शनिवार, 28 सितंबर 2024

देवराज इंद्र और धर्मात्मा तोते की अद्भुद कहानी...


देवराज इंद्र और धर्मात्मा तोते की कथा



देवराज इंद्र और धर्मात्मा तोते की यह कथा महाभारत से है। कहानी कहती है| अगर किसी के साथ ने अच्छा वक्त दिखाया है तो बुरे वक्त में उसका साथ छोड़ देना ठीक नहीं। एक शिकारी ने शिकार पर तीर चलाया। तीर पर सबसे खतरनाक जहर लगा हुआ था। पर निशाना चूक गया। तीर हिरण की जगह एक फले-फूले पेड़ में जा लगा। पेड़ में जहर फैला। वह सूखने लगा। उस पर रहने वाले सभी पक्षी एक-एक कर उसे छोड़ गए। पेड़ के कोटर में एक धर्मात्मा तोता बहुत बरसों से रहा करता था। तोता पेड़ छोड़ कर नहीं गया, बल्कि अब तो वह ज्यादातर समय पेड़ पर ही रहता। दाना-पानी न मिलने से तोता भी सूख कर कांटा हुआ जा रहा था। बात देवराज इंद्र तक पहुंची। मरते वृक्ष के लिए अपने प्राण दे रहे तोते को देखने के लिए इंद्र स्वयं वहां आए।


धर्मात्मा तोते ने उन्हें पहली नजर में ही पहचान लिया। इंद्र ने कहा- 'देखो भाई इस पेड़ पर न पत्ते हैं, न फूल, न फल। अब इसके दोबारा हरे होने की कौन कहे| बचने की भी कोई उम्मीद नहीं है। जंगल में कई ऐसे पेड़ हैं| जिनके बड़े-बड़े कोटर पत्तों से ढके हैं। पेड़ फल-फूल से भी लदे हैं। वहां से सरोवर भी पास है। तुम इस पेड़ पर क्या कर रहे हो| वहां क्यों नहीं चले जाते?'

तोते ने जवाब दिया, 'देवराज मैं इसी पर जन्मा, इसी पर बढ़ा, इसके मीठे फल खाए। इसने मुझे दुश्मनों से कई बार बचाया। इसके साथ मैंने सुख भोगे हैं। आज इस पर बुरा वक्त आया तो मैं अपने सुख के लिए इसे त्याग दूं? जिसके साथ सुख भोगे, दुख भी उसके साथ भोगूंगा, मुझे इसमें आनंद है। आप देवता होकर भी मुझे ऐसी बुरी सलाह क्यों दे रहे हैं?' यह कह कर तोते ने तो जैसे इंद्र की बोलती ही बंद कर दी। तोते की दो-टूक सुन कर इंद्र प्रसन्न हुए, बोले, 'मैं तुमसे प्रसन्न हूं, कोई वर मांग लो।' तोता बोला, 'मेरे इस प्यारे पेड़ को पहले की तरह ही हरा-भरा कर दीजिए।' देवराज ने पेड़ को न सिर्फ अमृत से सींच दिया, बल्कि उस पर अमृत बरसाया भी। पेड़ में नई कोंपलें फूटीं। वह पहले की तरह हरा हो गया, उसमें खूब फल भी लग गए। तोता उस पर बहुत दिनों तक रहा, मरने के बाद देवलोक को चला गया। युधिष्ठिर को यह कथा सुना कर भीष्म बोले- 'अपने आश्रयदाता के दुख को जो अपना दुख समझता है, उसके कष्ट मिटाने स्वयं ईश्वर आते हैं। बुरे वक्त में व्यक्ति भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाता है। जो उस समय उसका साथ देता है, उसके लिए वह अपने प्राणों की बाजी लगा देता है। किसी के सुख के साथी बनो न बनो, दुख के साथी जरूर बनो। यही धर्मनीति है और कूटनीति भी।





 देवराज इंद्र और धर्मात्मा तोते की अद्भुद कहानी


#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 


विदेशी लोग भारत में ही क्यों आध्यात्म की खोज करने आते हैं?


विदेशी लोग भारत में ही क्यों आध्यात्म की खोज करने आते हैं?



प्राचीनकाल से ही यूनानी, रोमन और अरबी लोग भारत में ज्ञान, दर्शन और अध्यात्म की खोज में आते रहे हैं। भारत में हिन्दूकुश पर्वतमाला दो संस्कृतियों का मिलन स्थल था। यहां प्राचीनकाल में कई गुरुकुल और आश्रम हुआ करते थे। अध्यात्म, चमत्कार और सिद्धियों के बारे में भारत की ख्याती दूर-दूर तक फैली थी। उपनिषद् और गीता पूर्णत: एक आध्यात्मिक पुस्तक है जोकि मनुष्य को सच्चे ज्ञान के मार्ग को बताती है। जिन्होंने भी इन्हें गंभीरता से पढ़ा और समझा है वही समझ सकता है कि सच्चा मार्ग क्या है।


भारतीय धर्म और दर्शन दुनिया के अन्य धर्म और दर्शन से बिल्कुल अलग है। यह हरे-भरे फलों से लदे सुव्य‍वस्थित जंगल की तरह है। आत्मा की खोज तभी हो सकती है जबकि हम उसके स्वतंत्र अस्तित्व को मानते हैं, पुनर्जन्म को मानते हैं और जबकि हम ईश्वर के होने या नहीं होने के प्रति संदेश से भरे हैं। हमें इस अस्तित्व को और खुद को समझना है तो निश्चित ही एक ऐसे सच्चे ज्ञान की जरूरत होती है| जोकि हमें यह न बताए कि हमें क्या करना है और क्या नहीं|  हमें किसे मानना है और किसे नहीं। बल्कि जो हमें यह बताए कि हम खुद को और इस अस्तित्व को कैसे जाने और यह कि हम कौन, क्यों और क्या हैं।


पश्‍चिमी धर्म आपको रेडिमेड उत्तर देते हैं। वहां सब कुछ निर्धारित कर दिया गया है कि ईश्वर एक ही है और और उसके ये संदेशवाहक हैं। कोई पूर्वजन्म नहीं होता है। प्रलय होगी और फिर सभी के साथ न्याय होगा। लेकिन भारतीय धर्म और दर्शन में ये सब नहीं के समान है। यहां मोक्ष को जानने और समझने का एक मार्ग है। यह बहुत कठिनाई से समझने में आता है कि हम एक मनुष्य हैं और हमारे लिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि 

'मैं कौन हूं', क्या मेरा अस्तित्व है,  मरने के बाद भी क्या में रहूंगा?

मनुष्य जन्म आपको कैसे मिला है यह जानना और इसके महत्व को तभी समझा जा सकता है जबकि हम दूसरों के द्वारा बताए गए उत्तर से मुक्त होकर खुद इसकी खोज करें। पश्‍चिमी धर्मों ने लोगों के भीतर के प्रश्नों को लगभग मार दिया है। ऐसी कई कारण हैं जबकि लोग अपने अपने कुओं से बाहर निकलकर अध्यात्म की खोज में भारत आते हैं।


सबसे शुद्ध वातावरण


प्राचीनकाल से ही भारतीय लोग साधना या ध्यान करने के लिए हिमालय की शरण में जाते रहे हैं। हिमालय की वादियों में रहने वालों को कभी दमा, टीबी, गठिया, संधिवात, कुष्ठ, चर्मरोग, आमवात, अस्थिरोग और नेत्र रोग जैसी बीमारी नहीं होती। हिमालय क्षेत्र के राज्य जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, हिमाचल, उत्तराखंड, असम, अरुणाचय आदि क्षेत्रों के लोगों का स्वास्थ्य अन्य प्रांतों के लोगों की अपेक्षा बेहतर होता है। इसे ध्यान और योग के माध्यम से और उन्नत करके यहां की औसत आयु सीमा बढ़ाई जा सकती है। तिब्बत के लोग निरोगी रहकर कम से कम 100 वर्ष तो जीवित रहते ही हैं।


जब हम पश्चिमी ग्रंथों को पढ़ते हैं तो उसमें एक बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वर्ग में सेवफल, फल और फुलों से लदे वृक्ष हैं। सुंदर-सुंदर स्त्रियां हैं, जंगल है और खासकर यह कि वहां देवता लोग रहते हैं। अब निश्चित ही बर्फिले और रेगिस्तान के लोगों के लिए यह कल्पना उचित ही जान पड़ती है। ऐेसे में सभी यहां आना चाहते होंगे। भारत के हिमालयी राज्य कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल, सिक्किम और अरुणाचल की स्थिति ऐसी ही है।


मात्र भारत में ही है उचित वातावरण और स्थान 


भारत में ध्यान, योग और अध्यात्म विद्या सीखने के लिए अन्य देशों की अपेक्षा उचित वातावरण है। यहां एक ओर जहां हिमालय है, तो वहीं दूसरे छोर पर समुद्र। एक ओर जहां रेगिस्तान है, तो दूसरे छोर पर घने जंगल और ऊंचे-ऊंचे पहाड़। इसके अलावा कई प्राचीन आश्रम, गुफाएं और पहाड़ हैं, जहां जाकर तपस्या की जा सकती है या ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अध्यात्म की इसी खोजके लिए हजारों विदेशी यहां आकर भारत के वातावरण से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। यहाँ प्रयागराज में कुम्भ के मेले और अन्य स्थानों के कुम्भ महोत्सव में विदेशियों की भागीदारी देखी जा सकती हैं. 


भारत में बहुत सारी प्राचीन गुफाएं हैं, जैसे बाघ की गुफाएं, अजंता-एलोरा की गुफाएं, एलीफेंटा की गुफाएं और भीमबेटका की गुफाएं। अखंड भारत की बात करें तो अफगानिस्तान के बामियान की गुफाओं को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। भीमबेटका में 750 गुफाएं हैं जिनमें 500 गुफाओं में शैलचित्र बने हैं। यहां की सबसे प्राचीन चित्रकारी को कुछ इतिहासकार 35,000 वर्ष पुरानी मानते हैं, तो कुछ 12,000 साल पुरानी।


मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित पुरा-पाषाणिक भीमबेटका की गुफाएं भोपाल से 46 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। ये विंध्य पर्वतमालाओं से घिरी हुई हैं। भीमबेटका मध्यभारत के पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विंध्याचल की पहाड़ियों के निचले हिस्से पर स्थित है। पूर्व पाषाणकाल से मध्य पाषाणकाल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र रहा।


देव स्थान


प्राचीन काल में हिमालय में ही देवता रहते थे। यहीं पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव का स्थान था और यहीं पर नंदनकानन वन में इंद्र का राज्य था। इंद्र के राज्य के पास ही गंधर्वों और यक्षों का भी राज्य था। स्वर्ग की स्थिति दो जगह बताई गई है| पहली हिमालय में और दूसरी कैलाश पर्वत के कई योजन ऊपर।


मुण्डकोपनिषद् के अनुसार


सूक्ष्म-शरीरधारी आत्माओं का एक संघ है। इनका केंद्र हिमालय की वादियों में उत्तराखंड में स्थित है। इसे देवात्मा हिमालय कहा जाता है। इन दुर्गम क्षेत्रों में स्थूल-शरीरधारी व्यक्ति सामान्यतया नहीं पहुंच पाते हैं। अपने श्रेष्ठ कर्मों के अनुसार सूक्ष्म-शरीरधारी आत्माएं यहां प्रवेश कर जाती हैं। जब भी पृथ्वी पर संकट आता है, नेक और श्रेष्ठ व्यक्तियों की सहायता करने के लिए वे पृथ्वी पर भी आती हैं।


भौगोलिक दृष्टि से उसे उत्तराखंड से लेकर कैलाश पर्वत तक बिखरा हुआ माना जा सकता है। हालांकि उत्तराखंड की चार धाम यात्रा इसी हिमालयय के आसपास होती है़, जिसमें केदार, बद्री, गंगोत्री और यमुनोत्री आदि शामिल है। आध्यात्मिक शोधों के लिए, साधनाओं सूक्ष्म शरीरों को विशिष्ट स्थिति में बनाए रखने के लिए यह स्थान विशेष रूप से उपयुक्त है। इतिहास पुराणों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र को देवभूमि कहा गया और स्वर्गवत माना गया है। यहां प्राचीन काल में देवी और देवता साक्षात रहते थे।





यहाँ आकर तपस्या की जा सकती है या ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अध्यात्म की इसी तलाश के लिए हजारों विदेशी यहां आकर भारत के वातावरण से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।


#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 


पितरों के श्राद्ध के लिए हैं ये 12 प्रमुख स्थान

 

पितरों के श्राद्ध के लिए हैं ये  प्रमुख स्थान


पितरों की मुक्ति हेतु किए जाने वाले कर्म तर्पण, भोज और पिंडदान को उचित रीति से नदी के किनारे किया जाता है। इसके लिए देश में कुछ खास स्थान नियुक्त हैं। देश में श्राद्ध पक्ष के लिए लगभग 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिनमें से 12 स्थान सबसे खास माने गए हैं।

 

1. उज्जैन (मध्यप्रदेश):- उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित सिद्धवट पर श्राद्ध कर्म के कार्य किए जाते हैं।

 

2. लोहानगर (राजस्थान):- इसे लोहार्गल कहते हैं। यहां पांडवों ने अपने पितरों के लिए सुरजकुंड में मुक्ति का कार्य किया था। यहां खासकर अस्थि विसर्जन होता है। यहां तीन पर्वत से निकलने वाली सात धाराएं हैं।

 

3. प्रयाग (उत्तर प्रदेश):- त्रिवेणी संगम पर गंगा नदी के तट पर मुक्ति कर्म किया जाता है।

 

4. हरिद्वार (उत्तराखंड):- यहां हर की पौड़ी पर सप्त गंगा, त्रि गंगा और शकावर्त में मुक्ति कर्म किया जाता है। 

 

5. पिण्डारक (गुजरात):- पिंडारक प्राभाष क्षेत्र में द्वारिका के पास एक तीर्थ स्थान है। यहां पितृ पिंड सरोवर है। 

 

6. नाशिक (महाराष्ट्र):- यहां गोदावरी नदी के तट पर मुक्ति कर्म किया जाता है। 

 

7. गया (बिहार):- गया में फल्गु नदी के तट पर मुक्ति कर्म किया जाता है। 

 

8. ब्रह्मकपाल (उत्तराखंड):- कहते हैं जिन पितरों को गया में मुक्ति नहीं मिलती या अन्य किसी और स्थान पर मुक्ति नहीं मिलती उनका यहां पर श्राद्ध करने से मुक्ति मिल जाती है। यह स्थान बद्रीनाथ धाम के पास अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है।

 

9. मेघंकर (महाराष्ट्र):- यहां पैनगंगा नदी के तट पर मुक्ति कर्म किया जाता है। 

 

10. लक्ष्मण बाण (कर्नाटक):- यह स्थान रामायण काल से जुड़ा हुआ है। लक्ष्मण मंदिर के पीछे लक्ष्मण कुंड है जहां पर मुक्ति कर्म किया जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि यहां पर श्रीराम ने अपने पिता का श्राद्ध किया था।

 

11. पुष्कर (राजस्थान):- यहां पर बहुत ही प्राचीन झील है जिसके किनारे मुक्ति कर्म किया जाता है। 

 

12. काशी (उत्तर प्रदेश):- काशी को मोक्ष नगरी कहा जाता है। चेतगंज थाने के पास पिशाच मोचन कुंड है जहां पर त्रिपिंडी श्राद्ध करने से पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद अन्य तरह की व्याधियों से भी मुक्ति मिल जाती है।

 

पुराणों अनुसार ब्रह्मज्ञान, गया श्राद्ध, गोशाला में मृत्यु तथा कुरुक्षेत्र में निवास- ये चारों मुक्ति के साधन हैं- गया में श्राद्ध करने से ब्रह्महत्या, सुरापान, स्वर्ण की चोरी, गुरुपत्नीगमन और उक्त संसर्ग-जनित सभी महापातक नष्ट हो जाते हैं। अंतिम श्राद्ध ब्रह्मकपाल में होता है।

गुरुवार, 26 सितंबर 2024

उम्मीद का दिया...सुन्दर सार्थक लेख

 

उम्मीद का दिया सुन्दर सार्थक लेख

एक घर मे पांच दिए जल रहे थे।


एक दिन पहले एक दिए ने कहा -


इतना जलकर भी मेरी रोशनी की लोगो को कोई कदर नही है...


तो बेहतर यही होगा कि मैं बुझ जाऊं।


वह दिया खुद को व्यर्थ समझ कर बुझ गया । 


जानते है वह दिया कौन था ?


वह दिया था उत्साह का प्रतीक


यह देख दूसरा दिया जो शांति का प्रतीक था, कहने लगा -


मुझे भी बुझ जाना चाहिए।


निरंतर शांति की रोशनी देने के बावजूद भी लोग हिंसा कर रहे है।


और शांति का दिया बुझ गया । 


उत्साह और शांति के दिये के बुझने के बाद, जो तीसरा दिया हिम्मत का था, वह भी अपनी हिम्मत खो बैठा और बुझ गया।


उत्साह, शांति और अब हिम्मत के न रहने पर चौथे दिए ने बुझना ही उचित समझा।


चौथा दिया समृद्धि का प्रतीक था।


सभी दिए बुझने के बाद केवल पांचवां दिया अकेला ही जल रहा था।


हालांकि पांचवां दिया सबसे छोटा था मगर फिर भी वह निरंतर जल रहा था।

 

तब उस घर मे एक लड़के ने प्रवेश किया।


उसने देखा कि उस घर मे सिर्फ एक ही दिया जल रहा है।


वह खुशी से झूम उठा।


चार दिए बुझने की वजह से वह दुखी नही हुआ बल्कि खुश हुआ।


यह सोचकर कि कम से कम एक दिया तो जल रहा है।


उसने तुरंत पांचवां दिया उठाया और बाकी के चार दिए फिर से जला दिए ।


जानते है वह पांचवां अनोखा दिया कौन सा था ?


वह था उम्मीद का दिया...


इसलिए अपने घर में अपने मन में हमेशा उम्मीद का दिया जलाए रखिये ।


चाहे सब दिए बुझ जाए लेकिन उम्मीद का दिया नही बुझना चाहिए ।


ये एक ही दिया काफी है बाकी सब दियों को जलाने के लिए ....

उम्मीद  का 

चमत्कारिक लाभ हैं चरण छूकर प्रणाम करने के...


चमत्कारिक लाभ हैं...चरण छूकर प्रणाम करने के...



अपने से बड़ों का अभिवादन करने के लिए चरण छूने की परंपरा सदियों से रही है| सनातन धर्म में अपने से बड़े के आदर के लिए चरण स्पर्श उत्तम माना गया है।


प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर चरण स्पर्श के कई फायदे हैं।


1. चरण छूने का मतलब है पूरी श्रद्धा के साथ किसी के आगे नतमस्तक होना| इससे विनम्रता आती है और मन को शांति मिलती है, साथ ही चरण छूने वाला दूसरों को भी अपने आचरण से प्रभावित करने में कामयाब होता है।


2. जब हम किसी आदरणीय व्यक्ति के चरण छूते हैं, तो आशीर्वाद के तौर पर उनका हाथ हमारे सिर के उपरी भाग को और हमारा हाथ उनके चरण को स्पर्श करता है| ऐसी मान्यता है कि इससे उस पूजनीय व्यक्ति की पॉजिटिव एनर्जी आशीर्वाद के रूप में हमारे शरीर में प्रवेश करती है| इससे हमारा आध्यात्मिक तथा मानसिक विकास होता है।


3. शास्त्रों में कहा गया है कि हर रोज बड़ों के अभि‍वादन से आयु, विद्या, यश और बल में बढ़ोतरी होती है।


4. इसका वैज्ञानिक पक्ष इस तरह है

 न्यूटन के नियम के अनुसार, दुनिया में सभी चीजें गुरुत्वाकर्षण के नियम से बंधी हैं| साथ ही गुरुत्व भार सदैव आकर्षित करने वाले की तरफ जाता है| हमारे शरीर पर भी यही नियम लागू होता है| सिर को उत्तरी ध्रुव और पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना गया है| इसका मतलब यह हुआ कि गुरुत्व ऊर्जा या चुंबकीय ऊर्जा हमेशा उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर अपना चक्र पूरा करती है| यानी शरीर में उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की ओर प्रवाहित होती है| दक्षिणी ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा में स्थिर हो जाती है| पैरों की ओर ऊर्जा का केंद्र बन जाता है| पैरों से हाथों द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने को ही हम 'चरण स्पर्श' कहते हैं।


5. चरण स्पर्श और चरण वंदना भारतीय संस्कृति में सभ्यता और सदाचार का प्रतीक है।


6. माना जाता है कि पैर के अंगूठे से भी शक्ति का संचार होता है| मनुष्य के पांव के अंगूठे में भी ऊर्जा प्रसारित करने की शक्ति होती है।


7. मान्यता है कि बड़े-बुजुर्गों के चरण स्पर्श नियमित तौर पर करने से कई प्रतिकूल ग्रह भी अनुकूल हो जाते हैं।


8. इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष यह है कि जिन लक्ष्यों की प्राप्त‍ि को मन में रखकर बड़ों को प्रणाम किया जाता है, उस लक्ष्य को पाने का बल मिलता है।


9. यह एक प्रकार का सूक्ष्म व्यायाम भी है| पैर छूने से शारीरिक कसरत होती है| झुककर पैर छूने, घुटने के बल बैठकर प्रणाम करने या साष्टांग दंडवत से शरीर लचीला बनता है।


10. आगे की ओर झुकने से सिर में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो सेहत के लिए फायदेमंद है।


11. प्रणाम करने का एक फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है| इन्हीं कारणों से बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया है।


ध्यान रखने वाली बात यह है कि केवल उन्हीं के चरण स्पर्श करना चाहिए, जिनके आचरण ठीक हों| 'चरण' और 'आचरण' के बीच भी सीधा संबंध है।



#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 


बुधवार, 25 सितंबर 2024

कैसे शुरू हुए कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष


कैसे शुरू हुए कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष

पंचांग के अनुसार हर माह में तीस दिन होते हैं और इन महीनों की गणना सूरज और चंद्रमा की गति के अनुसार की जाती है। चन्द्रमा की कलाओं के ज्यादा या कम होने के अनुसार ही महीने को दो पक्षों में बांटा गया है जिन्हे कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष कहा जाता है। 

पूर्णिमा से अमावस्या तक बीच के दिनों को कृष्णपक्ष कहा जाता है,  अमावस्या से पूर्णिमा तक का समय शुक्लपक्ष कहलाता है। 


शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष से जुड़ी कथा


 कृष्णपक्ष की शुरुआत

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपनी सत्ताईस बेटियों का विवाह चंद्रमा से कर दिया। ये सत्ताईस बेटियां सत्ताईस स्त्री नक्षत्र हैं और अभिजीत नामक एक पुरुष नक्षत्र भी है। लेकिन चंद्र केवल रोहिणी से प्यार करते थे। ऐसे में बाकी स्त्री नक्षत्रों ने अपने पिता से शिकायत की कि चंद्र उनके साथ पति का कर्तव्य नहीं निभाते। दक्ष प्रजापति के डांटने के बाद भी चंद्र ने रोहिणी का साथ नहीं छोड़ा और बाकी पत्नियों की अवहेलना करते गए। तब चंद्र पर क्रोधित होकर दक्ष प्रजापति ने उन्हें क्षय रोग का शाप दिया। क्षय रोग के कारण सोम या चंद्रमा का तेज धीरे-धीरे कम होता गया। कृष्ण पक्ष की शुरुआत यहीं से हुई। 


ऐसे शुरू हुआ शुक्लपक्ष

 कहते हैं कि क्षय रोग से चंद्र का अंत निकट आता गया। वे ब्रह्मा के पास गए और उनसे मदद मांगी। तब ब्रह्मा और इंद्र ने चंद्र से शिवजी की आराधना करने को कहा। शिवजी की आराधना करने के बाद शिवजी ने चंद्र को अपनी जटा में जगह दी। ऐसा करने से चंद्र का तेज फिर से लौटने लगा। इससे शुक्ल पक्ष का निर्माण हुआ। चूंकि दक्ष ‘प्रजापति’ थे। चंद्र उनके शाप से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकते थे। शाप में केवल बदलाव आ सकता था। इसलिए चंद्र को बारी-बारी से कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में जाना पड़ता है। 

दक्ष ने कृष्ण पक्ष का निर्माण किया और शिवजी ने शुक्ल पक्ष का।


कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के बीच अंतर

जब हम संस्कृत शब्दों शुक्ल और कृष्ण का अर्थ समझते हैं, तो हम स्पष्ट रूप से दो पक्षों के बीच अंतर कर सकते हैं। शुक्ल उज्ज्वल व्यक्त करते हैं, जबकि कृष्ण का अर्थ है अंधेरा।


जैसा कि हमने पहले ही देखा, शुक्ल पक्ष अमावस्या से पूर्णिमा तक है, और कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष के विपरीत, पूर्णिमा से अमावस्या तक शुरू होता है।


कौन सा पक्ष शुभ है?

धार्मिक मान्यता के अनुसार, लोग शुक्ल पक्ष को आशाजनक और कृष्ण पक्ष को प्रतिकूल मानते हैं। यह विचार चंद्रमा की जीवन शक्ति और रोशनी के संबंध में है।


ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष की दशमी से लेकर कृष्ण पक्ष की पंचम तिथि तक की अवधि ज्योतिषीय दृष्टि से शुभ मानी जाती है। इस समय के दौरान चंद्रमा की ऊर्जा अधिकतम या लगभग अधिकतम होती है - जिसे ज्योतिष में शुभ और अशुभ समय तय करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।


मंगलवार, 24 सितंबर 2024

कैसे शुरू हुई ये परंपरा... सबसे पहले किसने किया था श्राद्ध...

सबसे पहले किसने किया था श्राद्ध, कैसे शुरू हुई ये परंपरा


श्राद्ध के बारे में अनेक धर्म ग्रंथों में कई बातें बताई गई हैं। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं, जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं। महाभारत में ये भी बताया गया है कि श्राद्ध की परंपरा कैसे शुरू हुई और फिर कैसे ये धीरे-धीरे जनमानस तक पहुंची। आज हम आपको श्राद्ध से संबंधित कुछ ऐसी ही रोचक बातें बता रहे हैं-


निमि ने शुरू की श्राद्ध की परंपरा

महाभारत के अनुसार, सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था। इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया| उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे। धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए।


पितरों को हो गया था अजीर्ण रोग


श्राद्ध का भोजन लगातार करने से पितरों को अजीर्ण (भोजन न पचना) रोग हो गया और इससे उन्हें कष्ट होने लगा। तब वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे कहा कि- श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण रोग हो गया है| इससे हमें कष्ट हो रहा है| आप हमारा कल्याण कीजिए।

देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं, ये ही आपका कल्याण करेंगे। अग्निदेव बोले- देवताओं और पितरों। अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा। यह सुनकर देवता व पितर प्रसन्न हुए। इसलिए श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है।


पहले पिता को देना चाहिए पिंड


महाभारत के अनुसार, अग्नि में हवन करने के बाद जो पितरों के निमित्त पिंडदान दिया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं करते। श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहां से भाग जाते हैं। सबसे पहले पिता को, उनके बाद दादा को उसके बाद परदादा को पिंड देना चाहिए। यही श्राद्ध की विधि है। प्रत्येक पिंड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री मंत्र का जाप तथा सोमाय पितृमते स्वाहा का उच्चारण करना चाहिए।


कुल के पितरों को करें तृप्त


रजस्वला स्त्री को श्राद्ध का भोजन तैयार करने में नहीं लगाना चाहिए। तर्पण करते समय पिता-पितामह आदि के नाम का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिए। किसी नदी के किनारे पहुंचने पर पितरों का पिंडदान और तर्पण अवश्य करना चाहिए। पहले अपने कुल के पितरों को जल से तृप्त करने के पश्चात मित्रों और संबंधियों को जलांजलि देनी चाहिए। चितकबरे बैलों से जुती हुई गाड़ी में बैठकर नदी पार करते समय बैलों की पूंछ से पितरों का तर्पण करना चाहिए क्योंकि पितर वैसे तर्पण की अभिलाषा रखते हैं।


अमावस्या पर जरूर करना चाहिए श्राद्ध


नाव से नदी पार करने वालों को भी पितरों का तर्पण करना चाहिए। जो तर्पण के महत्व को जानते हैं, वे नाव में बैठने पर एकाग्रचित्त हो अवश्य ही पितरों का जलदान करते हैं। कृष्णपक्ष में जब महीने का आधा समय बीत जाए, उस दिन अर्थात अमावस्या तिथि को श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।


इसलिए रखना चाहिए पितरों को प्रसन्न


पितरों की भक्ति से मनुष्य को पुष्टि, आयु, वीर्य और धन की प्राप्ति होती है। ब्रह्माजी, पुलस्त्य, वसिष्ठ, पुलह, अंगिरा, क्रतु और महर्षि कश्यप-ये सात ऋषि महान योगेश्वर और पितर माने गए हैं। मरे हुए मनुष्य अपने वंशजों द्वारा पिंडदान पाकर प्रेतत्व के कष्ट से छुटकारा पा जाते हैं।


ऐसे करना चाहिए पिंडदान


महाभारत के अनुसार, श्राद्ध में जो तीन पिंडों का विधान है, उनमें से पहला जल में डाल देना चाहिए। दूसरा पिंड श्राद्धकर्ता की पत्नी को खिला देना चाहिए और तीसरे पिंड की अग्नि में छोड़ देना चाहिए, यही श्राद्ध का विधान है। जो इसका पालन करता है उसके पितर सदा प्रसन्नचित्त और संतुष्ट रहते हैं और उसका दिया हुआ दान अक्षय होता है।


1 पहला पिंड जो पानी के भीतर चला जाता है, वह चंद्रमा को तृप्त करता है और चंद्रमा स्वयं देवता तथा पितरों को संतुष्ट करते हैं।


2 इसी प्रकार पत्नी गुरुजनों की आज्ञा से जो दूसरा पिंड खाती है, उससे प्रसन्न होकर पितर पुत्र की कामना वाले पुरुष को पुत्र प्रदान करते हैं।


3 तीसरा पिंड अग्नि में डाला जाता है, उससे तृप्त होकर पितर मनुष्य की संपूर्ण कामनाएं पूर्ण करते हैं।





गणेशजी को दूर्वा और मोदक ही क्यों चढ़ाते हैं...

 

गणेशजी को दूर्वा और मोदक चढ़ाने का महत्व क्यों?



भगवान गणेशजी को 3 या 5 गांठ वाली दूर्वा (एक प्रकार की घास) अर्पण करने से शीघ्र प्रसन्न होते और भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। इसीलिए उन्हें दूर्वा चढ़ाने का शास्त्रों में महत्त्व बताया गया है। 

इसके संबंध में पुराण में एक कथा का उल्लेख मिलता है-"एक समय पृथ्वी पर अनलासुर नामक राक्षस ने भयंकर उत्पात मचा रखा था। उसका अत्याचार पृथ्वी के साथ-साथ स्वर्ग और पाताल तक फैलने लगा था। यह भगवद्-भक्ति व ईश्वर आराधना करने वाले ऋषि-मुनियों और निर्दोष लोगों को जिंदा निगल जाता था। देवराज इंद्र ने उससे कई बार युद्ध किया, लेकिन उन्हें हमेशा परास्त होना पड़ा। अनलासुर से अस्त होकर समस्त देवता भगवान शिव के पास गए। उन्होंने बताया कि उसे सिर्फ गणेश ही खत्म कर सकते हैं, क्योंकि उनका पेट बड़ा है इसलिए वे उसको पूरा निगल लेंगे। इस पर देवताओं ने गणेश की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। गणेशजी ने अनलासुर का पीछा किया और उसे निगल गए। इससे उनके पेट में काफी जलन होने लगी। अनेक उपाय किए गए, लेकिन ज्वाला शांत न हुई। जब कश्यप ऋषि को यह बात मालूम हुई, तो ये तुरंत कैलास गए और । दूर्वा एकत्रित कर एक गांठ तैयार कर गणेश को खिलाई, जिससे उनके पेट की ज्वाला तुरंत शांत हो गई।


गणेशजी को मोदक यानी लड्डू काफी प्रिय हैं। इनके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी ही मानी जाती है। गोस्वामी तुलसीदास ने विनय पत्रिका में कार है


गाइये गणपति जगवंदन । 

संकर सुवन भवानी नंदन 

सिद्धि-सदन गज बदन विनायक ।

 कृपा-सिंधु सुंदर सब लायक ॥

मोदकप्रिय मुद मंगलदाता । 

विद्या वारिधि बुद्धि विधाता ॥


इसमें भी उनकी मोदकप्रियता प्रदर्शित होती है। महाराष्ट्र के भक्त आमतौर पर गणेशजी को मोदक चढ़ाते हैं। उल्लेखनीय है कि मोदक मैदे के खोल में रवा, चीनी, मावे का मिश्रण कर बनाए जाते हैं। जबकि लड्डू मावे व मोतीचूर के बनाए हुए भी उन्हें पसंद है। जो भक्त पूर्ण श्रद्धाभाव से गणेशजी को मोदक या लड्डुओं का भोग लगाते हैं, उन पर वे शीप प्रसन्न होकर इच्छापूर्ति करते हैं।


मोद यानी आनंद और 'क' का शाब्दिक अर्थ छोटा-सा भाग मानकर ही मोदक शब्द बना है, जिसका तात्पर्य हाथ में रखने मात्र से आनंद की अनुभूति होना है। ऐसे प्रसाद को जब गणेशजी को अर्पण किया जाए तो सुख की अनुभूति होना स्वाभाविक है। एक दूसरी व्याख्या के अनुसार जैसे ज्ञान का प्रतीक मोदक यानी मीठा होता है, वैसे ही ज्ञान का प्रसाद भी मीठा होता है।


गणपति अथर्वशीर्ष में लिखा है


यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।

यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति स मेघावान् भवति ॥ 

यो मोदक सहस्रेण यजति स वांछित फलमवाप्राप्नोति ॥


अर्थात जो भगवान को दूर्वा चढ़ाता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो (धान-लाई) चाढाता है, वह यशस्वी हो जाता है, मेधावी हो जाता है और जो एक हजार लड्डुओं का भोग गणेश भगवान् को लगाता है, वह वांछित फल प्राप्त करता है।


गणेशजी को गुड भी प्रिय है। उनकी मोदकप्रियता के संबंध में एक कथा पद्मपुराण में आती है। एक बार गजानन और कार्तिकेय के दर्शन करके देवगण अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने माता पार्वती को एक दिव्य लड्डू प्रदान किया। इस लड्डू को दोनों बालक आग्रह कर मांगने लगे। तब माता पार्वती ने लड्डू के गुण बताए-इस मोदक की गंध से ही अमरत्व की प्राप्ति होती है। निस्संदेह इसे सूंघने या खाने वाला संपूर्ण शास्त्रों का मर्मज्ञ, सब तन्त्रो में प्रवीण, लेखक, चित्रकार, विद्वान, ज्ञान-विज्ञान विशारद और सर्वज्ञ हो जाता है। फिर आगे कहा-"तुम दोनों से जो धर्माचरण के द्वारा अपनी श्रेष्ठता पहले सिद्ध करेगा, वही इस दिव्य मोदक को पाने का अधिकारी होगा।'


माता पार्वती की आज्ञा पाकर कार्तिक अपने तीव्रगामी वाहन मयूर पर आरूढ होकर त्रिलोक की तीर्थयात्रा पर चल पड़े और मुहर्त भर में ही सभी तीर्थों के दर्शन, स्नान कर लिए। इधर गणेशजी ने अत्यत श्रद्धा-भक्ति पूर्वक माता-पिता की परिक्रमा की और हाथ जोड़कर उनके सम्मुख खड़े हो गए और कहा कि तीर्थ स्थान, देव स्थान के दर्शन, अनुष्ठान व सभी प्रकार के व्रत करने से भी माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर पुण्य प्राप्त नहीं होता है, अतः मोदक प्राप्त करने का अधिकारी मैं हूँ। गणेशजी का तर्कपूर्ण जवाब सुनकर माता पार्वती ने प्रसन्न होकर गणेशजी को मोदक प्रदान कर दिया और कहा कि माता-पिता की भक्ति के कारण गणेश ही यज्ञादि सभी शुभ कार्यों में सर्वत्र अग्रपूज्य होंगे।





 गणेशजी को दूर्वा और मोदक ही क्यों चढ़ाते हैं 


#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, 

हनुमान जी की अनसुनी रोचक कहानी...


एक प्रसंग हनुमान जी कौन हैं


पार्वती जी ने शंकर जी से कहा - भगवन अपने इस भक्त को कैलाश आने से रोक दीजिए, वरना किसी दिन मैं इसे अग्नि में भस्म कर दूंगी।


यह जब भी आता है, मैं बहुत असहज हो जाती हूँ। यह बात मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है। आप इसे समझा दीजिए, यह कैलाश में प्रवेश न करें।


शिव जी जानते थे कि पार्वती सिर्फ उनके वरदान की मर्यादा रखने के लिए रावण को कुछ नहीं कहती हैं।


वह चुपचाप उठकर बाहर आकर देखते हैं। रावण नंदी को परेशान कर रहा है।


शिव जी को देखते ही वह हाथ जोड़कर प्रणाम करता है। प्रणाम महादेव।


आओ दशानन कैसे आना हुआ ?


मैं तो बस आप के दर्शन करने के लिए आ गया था महादेव।


अखिर महादेव ने उसे समझाना शुरू किया। देखो रावण तुम्हारा यहां आना पार्वती को बिल्कुल भी पसंद नहीं है। इसलिए तुम यहां मत आया करो।


महादेव यह आप कह रहे हैं। आप ही ने तो मुझे किसी भी समय आप के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर आने का वरदान दिया है।


और अब आप ही अपने वरदान को वापस ले रहे हैं। ऐसी बात नहीं है रावण।


लेकिन तुम्हारे क्रिया कलापों से पार्वती परेशान रहती है और किसी दिन उसने तुम्हें श्राप दे दिया तो मैं भी कुछ नहीं कर पाऊंगा। इसलिए बेहतर यही है कि तुम यहां पर न आओ।


फिर आप का वरदान तो मिथ्या हो गया महादेव।


मैं तुम्हें आज एक और वरदान देता हूं। तुम जब भी मुझे याद करोगे। मैं स्वयं ही तुम्हारे पास आ जाऊंगा। लेकिन तुम अब किसी भी परिस्थिति में कैलाश पर्वत पर मत आना।


अब तुम यहां से जाओ, पार्वती तुमसे बहुत रुष्ट है। रावण चला जाता है।


समय बदलता है हनुमानजी रावण की स्वर्ण नगरी लंका को जला कर राख करके चले जाते हैं। और रावण उनका कुछ नहीं कर सकता है।


वह सोचते-सोचते परेशान हो जाता है कि आखिर उस हनुमान में इतनी शक्ति आई कहां से।


परेशान हो कर वह महल में ही स्थित शिव मंदिर में जाकर शिवजी की प्रार्थना आरम्भ करता है।


जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले।

गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।।


उसकी प्रार्थना से शिव प्रसन्न होकर प्रकट होते हैं। रावण अभिभूत हो कर उनके चरणों में गिर पड़ता है।


कहो दशानन कैसे हो ? शिवजी पूछते हैं।


आप अंतर्यामी हैं महादेव। सब कुछ जानते हैं प्रभु।


एक अकेले बंदर ने मेरी लंका को और मेरे दर्प को भी जला कर राख कर दिया।


मैं जानना चाहता हूं कि यह बंदर जिसका नाम हनुमान है आखिर कौन है ?


और प्रभु उसकी पूंछ तो और भी ज्यादा शक्तिशाली थी। किस तरह सहजता से मेरी लंका को जला दिया। मुझे बताइए कि यह हनुमान कौन है ?


शिव जी मुस्कुराते हुए रावण की बात सुनते रहते हैं। और फिर बताते हैं कि रावण यह हनुमान और कोई नहीं मेरा ही रूद्र अवतार है।


विष्णु ने जब यह निश्चय किया कि वे पृथ्वी पर अवतार लेंगे और माता लक्ष्मी भी साथ ही अवतरित होंगी। तो मेरी इच्छा हुई कि मैं भी उनकी लीलाओं का साक्षी बनूं।


और जब मैंने अपना यह निश्चय पार्वती को बताया तो वह हठ कर बैठी कि मैं भी साथ ही रहूंगी। लेकिन यह समझ नहीं आया कि उसे इस लीला में किस तरह भागीदार बनाया जाए।


तब सभी देवताओं ने मिलकर मुझे यह मार्ग बताया। आप तो बंदर बन जाइये और शक्ति स्वरूपा पार्वती देवी आपकी पूंछ के रूप में आपके साथ रहे, तभी आप दोनों साथ रह सकते हैं।


और उसी अनुरूप मैंने हनुमान के रूप में जन्म लेकर राम जी की सेवा का व्रत रख लिया और शक्ति रूपा पार्वती ने पूंछ के रूप में और उसी सेवा के फल स्वरूप तुम्हारी लंका का दहन किया।


अब सुनो रावण! तुम्हारे उद्धार का समय आ गया है। अतः श्री राम के हाथों तुम्हारा उद्धार होगा। मेरा परामर्श है कि तुम युद्ध के लिए सबसे अंत में प्रस्तुत होना। जिससे कि तुम्हारा समस्त राक्षस परिवार भगवान श्री राम के हाथों से मोक्ष को प्राप्त करें और तुम सभी का उद्धार हो जाए।


*रावण को सारी परिस्थिति का ज्ञान होता है और उस अनुरूप वह युद्ध की तैयारी करता है और अपने पूरे परिवार को राम जी के समक्ष युद्ध के लिए पहले भेजता है और सबसे अंत में स्वयं मोक्ष को प्राप्त होता है।



#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 


हनुमान जी की अनसुनी रोचक कहानी 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

क्यों नहीं किए जाते हैं शुभ कार्य ?... श्राद्ध पक्ष के समय


श्राद्ध पक्ष के समय क्यों नहीं किए जाते हैं शुभ कार्य ?



श्राद्ध पितृत्व के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। सनातन धर्मानुसार प्रत्येक शुभ कार्य के आरंभ करने से पहले में मां-बाप तथा पितृगण को प्रणाम करना हमारा धर्म है। क्योंकि हमारे पुरखों की वंश परंपरा के कारण ही हम आज जीवित रहे हैं। सनातन धर्म के मतानुसार हमारे ऋषिमुनियों ने हिंदू वर्ष में सम्पादित 24 पक्षों में से एक पक्ष को पितृपक्ष अर्थात श्राद्धपक्ष का नाम दिया। पितृपक्ष में हम अपने पितृगण का श्राद्धकर्म, अर्ध्य, तर्पणतथा पिण्डदान के माध्यम से विशेष क्रिया संपन्न करते हैं। धर्मानुसार पितृगण की आत्मा को मुक्ति तथा शांति प्रदान करने हेतु विशिष्ट कर्मकाण्ड को 'श्राद्ध' कहते हैं।


श्राद्धपक्ष में शुभकार्य वर्जित क्यों

हमारी संस्कृति में श्राद्ध का संबंध हमारे पूर्वजों की मृत्यु की तिथि से है। अतः श्राद्धपक्ष शुभ तथा नए कार्यों के प्रारंभ हेतु अशुभ काल माना गया है। जिस प्रकार हम अपने किसी परिजन की मृत्यु के बाद शोकाकुल अवधि में रहते हैं तथा शुभ, नियमित, मंगल, व्यावसायिक कार्यों को एक समय अविधि तक के लिए रोक देते हैं। उसी प्रकार पितृपक्ष में भी शुभ कार्यों पर रोक लग जाती है। श्राद्धपक्ष की 16 दिनों की समय अवधि में हम अपने पितृगण से तथा हमारे पितृगण हमसे जुड़े रहते हैं। अत: शुभ-मांगलिक कार्यों को वंचित रखकर हम पितृगण के प्रति पूरा सम्मान व एकाग्रता बनाए रखते हैं।


धर्मशास्त्रों के मतानुसार पितृऋण

शास्त्रों के अनुसार मनुष्य योनी में जन्म लेते ही व्यक्ति पर तीन प्रकार के ऋण समाहित हो जाते हैं। इन तीन प्रकार के ऋणों में से एक ऋण है पितृऋण अत: धर्मशास्त्रों में पितृपक्ष में श्राद्धकर्म के अर्ध्य, तर्पण तथा पिण्डदान के माध्यम से पितृऋण से मुक्ति पाने का रास्ता बतलाया गया है।


पितृऋण से मुक्ति पाए बिना व्यक्ति का कल्याण होना असंभव है। शास्त्रानुसार पृथ्वी से ऊपर सत्य, तप, महा, जन, स्वर्ग, भुव:, भूमि ये सात लोक माने गए हैं। इन सात लोकों में से भुव: लोक को पितृलोक माना गया है। 


श्राद्धपक्ष की सोलह दिन की अवधी में पितृगण पितृलोक से चलकर भूलोक को आ जाते हैं। इन सोलह दिन की समयावधि में पितृलोक पर जल का अभाव हो जाता है, अतः पितृपक्ष में पितृगण पितृलोक से भूलोक आकार अपने वंशजो से तर्पण करवाकर तृप्त होते हैं। अतः यह विचारणीय विषय है कि जब व्यक्ति पर ऋण अर्थात कर्जा हो तो वो खुशी मनाकर शुभकार्य कैसे सम्पादित कर सकता है। पितृऋण के कारण ही पितृपक्ष में शुभकार्य नहीं किए जाते। पितृऋण से मुक्तिः शास्त्र कहते हैं की पितृऋण से मुक्ति के लिए श्राद्ध से बढ़कर कोई कर्म नहीं है। श्राद्धकर्म का अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में सर्वाधिक महत्व कहा गया है। इस समय सूर्य पृथ्वी के नजदीक रहते हैं, जिससे पृथ्वी पर पितृगण का प्रभाव अधिक पड़ता है इसलिए इस पक्ष में कर्म को महत्वपूर्ण माना गया है। 


शास्त्रों के अनुसार एक श्लोक इस प्रकार है। 


एवं विधानतः श्राद्धं कुर्यात् स्वविभावोचितम्। 

आब्रह्मस्तम्बपर्यंतं जगत् प्रीणाति मानवः ॥ 


अर्थात् - जो व्यक्ति विधिपूर्वक श्राद्ध करता है| वह ब्रह्मा से लेकर घास तक सभी प्राणियों को संतृप्त कर देता है तथा अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्ति पाता है। अतः स्वयं पर पितृत्व के कर्जों के मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।




 #आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 


पितृ पक्ष में कौवों को भोजन कराने का महत्व

 

पितृ पक्ष में कौवों को भोजन कराने का महत्व



हिंदू धर्म में पितृपक्ष का काफी महत्व होता है| इस साल पितृपक्ष 18 सितंबर से 02 अक्टूबर तक चलेगा| पितृ पक्ष में पित्तरों का श्राद्ध और तर्पण किया जाता है| इसके साथ ही इस दिन कौवों को भी भोजन कराया जाता है| इस दिन कौवों को भोजन कराना काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। पितृपक्ष में पित्तरों का श्राद्ध और तर्पण करना जरूरी माना जाता है| यदि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो उसे पित्तरों का श्राप लगता है| लेकिन शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध करने के बाद जितना जरूरी भांजे और ब्राह्मण को भोजन कराना होता है, उतना ही जरूरी कौवों को भोजन कराना होता है| माना जाता है कि कौवे इस समय में हमारे पित्तरों का रूप धारण करके पृथ्वीं पर उपस्थित रहते हैं| 


इसके पीछे एक पौराणिक कथा जुड़ी है जो कि इस प्रकार है

 इन्द्र के पुत्र जयन्त ने ही सबसे पहले कौवे का रूप धारण किया था| यह कथा त्रेतायुग की है, जब भगवान श्रीराम ने अवतार लिया और जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मारा था| तब भगवान श्रीराम ने तिनके का बाण चलाकर जयंत की आंख फोड़ दी थी| जब उसने अपने किए की माफी मांगी, तब राम ने उसे यह वरदान दिया कि तुम्हें अर्पित किया भोजन पितरों को मिलेगा| तभी से श्राद्ध में कौवों को भोजन कराने की परंपरा चली आ रही है| यही कारण है कि श्राद्ध पक्ष में कौवों को ही पहले भोजन कराया जाता है। इसी कारण कौवों को न तो मारा जाता है और न हीं किसी भी रूप से सताया जाता है| यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसे पित्तरों के श्राप के साथ- साथ अन्य देवी देवताओं के क्रोध का भी सामना करना पड़ता है और उन्हें जीवन में कभी भी किसी भी प्रकार की कोई सुख और शांति प्राप्ति नहीं होती है।


पितर पक्ष के समय पंच बली जरूर निकाले 

 चींटी, गाय, कौआ, कुत्ता, देवादि बलि यह जरूर करनी चाहिए।


कौवे से जुड़े शकुन और अपशकुन का रहस्य

प्राचीन समय के ऋषियों मुनियों ने अपने शोध में बताया था की प्रत्येक जानवर के विचित्र व्यवहार एवं हरकतों का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य होता है| जानवरों के संबंध में अनेको बाते  हमारे पुराणों एवं ग्रंथो में भी विस्तार से बतलाई गई है।


हमारे सनातन धर्म में माता के रूप में पूजनीय गाय के संबंध में तो बहुत सी बाते आप लोग जानते है होंगे परन्तु आज हम जानवरों के संबंध में पुराणों से ली गई कुछ ऐसी बातो के बारे में बतायेंगे जो आपने पहले कभी भी किसी से नहीं सुनी होगी| जानवरों से जुड़े रहस्यों के संबंध में पुराणों में बहुत ही विचित्र बाते बतलाई गई जो किसी को आश्चर्य में डाल देंगी।

 

कौए का रहस्य 

कौए के संबंध में पुराणों बहुत ही विचित्र बाते बतलाई गई है मान्यता है की कौआ अतिथि आगमन का सूचक एवं पितरो का आश्रम स्थल माना जाता है।


हमारे धर्म ग्रन्थ की एक कथा के अनुसार इस पक्षी ने देवताओ और राक्षसों के द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत का रस चख लिया था| यही कारण है की कौआ की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती| यह पक्षी कभी किसी बिमारी अथवा अपने वृद्धा अवस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता| इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से होती है।


यह बहुत ही रोचक है की जिस दिन कौए की मृत्यु होती है उस दिन उसका साथी भोजन ग्रहण नहीं करता| ये आपने कभी ख्याल किया हो तो यह बात गौर देने वाली है की कौआ कभी भी अकेले में भोजन ग्रहण नहीं करता यह पक्षी किसी साथी के साथ मिलकर ही भोजन करता है।


कौआ की लम्बाई करीब 20  इंच होता है, तथा यह गहरे काले रंग का पक्षी है| जिनमे नर और मादा दोनों एक समान ही दिखाई देते है| यह बगैर थके मिलो उड़ सकता है| कौए के बारे में पुराण में बतलाया गया है की किसी भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पूर्व ही हो जाता है| 


पितरो का आश्रय स्थल

 श्राद्ध पक्ष में कौए का महत्व बहुत ही अधिक माना गया है| इस पक्ष में यदि कोई भी व्यक्ति कौआ को भोजन कराता है तो यह भोजन कौआ के माध्यम से उसके पीतर ग्रहण करते है| शास्त्रों में यह बात स्पष्ट बतलाई गई है की कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है।


भादौ महीने के 16 दिन कौआ हर घर की छत का मेहमान बनता है| ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं| कौए एवं पीपल को पितृ प्रतीक माना जाता है| इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है।


कौवे से जुड़े शकुन और अपशकुन


1 . यदि आप शनिदेव को प्रसन्न करना चाहते हो कौआ को भोजन करना चाहिए।


2 . यदि आपके मुंडेर पर कोई कौआ बोले तो मेहमान अवश्य आते है।


3 . यदि कौआ घर की उत्तर दिशा से बोले तो समझे जल्द ही आप पर लक्ष्मी की कृपा होने वाली है।


4 . पश्चिम दिशा से बोले तो घर में मेहमान आते है।


5 . पूर्व में बोले तो शुभ समाचार आता है।


6 . दक्षिण दिशा से बोले तो बुरा समाचार आता है।


7 . कौवे को भोजन कराने से अनिष्ट व शत्रु का नाश होता है।



#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 



बुधवार, 11 सितंबर 2024

दिल छू लेने वाली कहानी... काश हर बच्चा बड़ों से इसी तरह प्यार करता

पिता के हाथ के निशान

                 

पिता जी बूढ़े हो गए थे और चलते समय दीवार का सहारा लेते थे। नतीजतन, दीवारें जहाँ भी छूती थीं, वहाँ रंग उड़ जाता था और दीवारों पर उनके उंगलियों के निशान पड़ जाते थे।


मेरी पत्नी ने यह देखा और अक्सर गंदी दिखने वाली दीवारों के बारे में शिकायत करती थी।


एक दिन, उन्हें सिरदर्द हो रहा था, इसलिए उन्होंने अपने सिर पर थोड़ा तेल मालिश किया। इसलिए चलते समय दीवारों पर तेल के दाग बन गए।


मेरी पत्नी यह देखकर मुझ पर चिल्लाई। और मैंने भी अपने पिता पर चिल्लाया और उनसे बदतमीजी से बात की, उन्हें सलाह दी कि वे चलते समय दीवारों को न छुएँ।


वे दुखी लग रहे थे। मुझे भी अपने व्यवहार पर शर्म आ रही थी, लेकिन मैंने उनसे कुछ नहीं कहा।


पिता जी ने चलते समय दीवार को पकड़ना बंद कर दिया। और एक दिन गिर पड़े। वे बिस्तर पर पड़ गए और कुछ ही समय में हमें छोड़कर चले गए। मुझे अपने दिल में अपराधबोध महसूस हुआ और मैं उनके भावों को कभी नहीं भूल पाया और कुछ ही समय बाद उनके निधन के लिए खुद को माफ़ नहीं कर पाया।


कुछ समय बाद, हम अपने घर की पेंटिंग करवाना चाहते थे।  जब पेंटर आए, तो मेरे बेटे ने, जो अपने दादा को बहुत प्यार करता था, पेंटर को पिता के फिंगरप्रिंट साफ करने और उन जगहों पर पेंट करने की अनुमति नहीं दी।


पेंटर बहुत अच्छे और नए थे। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि वे मेरे पिता के फिंगरप्रिंट/हाथ के निशान नहीं मिटाएंगे, बल्कि इन निशानों के चारों ओर एक सुंदर घेरा बनाकर एक अनूठी डिजाइन बनाएंगे।


इसके बाद यह सिलसिला चलता रहा और वे निशान हमारे घर का हिस्सा बन गए। हमारे घर आने वाला हर व्यक्ति हमारे अनोखे डिजाइन की प्रशंसा करता था।


समय के साथ, मैं भी बूढ़ा हो गया।


अब मुझे चलने के लिए दीवार के सहारे की जरूरत थी। एक दिन चलते समय, मुझे अपने पिता से कहे गए शब्द याद आ गए और मैंने बिना सहारे के चलने की कोशिश की। मेरे बेटे ने यह देखा और तुरंत मेरे पास आया और मुझे दीवार का सहारा लेने के लिए कहा, चिंता व्यक्त करते हुए कि मैं बिना सहारे के गिर जाऊंगा, मैंने महसूस किया कि मेरा बेटा मुझे पकड़ रहा था।


मेरी पोती तुरंत आगे आई और प्यार से, मुझे सहारा देने के लिए अपना हाथ उसके कंधे पर रखने के लिए कहा। मैं लगभग चुपचाप रोने लगा। अगर मैंने अपने पिता के लिए भी ऐसा ही किया होता, तो वे लंबे समय तक जीवित रहते।


 मेरी पोती मुझे साथ ले गई और सोफे पर बैठा दिया।

फिर उसने मुझे दिखाने के लिए अपनी ड्राइंग बुक निकाली।

उसकी शिक्षिका ने उसकी ड्राइंग की प्रशंसा की और उसे बेहतरीन टिप्पणियाँ दीं।

स्केच दीवारों पर मेरे पिता के हाथ के निशान का था।

स्केच के नीचे शीर्षक लिखा था..

“काश हर बच्चा बड़ों से इसी तरह प्यार करता”।


मैं अपने कमरे में वापस आ गया और अपने पिता से माफ़ी मांगते हुए फूट-फूट कर रोने लगा, जो अब इस दुनिया में नहीं थे।


हम भी समय के साथ बूढ़े हो जाते हैं। आइए अपने बड़ों का ख्याल रखें।


दिल छू लेने वाली कहानी 




#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 


समझदार दोस्त

 

समझदार दोस्त


बहुत समय पहले की बात है| दो अरबी दोस्तों को एक बहुत बड़े खजाने का नक्शा मिला| खजाना किसी रेगिस्तान के बीचो-बीच था।


दोनों ने योजना बनाना शुरू की| खजाने तक पहुँचने के लिए बहुत लम्बा समय लगता और रास्ते में भूख- प्यास से  मर जाने का भी खतरा था। बहुत विचार करने पर दोनों ने तय किया कि इस योजना में एक और समझदार दोस्त को शामिल किया जाए, ताकि वे एक और ऊंट अपने साथ ले जा सकें जिस पर खाने-पीने का ढेर सारा सामान भी आ जाए और खजाना अधिक होने पर वे उसे ऊंट पर ढो भी सकें।


पर सवाल ये उठा कि चुनाव किसका किया जाए?


बहुत सोचने के बाद गुरु और बबलू को चुना गया। दोनों हर तरह से बिलकुल एक तरह के थे और कहना मुश्किल था कि दोनों में अधिक बुद्धिमान कौन है? इसलिए एक प्रतियोगिता के जरिये सही व्यक्ति का चुनाव करने का फैसला किया गया।


दोनों दोस्तों ने उन्हें एक निश्चित स्थान पर बुलाया और बोले, “आप लोगों को अपने-अपने ऊंट पर सवार होकर सामने दिख रहे रास्ते पर आगे बढ़ना है| कुछ दूर जाने के बाद ये रास्ता दो अलग-अलग रास्तों में बंट जाएगा- एक सही और एक गलत। जो इंसान सही रास्ते पर जाएगा वही हमारा तीसरा साथी बनेगा और खजाने का एक-तिहाई हिस्सा उसका होगा।”


दोनों ने आगे बढ़ना शुरू किया और उस बिंदु पे पहुँच गए जहाँ से रास्ता बंटा हुआ था।


वहां पहुँच कर गुरु ने इधर-उधर देखा, उसे दोनों रास्तों में कोई अंतर समझ नहीं आया और वह जल्दी से बांये तरफ बढ़ गया| जबकि, बबलू बहुत देर तक उन रास्तों की ओर देखता रहा और उन पर आगे बढ़ने के नतीजे के बारे में सोचता रहा।


करीब 1 घंटे बाद बायीं ओर के रास्ते पर धूल उड़ती दिखाई दी। गुरु बड़ी तेजी से उस रास्ते पर वापस आ रहा था।


उसे देखते ही बबलू मुस्कुराया और बोला, “गलत रास्ता ?”


“हाँ, शायद!”, गुरु ने जवाब दिया|


दोनों दोस्त छुप कर यह सब देख रहे थे और वे तुरंत उनके सामने आये और बोले, “बधाई हो!


“शुक्रिया!”, बबलू ने फ़ौरन जवाब दिया।


“तुम्हे नहीं, हमने गुरु को चुना है.”, दोनों दोस्त एक साथ बोले।


“पर गुरु तो गलत रास्ते पर आगे बढ़ा था… फिर उसे क्यों चुना जा रहा है?”,बबलू गुस्से में बोला।


“क्योंकि उसने ये पता लगा लिया कि गलत रास्ता कौन है और अब वो सही रास्ते पर आगे जा सकता है| जबकि तुमने पूरा वक़्त बस एक जगह बैठ कर यही सोचने में गँवा दिया कि कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत। समझदारी किसी चीज के बारे में ज़रूरत से ज्यादा सोचने में नहीं बल्कि एक समय के बाद उस पर काम करने और तजुर्बे से सीख लेने में है| दोस्तों ने अपनी बात पूरी की, और खजाने की तरफ चल दिये, बबलू बैठा बैठा वही पछताता रहा..!!


हमारे जीवन में भी कभी न कभी ऐसा स्थान(समय) आता है जहाँ हम निर्णय नहीं कर पाते कि कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत| और ऐसे में बहुत से लोग बस सोच-विचार करने में अपना काफी समय बर्बाद कर देते हैं, जबकि ज़रुरत इस बात की है कि चीजों को विश्लेषण करने की बजाय गुरु की तरह अपने विकल्प को समझ करके निर्णय लिया जाए और अपने अनुभव के आधार पर आगे बढ़ा जाए..!


राधाअष्टमी... विशेष राधा जी के 28 नामो को जानिए

राधाअष्टमी


 जो मांगोगे वही मिलेगा: प्रेमानंद जी महाराज


वृंदावन में राधारानी और भगवान कृष्ण की सेवा और भजन-कीर्तन में लीन कथावाचक प्रेमानंद जी महाराज के अनुसार, राधारानी के 28 नाम के जाप करने से सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है। वे कहते हैं कि राधारानी के ये 28 नाम महामंत्र है| जिनको जपने के बाद चाहे वह कोई लौकिक चीज हो या पारलौकिक, जो मांगोगे वही मिलेगा। 


आइए जानते हैं, राधा जी ये 28 नाम क्या हैं?


राधा रानी के 28 नाम

भगवान कृष्ण की सहचरी राधा जी बरसाना के गोपों राजा वृषभानु की पुत्री थी। इसलिए वे वृषभानुसुता कहलाती हैं, जो उनके 28 पवित्र नामों से एक है। राधा जी के जिन 28 नामों से उनका गुणगान किया जाता है, वे इस प्रकार हैं:

 1. राधा, 

 2. रासेश्वरी,

 3. रम्या, 

 4. कृष्णमत्राधिदेवता,

 5. सर्वाद्या,

 6. सर्ववंद्या,

 7. वृंदावनविहारिणी,

 8. वृंदाराधा,

 9. रमा,

 10. अशेषगोपीमंडलपूजिता,

 11. सत्या.

 12. सत्यपरा,

 13. सत्यभामा,

 14. श्रीकृष्णवल्लभा,

 15. वृषभानुसुता,

 16. गोपी,

 17. मूल प्रकृति,

 18. ईश्वरी,

 19. गान्धर्वा,

 20. राधिका,

 21. राम्या,

 22. रुक्मिणी,

 23. परमेश्वरी,

 24. परात्परतरा,

 25. पूर्णा,

 26. पूर्णचन्द्रविमानना,

 27. भुक्ति-मुक्तिप्रदा,

 28. भवव्याधि-विनाशिनी,


प्रेमानंद जी महाराज के अनुसार, जो इन 28 नामों को भजते हैं, उनको विश्व की ऐसी कोई इच्छा नहीं है, जो पूरी नहीं हो जाए।


राधाअष्टमी विशेष राधा जी के 28 नामो को जानिए 

#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 


शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) की संपूर्ण व्रत कथा, विधि विधान, पूजा मुहूर्त

 


हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) व्रत 

हरतालिका तीज (गौरी तृतीया)



हरतालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं। यह तीज का त्यौहार भाद्रपद मास शुक्ल की तृतीया तिथि को मनाया जाता हैं। 

यह आमतौर पर अगस्त-सितम्बर के महीने में ही आती है। इसे गौरी तृतीया व्रत भी कहते है। भगवान शिव और पार्वती को समर्पित है। खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्यौहार मनाया जाता हैं। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरतालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया हैं।

विधि-विधान से हरितालिका तीज का व्रत करने से जहाँ कुंवारी कन्याओं को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है| वहीं विवाहित महिलाओं को अखंड सौभाग्य मिलता है।

 हरतालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी एवम गणेश जी की पूजा का महत्व हैं। यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता हैं। शिव जैसा पति पाने के लिए कुँवारी कन्या इस व्रत को विधि विधान से करती हैं।


क्यों कहते हैं हरतालिका

यह दो शब्दों के मेल से बना माना जाता है हरत एवं आलिका। हरत का तात्पर्य हरण से लिया जाता है और आलिका सखियों को संबोंधित करता है। मान्यता है कि इस दिन सखियां माता पार्वती की सहेलियां उनका हरण कर उन्हें जंगल में ले गई थीं। जहां माता पार्वती ने भगवान शिव को वर रूप में पाने के लिये कठोर तप किया था। तृतीया तिथि को तीज भी कहा जाता है। हरतालिका तीज के पीछे एक मान्यता यह भी है कि जंगल में स्थित गुफा में जब माता भगवान शिव की कठोर आराधना कर रही थी तो उन्होंने रेत के शिवलिंग को स्थापित किया था। मान्यता है कि यह शिवलिंग माता पार्वती द्वारा हस्त नक्षत्र में भाद्रपद शुक्ल तृतीया तिथि को स्थापित किया था इसी कारण इस दिन को हरियाली तीज के रूप में मनाया जाता है।

 


क्यों किया गया था माता पार्वती का हरण

दरअसल माता पार्वती के कठोर तप से उनकी दशा बहुत खराब रहने लगी थी उनके पिता उनकी इस दशा से काफी परेशान थे। एक दिन नारद जी ने उन्हें आकर कहा कि पार्वती के कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु आपकी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं। नारद मुनि की बात सुनकर गिरीराज बहुत प्रसन्न हुए। उधर भगवान विष्णु के सामने जाकर नारद मुनि बोले कि गिरीराज पार्वती से आपका विवाह करवाना चाहते हैं। भगवान विष्णु ने भी इसकी अनुमति दे दी। फिर माता पार्वती के पास जाकर नारद जी ने सूचना दी कि आपके पिता ने आपका विवाह भगवान विष्णु से तय कर दिया है। यह सुनकर पार्वती बहुत निराश हुई उन्होंने अपनी सखियों से अनुरोध कर उसे किसी एकांत गुप्त स्थान पर ले जाने को कहा। माता पार्वती की इच्छानुसार उनके पिता गिरीराज की नज़रों से बचाकर उनकी सखियां माता पार्वती को घने सुनसान जंगल में स्थित एक गुफा में छोड़ आयीं।

यहीं रहकर उन्होंने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिये कठोर तप शुरु किया जिसके लिये उन्होंने रेत के शिवलिंग की स्थापना की। संयोग से हस्त नक्षत्र में भाद्रपद शुक्ल तृतीया का वह दिन था जब माता पार्वती ने शिवलिंग की स्थापना की। इस दिन निर्जला उपवास रखते हुए उन्होंने रात्रि में जागरण भी किया। उनके कठोर तप से भगवान शिव प्रसन्न हुए माता पार्वति को उनकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया। अगले दिन अपनी सखी के साथ माता पार्वती ने व्रत का पारण किया और समस्त पूजा सामग्री को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। उधर माता पार्वती के पिता अपनी भगवान विष्णु से पार्वती के विवाह का वचन दिये जाने के पश्चात पुत्री के अक्समात घर छोड़ देने से व्याकुल थे। पार्वती को तलाशते तलाशते वे उस स्थान तक आ पंहुचे इसके पश्चात माता पार्वती ने उन्हें अपने घर छोड़ देने का कारण बताया और भगवान शिव से विवाह करने के अपने संकल्प और शिव द्वारा मिले वरदान के बारे में बताया। तब पिता गिरीराज भगवान विष्णु से क्षमा मांगते हुए भगवान शिव से अपनी पुत्री के विवाह को राजी हुए।



महिलाओं में संकल्प शक्ति बढाता है हरितालिका तीज का व्रत

हरितालिका तीज का व्रत महिला प्रधान है। इस दिन महिलायें बिना कुछ खायें -पिये व्रत रखती है। यह व्रत संकल्प शक्ती का एक अनुपम उदाहरण है। संकल्प अर्थात किसी कर्म के लिये मन मे निश्चित करना कर्म का मूल संकल्प है। इस प्रकार संकल्प हमारी अन्तरीक शक्तियोंका सामोहिक निश्चय है। इसका अर्थ है- व्रत संकल्प से ही उत्पन्न होता है। व्रत का संदेश यह है कि हम जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प लें। संकल्प शक्ति के आगे असंम्भव दिखाई देता लक्ष्य संम्भव हो जाता है। माता पार्वती ने जगत को दिखाया की संकल्प शक्ति के सामने ईश्वर भी झुक जाता है।

अच्छे कर्मो का संकल्प सदा सुखद परिणाम देता है। इस व्रत का एक सामाजिक संदेश विषेशतः महिलाओं के संदर्भ मे यह है कि आज समाज मे महिलायें बिते समय की तुलना मे अधिक आत्मनिर्भर व स्वतंत्र है। महिलाओं की भूमिका मे भी बदलाव आये है। घर से बाहर निकलकर पुरुषों की भाँति सभी कार्य क्षेत्रों मे सक्रिय है। ऎसी स्थिति मे परिवार व समाज इन महिलाओं की भावनाओ एवं इच्छाओं का सम्मान करें, उनका विश्वास बढाएं, ताकि स्त्री व समाज सशक्त बनें।



हरतालिका तीज व्रत विधि और नियम 


हरतालिका पूजन प्रदोष काल में किया जाता हैं। प्रदोष काल अर्थात दिन रात के मिलने का समय। सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त को प्रदोषकाल कहा जाता है। हरतालिका पूजन के लिए शिव, पार्वती, गणेश एव रिद्धि सिद्धि जी की प्रतिमा बालू रेत अथवा काली मिट्टी से बनाई जाती हैं।


विविध पुष्पों से सजाकर उसके भीतर रंगोली डालकर उस पर चौकी रखी जाती हैं। चौकी पर एक अष्टदल बनाकर उस पर थाल रखते हैं। उस थाल में केले के पत्ते को रखते हैं। सभी प्रतिमाओ को केले के पत्ते पर रखा जाता हैं। सर्वप्रथम शुद्ध घी का दीपक जलाएं। तत्पश्चात सीधे (दाहिने) हाथ में अक्षत रोली बेलपत्र, मूंग, फूल और पानी लेकर इस मंत्र से संकल्प करें -


"उमामहेश्वरसायुज्य सिद्धये हरितालिका व्रत महं करिष्ये"।


इसके बाद कलश के ऊपर नारियल रखकर लाल कलावा बाँध कर पूजन किया जाता हैं  कुमकुम, हल्दी, चावल, पुष्प चढ़ाकर विधिवत पूजन होता हैं। कलश के बाद गणेश जी की पूजा की जाती हैं।


उसके बाद शिव जी की पूजा जी जाती हैं। तत्पश्चात माता गौरी की पूजा की जाती हैं। उन्हें सम्पूर्ण श्रृंगार चढ़ाया जाता हैं। इसके बाद अन्य देवताओं का आह्वान कर षोडशोपचार पूजन किया जाता है। 


इसके बाद हरतालिका व्रत की कथा पढ़ी जाती हैं। इसके पश्चात आरती की जाती हैं जिसमे सर्वप्रथम गणेश जी की पुनः शिव जी की फिर माता गौरी की आरती की जाती हैं। इस दिन महिलाएं रात्रि जागरण भी करती हैं और कथा-पूजन के साथ कीर्तन करती हैं। प्रत्येक प्रहर में भगवान शिव को सभी प्रकार की वनस्पतियां जैसे बिल्व-पत्र, आम के पत्ते, चंपक के पत्ते एवं केवड़ा अर्पण किया जाता है। आरती और स्तोत्र द्वारा आराधना की जाती है। हरतालिका व्रत का नियम हैं कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता।


प्रातः अन्तिम पूजा के बाद माता गौरी को जो सिंदूर चढ़ाया जाता हैं उस सिंदूर से सुहागन स्त्री सुहाग लेती हैं। ककड़ी एवं हलवे का भोग लगाया जाता हैं। उसी ककड़ी को खाकर उपवास तोडा जाता हैं। अंत में सभी सामग्री को एकत्र कर पवित्र नदी एवं कुण्ड में विसर्जित किया जाता हैं।


भगवती-उमा की पूजा के लिए ये मंत्र बोलना चाहिए 


ऊं उमायै नम:

ऊं पार्वत्यै नम:

ऊं जगद्धात्र्यै नम:

ऊं जगत्प्रतिष्ठयै नम:

ऊं शांतिरूपिण्यै नम:

ऊं शिवायै नम:


भगवान शिव की आराधना इन मंत्रों से करनी चाहिए 


ऊं हराय नम:

ऊं महेश्वराय नम:

ऊं शम्भवे नम:

ऊं शूलपाणये नम:

ऊं पिनाकवृषे नम:

ऊं शिवाय नम:

ऊं पशुपतये नम:

ऊं महादेवाय नम:


निम्न नामो का उच्चारण कर बाद में पंचोपचार या सामर्थ्य हो तो षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है। पूजा दूसरे दिन सुबह समाप्त होती है, तब महिलाएं द्वारा अपना व्रत तोडा जाता है और अन्न ग्रहण किया जाता है।


हरितालका तीज पूजा मुहूर्त


हरितालिका पूजन प्रातःकाल ना करके प्रदोष काल यानी सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त में किया जाना ही शास्त्रसम्मत है।


प्रदोषकाल निकालने के लिये आपके स्थानीय सूर्यास्त में आगे के 96 मिनट जोड़ दें तो यह एक घंटे 36 मिनट के लगभग का समय प्रदोष काल माना जाता है।


प्रातःकाल हरितालिका पूजा मुहूर्त- प्रातः 05:57 से 08:28 तक।


प्रदोष काल मुहूर्त - सायं 06:15 से 06:41 तक 


पारण अगले दिन 07 सितम्बर के सूर्योदय से पहले स्नान करने के बाद करना उत्तम रहेगा।



हरतालिका व्रत पूजन की सामग्री


1- फुलेरा विशेष प्रकार से फूलों से सजा होता है।


2- गीली काली मिट्टी अथवा बालू रेत।


3- केले का पत्ता।


4- विविध प्रकार के फल एवं फूल पत्ते।


5- बेल पत्र, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, तुलसी मंजरी।


6- जनेऊ , नाडा, वस्त्र,।


7- माता गौरी के लिए पूरा सुहाग का सामग्री, जिसमे चूड़ी, बिछिया, काजल, बिंदी, कुमकुम, सिंदूर, कंघी, महावर, मेहँदी आदि एकत्र की जाती हैं। इसके अलावा बाजारों में सुहाग पूड़ा मिलता हैं जिसमे सभी सामग्री होती हैं।


8- घी, तेल, दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर, अबीर, चन्दन, नारियल, कलश।


9- पञ्चामृत - घी, दही, शक्कर, दूध, शहद।



हरतालिका तीज व्रत कथा


भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी।


श्री भोलेशंकर बोले- हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर व्यतीत किए। माघ की विक्राल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया।


तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बड़े दुखी होते थे। उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण पूछा।


नारदजी ने कहा- गिरिराज! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूं।


नारदजी की बात सुनकर गिरिराज गद्‍गद हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही दूर हो गए। प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान्‌! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। हे महर्षि! यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।


तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार सुनाया। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा। 


तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा। तब तुमने बताया - मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया। मैं विचित्र धर्म-संकट में हूं। अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी। 


उसने कहा- सखी! प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं। वहां तुम साधना में लीन हो जाना। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।


तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।


इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन थीं। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा।


तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा - मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर आप यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।


तब मैं 'तथास्तु' कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया। प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा किया। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा। उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।


तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।


गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया। 


हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं। इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से करना चाहिए।


हर‍तालिका व्रत के विशेष सरल उपाय


1- देवी भागवत के अनुसार माता पार्वती का अभिषेक आम अथवा गन्ने के रस से किया जाए तो लक्ष्मी और सरस्वती ऐसे भक्त का घर छोड़कर कभी नहीं जातीं। वहां नित्य ही संपत्ति और विद्या का वास रहता है।


2-  शिवपुराण के अनुसार लाल व सफेद आंकड़े के फूल से शिव का पूजन करने पर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।


3- माता पार्वती को घी का भोग लगाएं तथा उसका दान करें। इससे रोगी को कष्टों से मुक्ति मिलती है तथा वह निरोगी होता है।


4- माता पार्वती को शक्कर का भोग लगाकर उसका दान करने से भक्त को दीर्घायु प्राप्त होती है। दूध चढ़ाकर दान करने से सभी प्रकार के दु:खों से मुक्ति मिलती है। मालपूआ चढ़ाकर दान करने से सभी प्रकार की समस्याएं स्वत: ही समाप्त हो जाती है।


5- हरतालिका व्रत के दिन शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव को चमेली के फूल चढ़ाने से वाहन सुख मिलता है। अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने से मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।


6- भगवान शिव की शमी पत्रों से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है। बेला के फूल से पूजन करने पर शुभ लक्षणों से युक्त पत्नी मिलती है। धतूरे के पुष्प के पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है। लाल डंठलवाला धतूरा पूजन में शुभ माना गया है।


7- भगवान शिव पर ईख (गन्ना) के रस की धारा चढ़ाई जाए तो सभी आनन्दों की प्राप्ति होती है। शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।


8- देवी भागवत के अनुसार वेद पाठ के साथ यदि कर्पूर, अगरु (सुगंधित वनस्पति), केसर, कस्तूरी व कमल के जल से माता पार्वती का अभिषेक करने से सभी प्रकार के पापों का नाश हो जाता है तथा साधक को थोड़े प्रयासों से ही सफलता मिलती है।


9- जूही के फूल से भगवान शिव का पूजन करने से घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती। दूर्वा से पूजन करने पर आयु बढ़ती है। कनेर के फूलों से शिव पूजन करने से नवीन वस्त्रों की प्राप्ति होती है। हरसिंगार के पुष्पों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।


10- देवी भागवत के अनुसार माता पार्वती को केले का भोग लगाकर दान करने से परिवार में सुख-शांति रहती है। शहद का भोग लगाकर दान करने से साधक को धन प्राप्ति के योग बनते हैं। गुड़ की वस्तुओं का भोग लगाकर दान करने से दरिद्रता का नाश होता है।


11- भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है। तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।


12- द्राक्षा (दाख) के रस से यदि माता पार्वती का अभिषेक किया जाए तो भक्तों पर देवी की कृपा बनी रहती है।


13- शिवपुराण के अनुसार जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है। भगवान शिव को गेंहू चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।


14- देवी भागवत के अनुसार माता पार्वती को नारियल का भोग लगाकर उसका दान करने से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। माता को विभिन्न प्रकार के अनाजों का भोग लगाकर गरीबों को दान करने से लोक-परलोक में श्री आनंद व वैभव मिलता है।


15- माता पार्वती का अभिषेक दूध से किया जाए तो व्यक्ति सभी प्रकार की सुख-समृद्धि का स्वामी बनता है।


(पंडितों और बुजुर्गों ,दन्त कथाओं पौराणिक पुस्कतों पर आधारित )

#आत्मनिरीक्षण, #भगवान, #सफलताएँ, #धर्मिककथा, #अनसुनीधर्मिककहानियाँ, #शिक्षाप्रदकहानी, #बालकहानियां, #पंचतंत्र, #हितोपदेश, #प्रेरणादायककहानी, #प्रेरककहानी, #कथा, #कहानी, #हिन्दूधर्म, #सनातनधर्म, #श्रीराम, #अयोध्या, #श्रीकृष्ण, #राधारानी, #मथुरा, #वृन्दावन, #बरसाना, #यमुना, #सरयू, #गंगा, #नर्मदा, #गोदावरी, 

क्या जानिये क्या है हरितालिका तीज पूजा मुहूर्त व्रत कथा 

हरितालिका तीज की संपूर्ण व्रत कथा, विधि विधान, पूजा मुहूर्त  





            

Impotant

रोचक कहानी संपत्ति बड़ी या संस्कार

       दक्षिण भारत में एक महान सन्त हुए तिरुवल्लुवर। वे अपने प्रवचनों से लोगों की समस्याओं का समाधान करते थे। इसलिए उन्हें सुनने के लिए दूर-...