही पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। इस त्योहार के विषय में यह मान्यता भी है कि इससे सुहाग की उम्र लंबी होती है।

कुंवारी कन्याओं को इस व्रत से मनचाहा जीवन साथी मिलता है। हरियाली तीज में हरी चूड़ियां, हरा वस्त्र और मेंहदी का विशेष महत्व है। मेंहदी सुहाग का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। इसलिए महिलाएं सुहाग पर्व में मेंहदी जरूर लगाती हैं। इसकी शीतल तासीर प्रेम और उमंग को संतुलन प्रदान करने का भी काम करती है। माना जाता है कि मेंहदी बुरी भावना को नियंत्रित करती है। हरियाली तीज का नियम है कि क्रोध को मन में नहीं आने दें। मेंहदी का औषधीय गुण इसमें महिलाओं की मदद करता है। सावन में पड़ने वाली फुहारों से प्रकृति में हरियाली छा जाती है। सुहागन स्त्रियां प्रकृति की इसी हरियाली को अपने ऊपर समेट लेती हैं। इस मौके पर नई-नवेली दुल्हन को सास उपहार भेजकर आशीर्वाद देती है। कुल मिलाकर इस त्योहार का आशय यह है कि सावन की फुहारों की तरह सुहागनें प्रेम की फुहारों से अपने परिवार को खुशहाली प्रदान करेंगी और वंश को आगे बढ़ाएँगी।


वर्षा का मौसम

सावन के महीने में सबसे अधिक बारिश होती है, जो शिव के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करती है। भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताई है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांये चन्द्रमा और अग्नि मध्य नेत्र है। जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने की शुरुआत होती है। सूर्य गर्म है, जो ऊष्मा देता है, जबकि चंद्रमा ठंडा है, जो शीतलता प्रदान करता है। इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिस होती है, जिससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोलेनाथ को ठंडक व सुकून मिलता है। इसलिए शिव का सावन से इतना गहरा लगाव है।


सावन और साधना

सावन और साधना के बीच चंचल और अति चलायमान मन की एकाग्रता एक अहम कड़ी है| जिसके बिना परम तत्व की प्राप्ति असंभव है। साधक की साधना जब शुरू होती है, तब मन एक विकराल बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। उसे नियंत्रित करना सहज नहीं होता। लिहाजा मन को ही साधने में साधक को लंबा और धैर्य का सफर तय करना होता है। इसलिए कहा गया है कि मन ही मोक्ष और बंधन का कारण है। अर्थात मन से ही मुक्ति है और मन ही बंधन का कारण है। भगवान शंकर ने मस्तक में ही चंद्रमा को दृढ़ कर रखा है, इसीलिए साधक की साधना बिना किसी बाधा के पूर्ण होती है।


    

 क्यों प्रिय है महादेव को श्रवण मास। .... श्रावण मास का आध्यात्मिक महत्त्व

    

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नारद जी का भगवन विष्णु जी से अनोखा प्रश्न और प्रभु का उससे भी अनोखा और अद्बभुद उत्तर....

कर्म-कथा,


 

                 

एक बार नारद जी ने भगवान से प्रश्न किया कि प्रभु आपके भक्त गरीब क्यों होते हैं? 

तो भगवान बोले - "नारद जी ! मेरी कृपा को समझना बड़ा कठिन है।" इतना कहकर भगवान नारद के साथ साधु भेष में पृथ्वी पर पधारे और एक सेठ जी के घर भिक्षा मांगने के लिए दरवाजा खटखटाने लगे। सेठ जी बिगड़ते हुए दरवाजे की तरफ आए और देखा तो दो साधु खड़े हैं।


भगवान बोले - "भैया ! बड़े जोरों की भूख लगी है। थोड़ा सा खाना मिल जाए।"

सेठ जी बिगड़कर बोले "तुम दोनों को शर्म नहीं आती। तुम्हारे बाप का माल है ? कर्म करके खाने में शर्म आती है, जाओ-जाओ किसी होटल में खाना मांगना।"


नारद जी बोले - "देखा प्रभु ! यह आपके भक्तों और आपका निरादर करने वाला सुखी प्राणी है। इसको अभी शाप दीजिये।" नारद जी की बात सुनते ही भगवान ने उस सेठ को अधिक धन सम्पत्ति बढ़ाने वाला वरदान दे दिया।


इसके बाद भगवान नारद जी को लेकर एक बुढ़िया मैया के घर में गए। जिसकी एक छोटी सी झोपड़ी थी, जिसमें एक गाय के अलावा और कुछ भी नहीं था। जैसे ही भगवान ने भिक्षा के लिए आवाज लगायी, बुढ़िया मैया बड़ी खुशी के साथ बाहर आयी। दोनों सन्तों को आसन देकर बिठाया और उनके पीने के लिए दुध लेकर आयीं और बोली - "प्रभु ! मेरे पास और कुछ नहीं है, इसे ही स्वीकार कीजिये।"

भगवान ने बड़े प्रेम से स्वीकार किया। तब नारद जी ने भगवान से कहा - "प्रभु ! आपके भक्तों की इस संसार में देखो कैसी दुर्दशा है, मेरे पास तो देखी नहीं जाती। यह बेचारी बुढ़िया मैया आपका भजन करती है और अतिथि सत्कार भी करती है। आप इसको कोई अच्छा सा आशीर्वाद दीजिए।"

भगवान ने थोड़ा सोचकर उसकी गाय को मरने का अभिशाप दे डाला।" यह सुनकर नारद जी बिगड़ गए और कहा - "प्रभु जी ! यह आपने क्या किया ?"


भगवान बोले - "यह बुढ़िया मैया मेरा बहुत भजन करती है। कुछ दिनों में इसकी मृत्यु हो जाएगी और मरते समय इसको गाय की चिन्ता सताएगी कि मेरे मरने के बाद मेरी गाय को कोई कसाई न ले जाकर काट दे, मेरे मरने के बाद इसको कौन देखेगा ? 

तब इस मैया को मरते समय मेरा स्मरण न होकर बस गाय की चिन्ता रहेगी और वह मेरे धाम को न जाकर गाय की योनि में चली जाएगी।" 


उधर सेठ को धन बढ़ाने वाला वरदान दिया कि मरने वक़्त धन तथा तिजोरी का ध्यान करेगा और वह तिजोरी के नीचे साँप बनेगा।


प्रकृति का नियम है जिस चीज मे अति लगाव रहेगा यह जीव मरने के बाद वही जन्म लेता है और बहुत दुख भोगता है..!!


नारद जी का भगवन विष्णु जी से अनोखा प्रश्न और प्रभु का उससे भी अनोखा और अद्बभुद उत्तर 

सोमवार, 22 जुलाई 2024

चातुर्मास विशेष अद्भुद और रोचक पौराणिक जानकारी ......


चातुर्मास विशेष


चातुर्मास में वर्ष के चार महीने आते हैं 

सावन, भादों, क्वार, कार्तिक। 

(श्रावण, भाद्र, अश्विन, कार्तिक-मास) 



चातुर्मास से जुड़ी पौराणिक कथा

शास्त्रों के अनुसार राजा बलि ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। घबराए इंद्रदेव व अन्य सभी देवताओं ने जब भगवान विष्णु से सहायता मांगी तो श्री हरि ने वामन अवतार लिया और राजा बलि से दान मांगने पहुंच गए। वामन भगवान ने दान में तीन पग भूमि मांगी। दो पग में भगवान ने धरती और आकाश नाप लिया और तीसरा पग कहां रखे जब यह पूछा तो बलि ने कहा कि उनके सिर पर रख दें। इस तरह बलि से तीनों लोकों को मुक्त करके श्री नारायण ने देवराज इंद्र का भय दूर किया। लेकिन राजा बलि की दानशीलता और भक्ति भाव देखकर भगवान विष्णु ने बलि से वर मांगने के लिए कहा। बलि ने भगवान से कहा कि आप मेरे साथ पाताल चलें और हमेशा वहीं निवास करें। भगवान विष्णु ने अपने भक्त बलि की इच्छा पूरी की और पाताल चले गए। इससे सभी देवी-देवता और देवी लक्ष्मी चिंतित हो उठी। 

देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को पाताल लोक से मुक्त कराने लिए एक युक्ति सोची और एक गरीब स्त्री बनकर राजा बलि के पास पहुँच गईं। इन्होंने राजा बलि को अपना भाई मानते हुए राखी बांधी और बदले में भगवान विष्णु को पाताल से मुक्त करने का वचन मांग लिया। भगवान विष्णु अपने भक्त को निराश नहीं करना चाहते थे इसलिए बलि को वरदान दिया कि वह साल आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक पाताल लोक में निवास करेंगे, इसलिए इन चार महीनों में भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं।



चातुर्मास के नियम एवं फल 

एक दण्डी तथा त्रिदंडी सभी के लिए ही चातुर्मास व्रत करणीय है  अर्थात एक दंडी -ज्ञानीगण तथा त्रिदंडी भक्त गण  दोनों ही चातुर्मास व्रत का पालन करते हैं। श्री शंकर मठ के अनुयायियों में भी चातुर्मास व्रत की व्यवस्था है। 


मनुष्य एक हजार अश्वमेध यज्ञ करके मनुष्य जिस फल को पाता है, वही चातुर्मास्य व्रत (17 जुलाई से 15 नवंबर) के अनुष्ठान से प्राप्त कर लेता है। 

आषाढ़ के शुक्ल पक्ष में एकादशी के दिन उपवास करके मनुष्य भक्तिपूर्वक चातुर्मास्य व्रत प्रारंभ करे। 


इन चार महीनों में ब्रह्मचर्य का पालन, त्याग, पत्तल पर भोजन, उपवास, मौन, जप, ध्यान, स्नान, दान, पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं।

 

व्रतों में सबसे उत्तम व्रत है – ब्रह्मचर्य का पालन। विशेषतः चतुर्मास में यह व्रत संसार में अधिक गुणकारक है। जो चतुर्मास में अपने प्रिय भोगों का श्रद्धा एवं प्रयत्नपूर्वक त्याग करता है, उसकी त्यागी हुई वे वस्तुएँ उसे अक्षय रूप में प्राप्त होती हैं।


चतुर्मास में गुड़ का त्याग करने से मनुष्य को मधुरता की प्राप्ति होती है। 

ताम्बूल का त्याग करने से मनुष्य भोग-सामग्री से सम्पन्न होता है और उसका कंठ सुरीला होता है। 

दही छोड़ने वाले मनुष्य को गोलोक मिलता है। नमक छोड़ने वाले के सभी पूर्तकर्म (परोपकार एवं धर्म सम्बन्धी कार्य) सफल होते हैं। 


जो मौनव्रत धारण करता है उसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं करता। 

चतुर्मास में काले एवं नीले रंग के वस्त्र त्याग देने चाहिए। कुसुम्भ (लाल) रंग व केसर का भी त्याग कर देना चाहिए। 

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी 17 जुलाई को श्रीहरि के योगनिद्रा में प्रवृत्त हो जाने पर मनुष्य चार मास अर्थात् कार्तिक की पूर्णिमा 15 नवंबर तक भूमि पर शयन करे। ऐसा करने वाला मनुष्य बहुत से धन से युक्त होता और विमान प्राप्त करता है।

 

जो भगवान जनार्दन के शयन करने पर शहद का सेवन करता है, उसे महान पाप लगता है। चतुर्मास में अनार, नींबू, नारियल तथा मिर्च, उड़द और चने का भी त्याग करे। 


चातुर्मास्य में परनिंदा का विशेष रूप से त्याग करे। परनिंदा को सुनने वाला भी पापी होता है। 


चतुर्मास में ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। काँसे के बर्तनों का त्याग करके मनुष्य अन्यान्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करे। अगर कोई धातुपात्रों का भी त्याग करके पलाशपत्र, मदारपत्र या वटपत्र की पत्तल में भोजन करे तो इसका अनुपम फल बताया गया है। 


अन्य किसी प्रकार का पात्र न मिलने पर मिट्टी का पात्र ही उत्तम है अथवा स्वयं ही पलाश के पत्ते लाकर उनकी पत्तल बनाये और उससे भोजन-पात्र का कार्य ले। पलाश के पत्तों से बनी पत्तल में किया गया भोजन चान्द्रायण व्रत एवं एकादशी व्रत के समान पुण्य प्रदान करने वाला माना गया है। 


प्रतिदिन एक समय भोजन करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ के फल का भागी होता है। 


पंचगव्य सेवन करने वाले मनुष्य को चान्द्रायण व्रत का फल मिलता है। 

यदि धीर पुरुष चतुर्मास में नित्य परिमित अन्न का भोजन करता है तो उसके सब पातकों का नाश हो जाता है और वह वैकुण्ठ धाम को पाता है। चतुर्मास में केवल एक ही अन्न का भोजन करने वाला मनुष्य रोगी नहीं होता। 

जो मनुष्य चतुर्मास में केवल दूध पीकर अथवा फल खाकर रहता है, उसके सहस्रों पाप तत्काल विलीन हो जाते हैं। 

जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़ा होकर 'पुरुष सूक्त' का पाठ करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है)। कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा चतुर्मास सब गुणों से युक्त समय है। इसमें धर्मयुक्त श्रद्धा से शुभ कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए। 


देवशयनी एकादशी 17 जुलाई  से देवउठनी एकादशी 12 नवम्बर तक उक्त धर्मों का साधन एवं नियम महान फल देने वाला है। 


चतुर्मास में भगवान नारायण योगनिद्रा में शयन करते हैं, इसलिए चार मास शादी-विवाह और सकाम यज्ञ नहीं होते। ये मास तपस्या करने के हैं। 

चतुर्मास में योगाभ्यास करने वाला मनुष्य ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। 

'नमो नारायणाय' का जप करने से सौ गुने फल की प्राप्ति होती है। 


यदि मनुष्य चतुर्मास में भक्तिपूर्वक योग के अभ्यास में तत्पर न हुआ तो निःसंदेह उसके हाथ से अमृत का कलश गिर गया। 


जो मनुष्य नियम, व्रत अथवा जप के बिना चौमासा बिताता है वह मूर्ख है। 

चतुर्मास में विशेष रूप से जल की शुद्धि होती है। उस समय तीर्थ और नदी आदि में स्नान करने का विशेष महत्त्व है। 

नदियों के संगम में स्नान के पश्चात् पितरों एवं देवताओं का तर्पण करके जप, होम आदि करने से अनंत फल की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य जल में तिल और आँवले का मिश्रण अथवा बिल्वपत्र डालकर ॐ नमः शिवाय का चार-पाँच बार जप करके उस जल से स्नान करता है, उसे नित्य महान पुण्य प्राप्त होता है। 


चतुर्मास में अन्न, जल, गौ का दान, प्रतिदिन वेदपाठ और हवन – ये सब महान फल देने वाले हैं। 


सद्धर्म, सत्कथा, सत्पुरुषों की सेवा, संतों के दर्शन, भगवान विष्णु का पूजन आदि सत्कर्मों में संलग्न रहना और दान में अनुराग होना – ये सब बातें चतुर्मास में दुर्लभ बतायी गयी हैं। 


चतुर्मास में दूध, दही, घी एवं मट्ठे का दान महाफल देने वाला होता है। 

जो चतुर्मास में भगवान की प्रीति के लिए विद्या, गौ व भूमि का दान करता है, वह अपने पूर्वजों का उद्धार कर देता है। 


विशेषतः चतुर्मास में अग्नि में आहूति, भगवद् भक्त एवं पवित्र ब्राह्मणों को दान और गौओं की भलीभाँति सेवा, पूजा करनी चाहिए। 


चतुर्मास में जो स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है।

 

जो एक अथवा दोनों समय पुराण सुनता है, वह पापों से मुक्त होकर भगवान विष्णु के धाम को जाता है।

जो भगवान के शयन करने पर विशेषतः उनके नाम का कीर्तन और जप करता है, उसे कोटि गुना फल मिलता है।


(पद्म पुराण के उत्तर खंड, स्कंद पुराण के ब्राह्म खंड एवं नागर खंड उत्तरार्ध से संकलित)

अद्भुद और रोचक पौराणिक जानकारी 

श्रावण माह क्यों होता है इतना ख़ास और पवित्र, जानिए इसके पीछे की कहानी

 

श्रावण के महीने



श्रावण माह शुद्धिकरण और आत्म-नवीकरण की अवधि

                      श्रावण के महीने में भगवान शिव की पूजा का महत्व ऋग्वेद में बताया गया है। इस पवित्र महीने का नाम श्रवण नक्षत्र से लिया गया है l समुद्र मंथन में विष का निकलना, भगवान शिव द्वारा ब्रह्मांड की रक्षा के लिए विषपान करना और माता पार्वती द्वारा विष को शिवजी के गले तक सीमित रखना |

 इसके बाद सभी देवी, देवताओं द्वारा शिवजी को शुद्ध जल, दुग्ध, बेलपत्र, पुष्प आदि अर्पित करना, जिससे उनके विष का प्रभाव कम हो सके और शिवजी को प्रसन्नता मिले, इसी समय को श्रवण माह कहते हैं l


 श्रावण मास भगवान शिव को बहुत प्रिय 

               माता पार्वती द्वारा तपस्या- भगवान शिव को प्रसन्न करने और उनसे से विवाह करने के लिए माँ पार्वती ने घोर तपस्या की। भगवान शिव को श्रावण मास बहुत पसंद है क्योंकि इसी दौरान उन्हें अपनी पत्नी से पुनर्मिलन हुआ था।

 

सावन का पहला सोमवार

                 भगवान शिव का चंद्रमा देवता से जादुई और रहस्यमयी संबंध सोमवार, जो चंद्रमा द्वारा शासित किया जाता है और हमारे मन पर शासन करते है, विशेष रूप से ढलते चंद्रमा से संबंधित है, नए होने से ठीक पहले। चंद्रमा भगवान शिव के सिर (शिखर-बिंदु)को सुशोभित करता है, इसलिए शिव को चन्द्रशेखर और सोमनाथ भी कहा जाता है। शिव अपने मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करते हैं। बुद्धि मन से परे है, लेकिन इसे व्यक्त करने के लिए मन की झलक की आवश्यकता होती है। अर्धचन्द्र इसी का प्रतीक है।


अर्धचंद्र प्रतीक ब्रह्मांड की चक्रीय प्रकृति का प्रतिनिधित्व

चंद्रमा का बढ़ना और घटना उस चक्र का प्रतीक है जिसके माध्यम से सृष्टि विकसित होती है| जन्म और मृत्यु (सृजन और विनाश) का यह चक्र भगवान शिव द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जो समय, सृजन और विनाश हैं | चंद्रमा की किरणें पृथ्वी पर मौजूद मनुष्य, जानवरों और पौधों को पोषण देती हैं| इस प्रकार यह जीवन का अमृत है। अतः शिव सर्वोच्च शक्ति हैं जो पृथ्वी का पोषण करते हैं।


 भगवान शिव ऊर्जा: सोम ऊर्जा से आयुर्वेदिक उपचार 

शिव ऊर्जा के दो पहलु हैं। उनके रुद्र रूप में सौर ऊर्जा, जो अग्नि और शुद्धिकरण के रूप में। शंकर के रूप में उनकी नरम शांति देने वाली ऊर्जा प्रकृति में, जो सोम से जुड़ी है, जिसमें वे आयुर्वेदिक उपचार शक्ति रखते हैं। भगवान शंकर की सोम ऊर्जा से उपचार दो तरह से होता है: कमी, टोनीकरण, और विषाक्त पदार्थों के दोषों को दूर करना, और दूसरी तरफ कायाकल्प (रसायन) को बढ़ावा देना।


 चंद्रमा ने शिव जी की तरंगों को अवशोषित किया है

चंद्रमा इन अवशोषित ऊर्जा को वो दूसरों को प्रदान करता है | चन्द्रमा का अर्थ है “जो सुख दे”, यह स्नेह, दया और मातृ प्रेम देता है। चंद्रमा सभी जड़ी-बूटियों की वृद्धि और आंतरिक शक्तियों के लिए है और शिवजी चंद्रमा को अपने सिर पर विराजमान रखते हैं, इस तरह शिवजी का स्मरण हमें शिव जी आशिर्वाद स्वरूप अस्तित्व और आरोग्य प्रदान करते है।

 भगवान शिव और माता पार्वती को चरण नमन और सोम के रूप में चंद्रमा शिव की परमानंद प्रकृति से प्रार्थना: मनोकामना पूर्ति का पहला सोमवार मंत्र

 ॐ ह्रौं महाशिवाय वरदाय ह्रीं ऐं काम्य सिद्धि रुद्राय ह्रौं नम:

(ॐ, हमें अपना सारा ध्यान सर्वव्यापी महापुरुष महादेव भगवान शिव पर केंद्रित करने दें। हे प्रभु हमें ज्ञान का भंडार दें और हमारे हृदय को रुद्र के प्रकाश से भर दें, हम आपकी शरण लेते हैं)

श्रावण माह क्यों होता है इतना ख़ास और पवित्र,  जानिए इसके पीछे की कहानी 

गुरुवार, 18 जुलाई 2024

पचतंत्र की एक रोचक और शिक्षाप्रद कहानी .....


घर का भेदी



प्राचीन काल में एक राजा था। राजा का एक पुत्र था| एक बार राजकुमार के पेट में सांप चला गया और सांप ने राजकुमार के पेट को ही अपना बिल बना लिया और उसी में रहने लगा।


 पेट में सांप होने के कारण राजकुमार दिन प्रतिदिन कमजोर होने लगा और उसका स्वास्थ्य भी खराब रहने लगा | राजा ने राजकुमार का बहुत उपचार कराया परंतु उसके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं होगा। राजकुमार की हालत देखकर राजा और उसका परिवार बहुत दुखी रहने लगा |


 राजकुमार अपने परिवार और माता पिता की हालत देखकर राजभवन छोड़कर दूसरे राज्य चला गया और एक मंदिर में सामान्य भिखारी की तरह रहने लगा।


जिस राज्य में राजकुमार भिखारी की तरह रहता था उसी राज्य के राजा की दो पुत्रियां थी | उनमें से एक पुत्री हमेशा मधुर बोलती थी चाहे वह झूठ हो या सच और दूसरी पुत्री सच्ची बातें बोलती थी | राजा को अपनी दूसरी पुत्री की सच्ची बातें अच्छी नहीं लगती थी | 


एक दिन उसने दूसरी पुत्री पर क्रोधित होकर अपने मंत्रियों को आदेश दिया कि इसका विवाह किसी निर्धन से कर दिया जाए । मंत्रियों ने राजा की आज्ञा का पालन किया और मंदिर में ठहरे हुए राजकुमार को निर्धन समझकर राजकुमारी का विवाह उससे करा दिया। दोनों ने वह राज्य छोड़ दिया और जाकर एक तालाब किनारे रहने लगे |


एक दिन राजकुमारी कुछ सामान लेने बाहर गई थी और जब लौट कर आई तो उसने देखा कि राजकुमार तालाब के किनारे सो रहा है और उसके मुंह से एक सांप बाहर निकला हुआ है जो पास में ही बिल में रहने वाले दूसरे सांप से बात कर रहा है। बिल वाला सांप,  पेट वाले सांप को खरी-खोटी सुनाते हुए कहता है कि उसने राजकुमार का जीवन बर्बाद कर दिया है |


पेट वाला सांप क्रोधित होकर कहता है – “ तू भी जिस स्थान पर रह रहा है उसके नीचे स्वर्ण कलश है और तू भी इस स्वर्ण कलश को दूषित कर रहा है।“


बिल वाला सांप कहता है – “ कोई भी इस राजकुमार को उबली हुई राई की कांजी पिलाकर तुझे मार सकता है।“ पेट वाला सांप बदले में कहता है – “ कोई भी इस बिल में उबला हुआ तेल डालकर तुझे भी मार सकता है।“

दोनों सांपों की बात राजकुमारी ने सुन ली और उसने वही उपाय किए जो सांपों ने एक दूसरे को मारने के लिए बतलाए थे |


 इस प्रकार राजकुमारी ने राजकुमार के पेट में रहने वाले सांप को मार दिया जिससे राजकुमार पूरी तरह स्वस्थ हो गया और दोनों ने बिल में रहने वाले सांप को मारकर वहां रखे हुए स्वर्ण कलश को निकाल लिया।


 इस प्रकार अब दोनों की निर्धनता दूर हुई और दोनों सुख पूर्वक रहने लगे |

राजकुमार के स्वस्थ होने पर उसे लगा कि अब अपने राज्य वापस चला जाए । 

राजकुमार अपनी पत्नी को लेकर अपने राज्य लौट आया | घर आने पर उसके माता-पिता बहुत खुश हुए और बड़े धूमधाम से उनका स्वागत किया।


शिक्षा - इस पंचतन्त्र कहानी से शिक्षा मिलती है कि कभी भी अपना भेद नही खोलना चाहिए।



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पचतंत्र की एक रोचक और शिक्षाप्रद कहानी 

हनुमान के पवित्र निवास और पृथ्वी पर उनकी उपस्थिति






 हनुमान के पवित्र निवास और पृथ्वी पर उनकी उपस्थिति 

 कहा जाता है कि हनुमान भगवान श्री राम के ध्यान में लीन होकर राजसी हिमालय में निवास करते हैं और उनकी दिव्य उपस्थिति भगवान राम को समर्पित मंदिरों में भी व्याप्त है। हनुमान की दिव्य ऊर्जा उनके भक्तों के दिलों में निवास करती है, जो स्मरण करने पर महसूस की जा सकती है।वर्तमान युग में भी हनुमान धरती पर ही निवास करते हैं। भगवान राम के प्रति उनकी अटूट भक्ति और अटूट सेवा उन्हें हमारे दायरे से बांधे रखती है। जैसे ही श्री राम का नाम गूंजता है, हनुमान की दिव्य उपस्थिति का आह्वान किया जा सकता है। हनुमान की उपस्थिति अदृश्य है, लेकिन वे सर्वव्यापी हैं, जो हमेशा उन लोगों की मदद करने के लिए तैयार रहते हैं जो उन्हें सच्ची श्रद्धा से पुकारते हैं।


 हनुमान की शक्ति अलौकिक, वैज्ञानिक तथ्य के साथ

 भगवान श्री राम के कार्यों को पूरा करने में उन्होंने अद्भुत और अविश्वसनीय शक्ति का प्रदर्शन किया था, जो वैज्ञानिक विश्लेषण से कोई कल्पना मात्र नहीं हैं l श्री राम की विरासत की रक्षा करने और धार्मिकता के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए हनुमान की उपस्थिति अंधकार की शक्तियों का मुकाबला करने और धार्मिकता के सिद्धांतों को बनाए रखने में सहायक है।


 मांसपेशियों की ताकत और शरीर क्रिया विज्ञान

 हनुमान को अक्सर मांसल, एथलेटिक के रूप में दर्शाया जाता है। मनुष्यों में, मांसपेशियों की ताकत मांसपेशी ऊतक के प्रकार, क्रॉस-सेक्शनल क्षेत्र और तंत्रिका सक्रियण जैसे कारकों से निर्धारित होती है। ग्रंथों में वर्णित हनुमान की काया अत्यधिक विकसित मांसपेशी द्रव्यमान और इष्टतम मांसपेशी फाइबर संरचना वाले प्राणी की है।

 आधुनिक समानांतर

 पेशेवर एथलीट और बॉडीबिल्डर गहन प्रशिक्षण और आनुवंशिक प्रवृत्ति के माध्यम से प्रभावशाली ताकत और शारीरिक कौशल विकसित कर सकते हैं।

 

आकार और शक्ति स्केलिंग

हनुमान की इच्छानुसार आकार बदलने की क्षमता - विशाल आकार में बदलना या छोटा आकार में सिकुड़ना - जीव विज्ञान अवधारणा ताकत आकार के साथ रैखिक रूप से नहीं बढ़ती है; यह एक निश्चित पैमाने का अनुसरण करती है जहाँ ताकत से वजन का अनुपात अलग-अलग हो सकता है।

आधुनिक समानांतर

कुछ जानवर अपने आकार के हिसाब से काफी ताकत दिखाते हैं। जैसे हमिंगबर्ड जैसे पक्षी अपने छोटे आकार के बावजूद अविश्वसनीय सहनशक्ति और चपलता दिखाते हैं।


 ऊर्जा और धीरज

हनुमान की लंबी छलांग और लड़ाइयों, उनकी ऊर्जा और सहनशक्ति के विशाल भंडार का संकेत देती हैं। वैज्ञानिक रूप से, इसका श्रेय असाधारण एरोबिक और एनारोबिक क्षमता को दिया जा सकता है।

 आधुनिक समानांतर: अति-धीरज एथलीट अपनी ऊर्जा व्यय को अनुकूलित करने और सहनशक्ति में सुधार करने के लिए प्रशिक्षण लेते हैं l

 

मानसिक मजबूती और प्रशिक्षण

 हनुमान की ताकत सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक भी है। उनका अटूट ध्यान, समर्पण और अनुशासन उनकी ताकत के मुख्य कारक हैं। न्यूरोसाइंस से पता चलता है कि मानसिक कंडीशनिंग, ध्यान और विश्वास शारीरिक प्रदर्शन में काफ़ी सुधार कर सकते हैं।

 आधुनिक समानांतर: मार्शल आर्ट और योग जैसे अभ्यासकर्ता मानसिक प्रशिक्षण से शारीरिक क्षमताओं में सुधार कर सकते है, जिसके परिणामस्वरूप प्रदर्शन और सहनशक्ति में सुधार होता है।


भगवान श्री राम- माता सीता को चरण नमन और हनुमानजी प्रार्थना: 

ॐ नमो भगवते हनुमते नम: 

 हम हनुमानजी की भक्ति का आह्वान कर सकते हैं, लेकिन वे प्रेम, विश्वास और अटूट आस्था के प्रति ही प्रतिक्रिया करते हैं। भय और निराशा के क्षणों में हनुमान का जाप हमें सुरक्षात्मक आलिंगन की प्राप्ति दे सकता है। हनुमान की शाश्वत सतर्कता, हिमालय में उनकी उपस्थिति, श्री राम के अटूट भक्त और सेवक के कारण, वह एक शाश्वत संरक्षक हैं!

बुधवार, 17 जुलाई 2024

क्या आपको पता है ? देवशयनीं एकादशी को देवशयनी क्यों कहते है? आइये जानते है इसकी महिमा और महत्व ...


देवशयनी एकादशी व्रत कथा और महत्व

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं।
पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। दूसरे पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं


देवशयनी एकादशी व्रत कथा

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा: हे केशव! आषाढ़ शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? इस व्रत के करने की विधि क्या है और किस देवता का पूजन किया जाता है? श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! जिस कथा को ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था वही मैं तुमसे कहता हूँ।


एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया: सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है।


उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ,हवन,पिंडदान,कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।


राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन-सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए।


वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।


तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा: महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।


यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा: हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।


इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।


किंतु राजा का हृदय एक नरपराध शूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ।

उन्होंने कहा: हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ।

महर्षि अंगिरा ने बताया: आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।


राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।


ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।


पूजा विधि

स्नान और संकल्प- व्रत करने वाले व्यक्ति को ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके बाद, भगवान विष्णु की पूजा का संकल्प लें।

मंदिर की सजावट- घर के मंदिर को स्वच्छ करें और भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर को गंगाजल से स्नान कराएं। उन्हें पीले वस्त्र पहनाएं और सुंदर फूलों से सजाएं।

पूजा सामग्री- पूजा के लिए चंदन, तुलसी पत्र, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, पंचामृत, फल, और पीले फूलों का उपयोग करें।

पूजा विधान- भगवान विष्णु की मूर्ति के समक्ष दीप प्रज्वलित करें और धूप, दीप, चंदन, पुष्प आदि अर्पित करें। भगवान विष्णु को पंचामृत और फल का नैवेद्य अर्पित करें। विष्णु सहस्रनाम या विष्णु स्तोत्र का पाठ करें।


देवशयनी एकादशी का व्रत

देवशयनी एकादशी के दिन श्रीहरि नारायण विष्‍णु शयन करते हैं और सभी तरह के मांगलिक कार्य 4 माह के लिए बंद हो जाते है। अतः श्रीहरि को समर्पित यह पर्व यानि देवशयनी एकादशी वर्ष 2024 में 17 जुलाई, दिन बुधवार को मनाई जाएगी। इस दिन से श्रीहरि चार माह के लिए शयननिद्रा में चले जाएंगे। देवशयनी या हरिशयनी एकादशी मनाई जा रही है। इस व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

 देवशयनी एकादशी का व्रत रखने से व्यक्ति को धन, स्वास्थ्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है। इस दिन व्रत और पूजा करने से समस्त पापों का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस एकादशी के व्रत से विशेष रूप से शनि ग्रह के दुष्प्रभावों से मुक्ति मिलती है और जीवन में सुख, शांति और समृद्धि आती है। ऐसा माना जाता है कि इस व्रत के प्रभाव से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है और सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।


देवशयनी एकादशी का महत्व

ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। यह एकादशी आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी जिसे योगिनी एकादशी कहते हैं, के बाद आती है।


 हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन देवशयनी एकादशी मनाई जाती है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी 4 माह तक श्री विष्णु जी का शयनकाल माना जाता है। इस एकादशी के दिन पीपल में जल अर्पित करना चहिए तथा भगवान विष्णु को शयन कराने के पूर्व खीर, पीले फल और पीले रंग की मिठाई का भोग अवश्य ही लगाना चहिए। 

 

आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी/ हरिशयनी एकादशी भी कहते हैं। इस दिन से संसार के पालनहार श्रीहरि भगवान विष्णु चार महीने के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं। इस दौरान कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य नहीं होते हैं, क्योंकि यह समय चातुर्मास का होता है। 

 

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार इस दौरान साधु-संत एक ही स्थान पर निवास करके प्रभु की साधना करते हैं, उनका भ्रमण बंद हो जाता है। देवशयनी एकादशी के दिन भगवान श्रीहरि की विधिवत पूजन से सभी प्रकार के पापों का नाश होता है। शुद्ध और निर्मल मन होने के साथ ही सभी तरह के विकार दूर हो जाते हैं। इस व्रत से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा मृत्यु पश्चात मोक्ष की प्राप्ति होती है।



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जानिए क्यों आज का दिन इतना शुभ 
देवशयनी एकादशी की व्रत कथा उसका महत्त्व 
क्या है? देवशयनीं एकादशी के पीछे की कहानी और इसकी की महिमा  
देवशयनीं एकादशी को देवशयनी क्यों कहते है? आइये जानते है इसकी महिमा और महत्व। ... 
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