गुरुवार, 29 अगस्त 2024

आश्चर्यचकित हो जायेंगे आप... कुत्ते, चींटी, और कौऐ के रहस्य को जानके ...


कौआ चींटी ओर कुत्ते का रहस्य



प्राचीन समय के ऋषियों मुनियों ने अपने शोध में बताया था की प्रत्येक जानवर के विचित्र व्यवहार एवं हरकतों का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य होता है| जानवरों के संबंध में अनेको बातें हमारे पुराणों एवं ग्रंथो में भी विस्तार से बतलाई गई है।


हमारे सनातन धर्म में माता के रूप में पूजनीय गाय के संबंध में तो बहुत सी बाते आप लोग जानते ही होंगे, परन्तु आज हम जानवरों के संबंध में पुराणों से ली गई कुछ ऐसी बातों के बारे में बतायेंगे जो आपने पहले कभी भी किसी से नहीं सुनी होगी| जानवरों से जुड़े रहस्यों के संबंध में पुराणों में बहुत ही विचित्र बाते बतलाई गई जो किसी को आश्चर्य में डाल देंगी।

 

कौए का रहस्य :- 


कौए के संबंध में पुराणों में बहुत ही विचित्र बाते बतलाई गई है| मान्यता है की कौआ अतिथि आगमन का सूचक एवं पितरो का आश्रम स्थल माना जाता है।


हमारे धर्म ग्रन्थ की एक कथा के अनुसार इस पक्षी ने देवताओ और राक्षसों के द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत का रस चख लिया था| यही कारण है की कौआ की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती| यह पक्षी कभी किसी बीमारी अथवा अपने वृद्धावस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता| इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से होती है।


यह बहुत ही रोचक है की जिस दिन कौए की मृत्यु होती है उस दिन उसका साथी भोजन ग्रहण नहीं करता| ये आपने कभी ख्याल किया हो तो यह बात गौर देने वाली है की कौआ कभी भी अकेले में भोजन ग्रहण नहीं करता यह पक्षी किसी साथी के साथ मिलकर ही भोजन करता है।


कौआ की लम्बाई करीब 20  इंच होती है तथा यह गहरे काले रंग का पक्षी है| जिनमे नर और मादा दोनों एक समान ही दिखाई देते है| यह बगैर थके मीलों उड़ सकता है| कौए के बारे में पुराण में बतलाया गया है कि किसी भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पूर्व ही हो जाता है।


पितरो का आश्रय स्थल :- श्राद्ध पक्ष में कौए का महत्व बहुत ही अधिक माना गया है| इस पक्ष में यदि कोई भी व्यक्ति कौआ को भोजन कराता है तो यह भोजन कौआ के माध्यम से उसके पितर ग्रहण करते है| शास्त्रों में यह बात स्पष्ट बतलाई गई है की कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है।


कुंवार महीने के 16 दिन कौआ हर घर की छत का मेहमान बनता है| ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं| कौए एवं पीपल को पितृ प्रतीक माना जाता है| इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है।


कौवे से जुड़े शकुन और अपशकुन :-


1 . यदि आप शनिदेव को प्रसन्न करना चाहते हो कौआ को भोजन करना चाहिए


2 . यदि आपके मुंडेर पर कोई कौआ बोले तो मेहमान अवश्य आते है।


3 . यदि कौआ घर की उत्तर दिशा से बोले तो समझे जल्द ही आप पर लक्ष्मी की कृपा होने वाली है।


4 . पश्चिम दिशा से बोले तो घर में मेहमान आते है।


5 . पूर्व में बोले तो शुभ समाचार आता है।


6 . दक्षिण दिशा से बोले तो बुरा समाचार आता है।


7 . कौवे को भोजन कराने से अनिष्ट व शत्रु का नाश होता है।


चीटियों का रहस्य :- 


चीटियों को हम एक बहुत तुच्छ एवं छोटा जानवर समझते है, परन्तु चीटियां बहुत ही मेहनती और एकता से रहने वाला जीव है| सामूहिक प्राणी होने के कारण चींटी सभी कार्यों को बांटकर करती है| 

विश्वभर में लगभग 14000 से अधिक प्रजाति की चीटियां है।


चींटी के बारे में वैज्ञानिकों ने कई रहस्य उजागर किए हैं| चींटियां आपस में बातचीत करती हैं, वे नगर बनाती हैं और भंडारण की समुचित व्यवस्था करना जानती हैं| हमारे इंजीनियरों से कहीं ज्यादा बेहतर होती हैं ‍चींटियां| चींटियों का नेटवर्क दुनिया के अन्य नेटवर्क्स से कहीं बेहतर होता है| ये मिलकर एक पहाड़ को काटने की क्षमता रखती है।


चींटियां शहर को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं| चींटियां खुद के वजन से 100 गुना ज्यादा वजन उठा सकती हैं| मानव को चींटियों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।


चीटियों दो प्रकार की होती है लाल चीटियां एवं काली चीटियां| शास्त्रों के अनुसार लाल चीटियां को शुभ तथा काली चीटियों को अशुभ माना गाय है| दोनों ही तरह की चींटियों को आटा डालने की परंपरा प्राचीनकाल से ही विद्यमान है| चींटियों को शकर मिला आटा डालते रहने से व्यक्ति हर तरह के बंधन से मुक्त हो जाता है।


हजारों चींटियों को प्रतिदिन भोजन देने से वे चींटियां उक्त व्यक्ति को पहचानकर उसके प्रति अच्छे भाव रखने लगती हैं और उसको वे दुआ देने लगती हैं| चींटियों की दुआ का असर आपको हर संकट से बचा सकता है।


 यदि आप कर्ज से परेशान है तो चीटियों को शक़्कर और आटा डाले ऐसा करने पर कर्ज की समाप्ति जल्द हो जाती है।


* जो प्रत्येक दिन चीटियों को आटा देता है वह वैकुंठ धाम को प्रस्थान करता है।


* यदि आप लाल चीटियों को मुंह में अंडे दबाए देखते हो तो यह भी शुभ माना जाता है तथा परिवार में सुख समृद्धि बढ़ती है।


कुत्ते का रहस्य :- 


हमारे पुराणों में यह बतलाई गई है की कुत्ता यमराज का दूत है|  कुत्ते को भैरव देवता का सेवक भी कहा जाता है| भैरव देवता को प्रसन्न करने के लिए कुत्ते को भोजन कराना चाहिए| यदि भैरव देवता अपने भक्त से प्रसन्न रहते है तो किसी भी प्रकार की समस्या एवं रोग उसे छू नहीं सकता।


मान्यता है की यदि आप कुत्ते को प्रसन्न रखते है तो वह आपके सामने किसी भी तरह की आत्माओं को फटकने नहीं देता| आत्माएं कुत्ते से दूर भागती है।


कुत्ते की क्षमता के बारे में पुराण में बतलाया गया है की दरअसल कुत्ता एक ऐसा प्राणी है जिसे भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्व आभास होता है तथा वह सूक्ष्म जगत को यानि की आत्माओं को देख सकता है।


हिन्दू धर्म में कुत्ते को एक रहस्मयी प्राणी माना गया है, परन्तु इसे भोजन कराने से हर प्रकार के संकट से बचा जा सकता है।


कुत्ते से जुड़े शकुन एवं अपशकुन :-


1 . कुत्ते की रोने की आवाज को अपशकुन माना जाता है| जब भी कुत्ता कराहता है तो समझ लीजिए की नकरात्मक शक्तियां आस पास है।


2 . शास्त्रों में कुत्ते के संबंध में यह बात कही गई की यदि किसी परिवार में रोगी हो तो कुत्ता पालने से वह रोगी की बीमारी को अपने उपार ले लेता है।


3 . यदि किसी शुभ कार्य के दौरान कुत्ता आपका मार्ग रोके तो इसे विषमता या अनिश्चय प्रकट होती है।


4 . यदि संतान की प्राप्ति न हो रही हो तो काले कुत्ते को पालना चाहिए।


आश्चर्यचकित हो जायेंगे आप कुत्ते, चींटी, और कौऐ के रहस्य को जानके ...... 

गुरुवार, 22 अगस्त 2024

घंटीधारी ऊंट....रोचक कहानी जरूर पढ़िए

घंटीधारी ऊंट



एक बार की बात हैं कि एक गांव में एक जुलाहा रहता था। वह बहुत गरीब था। उसकी शादी बचपन में ही हो गई ती। बीवी आने के बाद घर का खर्चा बढना था। यही चिन्ता उसे खाए जाती। फिर गांव में अकाल भी पडा। लोग कंगाल हो गए। जुलाहे की आय एकदम खत्म हो गई। उसके पास शहर जाने के सिवा और कोई चारा न रहा।

शहर में उसने कुछ महीने छोटे-मोटे काम किए। थोडा-सा पैसा अंटी में आ गया और गांव से खबर आने पर कि अकाल समाप्त हो गया हैं, वह गांव की ओर चल पडा। रास्ते में उसे एक जगह सडक किनारे एक ऊंटनी नजर आई। ऊटंनी बीमार नजर आ रही थी और वह गर्भवती थी। उसे ऊंटनी पर दया आ गई। वह उसे अपने साथ अपने घर ले आया।

घर में ऊंटनी को ठीक चारा व घास मिलने लगी तो वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और समय आने पर उसने एक स्वस्थ ऊंट बच्चे को जन्म दिया। ऊंट बच्चा उसके लिए बहुत भाग्यशाली साबित हुआ। कुछ दिनों बाद ही एक कलाकार गांव के जीवन पर चित्र बनाने उसी गांव में आया। पेंटिंग के ब्रुश बनाने के लिए वह जुलाहे के घर आकर ऊंट के बच्चे की दुम के बाल ले जाता। लगभग दो सप्ताह गांव में रहने के बाद चित्र बनाकर कलाकार चला गया।

इधर ऊंटनी खूब दूध देने लगी तो जुलाहा उसे बेचने लगा। एक दिन वहा कलाकार गांव लौटा और जुलाहे को काफी सारे पैसे दे गया, क्योंकि कलाकार ने उन चित्रों से बहुत पुरस्कार जीते थे और उसके चित्र अच्छी कीमतों में बिके थे। जुलाहा उस ऊंट बच्चे को अपना भाग्य का सितारा मानने लगा। कलाकार से मिली राशी के कुछ पैसों से उसने ऊंट के गले के लिए सुंदर-सी घंटी खरीदी और पहना दी। इस प्रकार जुलाहे के दिन फिर गए। वह अपनी दुल्हन को भी एक दिन गौना करके ले आया।

ऊंटों के जीवन में आने से जुलाहे के जीवन में जो सुख आया, उससे जुलाहे के दिल में इच्छा हुई कि जुलाहे का धंधा छोड क्यों न वह ऊंटों का व्यापारी ही बन जाए। उसकी पत्नी भी उससे पूरी तरह सहमत हुई। अब तक वह भी गर्भवती हो गई थी और अपने सुख के लिए ऊंटनी व ऊंट बच्चे की आभारी थी।

जुलाहे ने कुछ ऊंट खरीद लिए। उसका ऊंटों का व्यापार चल निकला।अब उस जुलाहे के पास ऊंटों की एक बडी टोली हर समय रहती। उन्हें चरने के लिए दिन को छोड दिया जाता। ऊंट बच्चा जो अब जवान हो चुका था उनके साथ घंटी बजाता जाता।

एक दिन घंटीधारी की तरह ही के एक युवा ऊंट ने उससे कहा “भैया! तुम हमसे दूर-दूर क्यों रहते हो?”

घंटीधारी गर्व से बोला “वाह तुम एक साधारण ऊंट हो। मैं घंटीधारी मालिक का दुलारा हूं। मैं अपने से ओछे ऊंटों में शामिल होकर अपना मान नहीं खोना चाहता।”

उसी क्षेत्र में वन में एक शेर रहता था। शेर एक ऊंचे पत्थर पर चढकर ऊंटों को देखता रहता था। उसे एक ऊंट और ऊंटों से अलग-थलग रहता नजर आया। जब शेर किसी जानवर के झुंड पर आक्रमण करता हैं तो किसी अलग-थलग पडे को ही चुनता हैं। घंटीधारी की आवाज के कारण यह काम भी सरल हो गया था। बिना आंखों देखे वह घंटी की आवाज पर घात लगा सकता था।

दूसरे दिन जब ऊंटों का दल चरकर लौट रहा था तब घंटीधारी बाकी ऊंटों से बीस कदम पीछे चल रहा था। शेर तो घात लगाए बैठा ही था। घंटी की आवाज को निशाना बनाकर वह दौडा और उसे मारकर जंगल में खींच ले गया। ऐसे घंटीधारी के अहंकार ने उसके जीवन की घंटी बजा दी।


सीखः जो स्वयं को ही सबसे श्रेष्ठ समझता हैं उसका अहंकार शीघ्र ही उसे ले डूबता हैं।

रोचक कहानी जरूर पढ़िए 

दो होते हुए भी एक है केले का पत्ता...... जानिए राम और हनुमान की अनोखी कहानी

 

दो होते हुए भी एक है केले का पत्ता, जानिए राम और हनुमान की अनोखी कहानी



भगवान राम और हनुमान जी का संबंध अनोखा है| दोनों का प्रेम अटूट है| यानी राम और बजरंगल बली के दो शरीर होते हुए भी आत्मा एक है| इसके बारे में एक दिलचस्प कथा कही जाती है 


भगवान श्रीराम जब रावण को सेना सहित पराजित करके सीता जी को लेकर वापस अयोध्या पहुंचे| जहां उनके लौटने की ख़ुशी में एक बड़े भोज का आयोजन हुआ| वानर सेना के सभी लोग भी आमंत्रित थे| लेकिन वे सभी आखिर थे तो, जंगलों में रहने वाले वानर ही न ? उन्हें सामान्य सामाजिक नियमों की पहचान नहीं थी| 


इसलिए वानरराज सुग्रीव जी ने उन सब को खूब समझाया| उन्होंने कहा - देखो, यहाँ हम मेहमान हैं और अयोध्या के लोग हमारे मेजबान हैं| तुम सब यहाँ खूब अच्छी तरह शिष्टाचार के साथ पेश आना| जिससे कि हम वानर जाति वालों को लोग शिष्टाचार विहीन न समझें, इस बात का ध्यान विशेष रखना|


सभी वानरों ने अपने राजा की बात मानी और अपने समाज का मान रखने के लिए तत्पर हुए| तभी एक वानर आगे आया और हाथ जोड़ कर वानरराज सुग्रीव से कहने लगा "प्रभो - हम प्रयास तो करेंगे कि अपना आचार व्यवहार अच्छा रखें, किन्तु हम ठहरे बन्दर| कहीं भूल चूक भी हो सकती है| तो हो सकता है कि अयोध्या वासियों के आगे हमारी छवि अच्छी नहीं रहे| इसके लिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप किसी को हमारा अगुवा बना दें| जो न सिर्फ हमें मार्गदर्शन देता रहे, बल्कि हमारे बैठने आदि का प्रबंध भी सुचारू रूप से चलाये| कहीं किसी वस्तु के लिए वानर आपस में लड़ने भिड़ने लगें तो हमारी छवि धूमिल हो सकती है|"

उस बुद्धिमान वानर की बात सुनकर वानरों में सबसे ज्ञानी और श्री राम के सर्वप्रिय तो हनुमान को सभी का अगुवा बना दिया गया| 

भोज के दिन श्री हनुमान सबके बैठने वगैरह का इंतज़ाम करते रहे| पूरी वानर सेना को ठीक से बैठने के बाद हनुमान जी जब श्री राम के समीप पहुंचे, तो श्री राम के उन्हें बड़े प्रेम से कहा कि तुम भी मेरे साथ ही बैठ कर भोजन करो| 

अब हनुमान पशोपेश में आ गए| उनकी योजना में प्रभु के बराबर बैठना तो था ही नहीं| वे तो अपने प्रभु के भोजन ग्रहण करने के बाद ही प्रसाद के रूप में भोजन ग्रहण करने वाले थे| उनके लिए ना तो बैठने की जगह ही थी और ना ही भोजन परोसने के लिए केले का पत्ता था| 

इसीलिए हनुमान बेचारे पशोपेश में थे| वे ना तो प्रभु की आज्ञा टालने का साहस कर सकते थे और ना उनके साथ खाने बैठ सकते थे| 

लेकिन प्रभु तो भक्त के मन की बात जानते हैं ना? तो वे जान गए कि मेरे हनुमान के लिए केले का पत्ता नहीं है और ना ही स्थान है| तब उन्होंने अलौकिक कृपा से अपने साथ हनुमान के बैठने के लिए  स्थान बढ़ा दिया,(जिन्होंने इतने बड़े संसार की रचना की हो उन्होंने ज़रा से और स्थान की रचना कर दी)| लेकिन प्रभु ने केले का एक अतिरिक्त पत्ता नहीं बनाया| 


इसकी बजाए भगवान ने कहा "हे मेरे प्रिय अति प्रिय छोटे भाई और पुत्र की तरह दुलारे हनुमान "तुम मेरे साथ मेरे ही केले के पत्ते में भोजन करो"|  क्योंकि भक्त और भगवान एक ही हैं| कोई हनुमान को भी पूजे तो मुझे ही प्राप्त करेगा (भगवान का यही कथन अद्वैत यानी एकेवरवाद का मूल दर्शन है|)"


इस पर श्री हनुमान जी बोले, "हे प्रभु आप मुझे कितने ही अपने बराबर बताएं| मैं कभी आप नहीं होऊँगा| ना तो कभी हो सकता हूँ| और ना ही होने की अभिलाषा है|(यह है द्वैत, यानी जीव और ब्रह्म के बीच की मर्यादा)| मैं सदा सर्वदा से आपका सेवक हूँ, और रहूंगा| आपके चरणों में ही मेरा स्थान था और रहेगा| मैं आपके साथ खा ही नहीं सकता|"


 जब हनुमान जी ने प्रभु के साथ भोजन करने से इनकार कर दिया,  तब श्री राम ने अपने सीधे हाथ की मध्यमा अंगुली से केले के पत्ते के मध्य में एक रेखा खींच दी| जिससे वह पत्ता एक भी रहा और दो भी हो गया| 

 एक भाग में प्रभु ने भोजन किया और दूसरे अर्ध में हनुमान जी को भोजन कराया| अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा के ऐक्य और द्वैत दोनों के चिन्ह के रूप में केले के पत्ते आज भी एक होते हुए भी दो हैं, और दो होते हुए भी एक हैं| यानी द्वैत में अद्वैत| 


 यही सृष्टि की व्यवस्था है| जो ब्रह्म और जीव के संबंध यानी द्वैत में अद्वैत को दर्शाती है| इसे समझ लिया तो जीवन का उद्धार तय है| इसका मूर्त प्रतीक केले का पत्ता है|








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बुधवार, 21 अगस्त 2024

बहुत शिक्षाप्रद कहानी है....... पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां


बहुत शिक्षाप्रद कहानी है....... पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां



एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे| एक दिन उनके पास एक निर्धन आदमी आया और बोला की मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये, मैं उसमे खेती करूँगा और खेती करके कमाई करूँगा।


वह अतिश्रेष्ठ व्यक्ति बहुत दयालु थे। उन्होंने उस निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया और साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये और कहा की इन पांच किसानों को साथ में लेकर खेती करो| खेती करने में आसानी होगी| इस से तुम और अच्छी फसल की खेती करके कमाई कर पाओगे।


वो निर्धन आदमी ये देख के बहुत खुश हुआ की उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये।


लेकिन वो आदमी अपनी इस ख़ुशी में बहुत खो गया और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे और वह निर्धन आदमी अपनी ख़ुशी में डूबा रहा, और जब फसल काटने का समय आया तो देखा की फसल बहुत ही ख़राब हुई थी| उन पांच किसानो ने खेत का उपयोग अच्छे से नहीं किया था| न ही अच्छे बीज डाले जिससे फसल अच्छी नही हुयी।


जब वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस माँगा तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला- की मैं बर्बाद हो गया| मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका, न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका।


अब यहाँ ध्यान दीजियेगा....


वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति हैं  'भगवान'


निर्धन व्यक्ति हैं -"हम"


खेत है -"हमारा शरीर"


पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां-आँख,कान,नाक,जीभ और मन।


प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल (कर्म) करने को दिया है और हमें इन पांच किसानो को अर्थात इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहिये, जिससे जब वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब करें तो हमें रोना न पड़े।


 बहुत शिक्षाप्रद कहानी है हम सबके जीवन से जुड़ी। पूरी पढ़ें..


रानी का हार... दिलचस्प कहानी


रानी का हार... दिलचस्प कहानी



  एक रानी अपने गले का हीरों का हार निकाल कर खूंटी पर टांगने वाली ही थी कि एक बाज आया और झपटा मारकर हार ले उड़ा|  चमकते हीरे देखकर बाज ने सोचा कि खाने की कोई चीज हो| वह एक पेड़ पर जा बैठा और खाने की कोशिश करने लगा| 


हीरे तो कठोर होते हैं। उसने चोंच मारा तो दर्द से कराह उठा| उसे समझ में आ गया कि यह उसके काम की चीज नहीं| वह हार को उसी पेड़ पर लटकता छोड़ उड़ गया| रानी को वह हार प्राणों सा प्यारा था।


उसने राजा से कह दिया कि हार का तुरंत पता लगवाइए वरना वह खाना-पीना छोड़ देगी। राजा ने कहा कि दूसरा हार बनवा देगा लेकिन उसने जिद पकड़ ली कि उसे वही हार चाहिए| सब ढूंढने लगे पर किसी को हार मिला ही नहीं| रानी तो कोप भवन में चली गई थी।


हार कर राजा ने यहां तक कह दिया कि जो भी वह हार खोज निकालेगा उसे वह आधे राज्य का अधिकारी बना देगा| अब तो होड़ लग गई| राजा के अधिकारी और प्रजा सब आधे राज्य के लालच में हार ढूंढने लगे| अचानक वह हार किसी को एक गंदे नाले में दिखा।


हार दिखाई दे रहा था| पर उसमें से बदबू आ रही थी लेकिन राज्य के लोभ में एकसिपाही कूद गया| बहुत हाथ-पांव मारा, पर हार नहीं मिला| फिर सेनापति ने देखा और वह भी कूद गया| दोनों को देख कुछ उत्साही प्रजा जन भी कूदगए। फिर मंत्री कूदा, इस तरह जितने नाले से बाहर थे उससे ज्यादा नाले के भीतर खड़े उसका मंथन कर रहे थे| लोग आते रहे और कूदते रहे लेकिन हार मिला किसी को नहीं| जैसे ही कोई नाले में कूदता वह हार दिखना बंद हो जाता।

 

थककर वह बाहर आकर दूसरी तरफ खड़ा हो जाता| आधे राज्य का लालच ऐसा कि बड़े-बड़े ज्ञानी, राजा के प्रधानमंत्री सब कूदने को तैयार बैठे थे| सब लड़ रहे थे कि पहले मैं नाले में कूदूंगा तो पहले मैं अजीब सी होड़ थी| इतने में राजा को खबर लगी।


 राजा को भय हुआ कि आधा राज्य हाथ से निकल जाए, क्यों न मैं ही कूद जाऊं उसमें? राजा भी कूद गया| एक संत गुजरे उधर से, उन्होंने राजा, प्रजा, मंत्री, सिपाही सबको कीचड़ में सना देखा तो चकित हुए वह पूछ बैठे- क्या इस राज्य में नाले में कूदने की कोई परंपरा है ? 


लोगों ने सारी बात कह सुनाई संत हंसने लगे, भाई ! किसी ने ऊपर भी देखा? ऊपर देखो, वह टहनी पर लटका हुआ है| नीचे जो तुम देख रहे हो, वह तो उसकी परछाई है| राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ| हम सब भी उस राज्य के लोगों की तरह बर्ताव कर रहे हैं।


हम जिस सांसारिक चीज में सुख-शांति और आनंद देखते हैं दरअसल वह उसी हार की तरह है जो क्षणिक सुखों के रूप में परछाई की तरह दिखाई देता है| हम भ्रम में रहते हैं कि यदि अमुक चीज मिल जाए तो जीवन बदल जाए, सब अच्छा हो जाएगा।


 लेकिन यह सिलसिला तो अंतहीन है..सांसारिक चीजें संपूर्ण सुख दे ही नहीं सकतीं. सुख शांति हीरों का हार तो है लेकिन वह परमात्मा में लीन होने से मिलेगा| बाकी तो सब उसकी परछाई है।


रानी का हार... दिलचस्प कहानी 

शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

आखिर क्यों? रात मे भोजन नहीं करना चाहिए ?

रात मे भोजन नहीं किया जाता ?


हमने देखा होगा की सूर्य की पहली पहली किरणो से सूर्यमुखी और कमल जैसे पुष्‍प खिलते है.. और सूर्यास्त के साथ वापिस वो पुष्‍प की पंखुड़िया अपने आप बन्द होजाती है…

क्या इस प्रक्रिया का इंसान के साथ कुछ सम्बंध है ??  जी हा..

जैसे सूर्यमुखी की पंखुड़िया सूर्य की हाजरी मे खुलती है वैसे ही हमारा जठर (होज़री) का छोटा सा मूह भी खुल जाता है और सूर्यास्त होने के बाद वो अपने आप सिकुड़ जाता है… वैज्ञानिक और वैध कहते है भोजन पचाने के लिये जरूरी ऑक्सिजन सूर्य की हाज़री से मिलता है।


रात को लोग सोते क्यू है ?

रात को सुस्ती क्यू आती है ?

रात को डर क्यू लगता है ?

रात को कौनसे जानवर शिकार के लिये बाहर निकलते है? उल्लू , बिल्ली, कुत्ते, भेड़िये, जंगली जानवर?

रात को ही काले काम क्यू होते है? जैसे की चोरी,  मार-काट?

रात को ही भूत – प्रेत जैसी बुरी शक्तिया क्यू महसूस होती है?

रात को ही आवारा, मक्कार और गन्दे लोग क्यू दिखाई देते है?


उपर के कुछ सवालो से महसूस किया जाता है की रात सोने लिये है|  हर प्राणी और जानवर नई उर्जा पाने के लिये सोते है| दिन भर की भगदड़ से शरीर थकान महसूस करता है| जो लोग बुरी तरह से ठक गये है उनसे ज्यादा काम हम नही करवा सकते| वैसे ही..

हमारा शरीर खुद एक यन्त्र है| जो दिनभर खाई हुई खुराक को चयापचय की प्रक्रिया से पूरी करते हुए शर्करा के रूप मे उत्पादन करता है| जो हमे पोषण देती है| रात का खाना मतलब शरीर के यन्त्र से "ओवर टाइम" करवाना।


सूर्यास्त के 2 घंटे के बाद शरीर मे आई हुई खुराक अन्ननली से जठर के मूह तक आती है। सूर्य प्रकाश की मोजूदगी ना होने से खुराक पर होने वाली प्रक्रिया मंद हो जाती है। धीरे धीरे से वो जठर मे उतरती है। बहुत खाने पर पूरा पाचनतंत्रा ठप्प हो जाता है मानो की ट्रेफिक जाम !! कई बार पूरा का पूरा खुराक सुबह तक पेट मे पड़ा रहता है। ऐसे इंसान को रात भर नींद नही आती। हाज़त की बीमारी के साथ वॉमिट हो सकती है। उसी से आंखे, पेट, अजीर्ण, ज़ाडा जैसी बीमारी जन्म लेती है।।


आयुर्वेद कहता है की जो लोग अपने पेट को नरम रखते है, दिमाग को ठंडा रखते है और पैर को गरम रखते है उनको कभी भी डॉक्टर या वैध के पास जाना नही पड़ता। आज साइन्स की इतनी सारी दवाइयां है फिर भी करोड़ो लोग अस्पताल मे दिखाई देते है। ऐसा क्यो ?

उसका एक बड़ा कारण है की हमारी दिनचर्या व आहारचर्या बदल गई है। जंक फुड, रात का खाना, खाने का कोई समय ना होना,  पेप्सी और कॉक जैसे पेय है। उसी से सुस्ती आती है… उसी की वजह से गुस्सा आता है।


क्या कहते है अपने शास्त्र :


पद्मपुराण – प्रभासखण्ड

 “चत्वारो नरकद्वारा: प्रथमं रात्रिभोजनम  |

       परस्त्रीगमानम् चैव,  सन्धानान्तकाइये || ”

अर्थ - नर्क याने जहन्नुम के चार द्वार है| पहला रात्रि भोजन, दूसरा परस्त्रीगमन, तीसरा सूर्य के ताप मे रखे बिना बनाया हुआ अचार और चौथा कंदमूल खाने से।


मारकण्डेय ऋषि का कथन है .. मार्कंड पुराण..

” सूर्यास्त के बाद पिया हुआ पानी लहू के बराबर है और खुराक मांस खाने के बराबर है?”

“मांस, मदिरा, रात को खाना और कंदमूल खाने वाले नर्क मे जाने का प्रबंध करते है”

“हे, युधिस्थिर.. देवताओ ने दिन के प्रथम प्रहर मे भोजन किया, दूसरे प्रहर मे संत महात्मा, तीसरे प्रहर मे पूर्वज और चौथे प्रहर मतलब रात को दैत्य व राक्षसो ने किया हुआ है..”


जैन धर्म :

केवल ज्ञानी बताते है की अनेक जीवो को अभयदान देने के लिये और जीव हिंसा से बचाने के लिये रात्रि भोजन का निषेध है| इसलिये जैन धर्म मे रात्रि भोजन को “महापाप” माना गया है|  


योग शास्त्र :

“रात को खानेवाले लोग सींग और पूछ के बगैर घूमने फिरने वाले जानवर है|

 रात को कम रोशनी मे हमे बहुत कम दिखाई देता है|ऐसे मे भोजन मे यदि ज़ू यानी बालो मे होने वाली लीख से जलोदर की बीमारी आती है| 

भोजन मे यदि मक्खी आती है तो वॉमिट हो सकती है। 

भोजन मे यदि स्पाइडर आ जाता है तो सफेद कोढ़ की बीमारी आ सकती है।

भोजन मे यदि कंटक आ जाता है तो गले मे भारी दर्द होता है।

भोजन मे यदि बॉल आ जाता है तो स्वरभंग हो सकता है।


रात को भोजन मे बिजली के प्रकाश से आकर्षित होकर कई उड़ते कीडे मर जाते है| यदि भोजन बिजली के बल्ब के नीचे बन रहा हो तो वो सीधे खुराक मे घुलमिल जाते है| उसी से फ़ूड पाइज़न होता है|  कभी कभार छिपकली और कॉंक्रोच भी खुराक मे घुलमिल जाते है।


पहले के जमाने के लोग 100 बरस बहुत ही आरम से निकालते थे|  आज 40 बरस मे मानसिक और शारीरिक बीमारिया शुरु हो जाती है|  उसके पीछे कहीं ना कही हमारे बदले हुए आहार और विचार है| रात्रि भोजन के मुद्दे पर अरबी रिवाज़ आर्या संस्कृति से पूरी तरह भिन्न है| 


क्या इस भगदड भरी दुनिया मे रात्रिभोज को कंट्रोल किया जा सकता है ??

आखिर क्यों? रात मे भोजन नहीं करना चाहिए ?

शनिवार, 10 अगस्त 2024

भोग क्‍या हैं? क्‍यों और किस भगवान को चढ़ाएं कौन-सा प्रसाद...



 

क्यों करते हैं प्रसाद वितरण


'पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।'

अर्थ : जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप में प्रकट होकर प्रीति सहित खाता हूं। - श्रीकृष्ण


प्रासाद चढ़ावें को नैवेद्य, आहुति और हव्य से जोड़कर देखा जाता रहा है, लेकिन प्रसाद को प्राचीन काल से ही नैवेद्य कहते हैं जो कि शुद्ध और सात्विक अर्पण होता है। हवन की अग्नि को अर्पित किए गए भोजन को हव्य कहते हैं। यज्ञ को अर्पित किए गए भोजन को आहुति कहा जाता है। दोनों का अर्थ एक ही होता है। हवन किसी देवी-देवता के लिए और यज्ञ किसी ईश्वर को अर्पित करने लिए।


प्राचीनकाल से ही प्रत्येक हिन्दू भोजन करते समय देवी-देवताओं को समर्पित करते आया है। यज्ञ के अलावा वह घर-परिवार में भोजन अग्नि को सपर्पित करता था। अग्नि उस हिस्से को देवताओं तक पहुंचा देता था। चढा़ए जाने के उपरांत नैवेद्य द्रव्य निर्माल्य कहलाता है। 


यज्ञ, हवन, पूजा और अन्न ग्रहण करने से पहले भगवान को नैवेद्य एवं भोग अर्पण की शुरुआत वैदिक काल से ही रही है। ‘शतपत ब्राह्मण’ ग्रंथ में यज्ञ को साक्षात भगवान का स्वरूप कहा गया है। यज्ञ में यजमान सर्वश्रेष्ठ वस्तुएं हविरूप से अर्पण कर देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता है।


शास्त्रों में विधान है कि यज्ञ में भोजन पहले दूसरों को खिलाकर यजमान करेंगे। वेदों के अनुसार यज्ञ में हृविष्यान्न और नैवेद्य समर्पित करने से व्यक्ति देव ऋण से मुक्त होता है। प्राचीन समय में यह नैवेद्य (भोग) अग्नि में आहुति रूप में ही दिया जाता था, लेकिन अब इसका स्वरूप थोड़ा-सा बदल गया है।


पूजा-पाठ या आरती के बाद तुलसीकृत जलामृत व पंचामृत के बाद बांटे जाने वाले पदार्थ को प्रसाद कहते हैं। पूजा के समय जब कोई खाद्य सामग्री देवी-देवताओं के समक्ष प्रस्तुत की जाती है तो वह सामग्री प्रसाद के रूप में वितरण होती है। इसे नैवेद्य भी कहते हैं।

 

कौन से देवता को कौन सा चढ़ता नैवेद्य

प्रत्येक देवी या देवता का नैवेद्य अलग-अलग होता है। यह नैवेद्य या प्रसाद जब व्यक्ति भक्ति-भावना से ग्रहण करता है तो उसमें विद्यमान शक्ति से उसे लाभ मिलता है।

1. ब्रह्माजी को कमल गट्टा एवं सिंघाड़ा।

2. विष्णुजी को खीर या सूजी का हलवे का नैवेद्य बहुत पसंद है।

3. शिव को भांग और पंचामृत का नैवेद्य पसंद है।

4. सरस्वती को दूध, पंचामृत, दही, मक्खन, सफेद तिल के लड्डू तथा धान का लावा पसंद है।

5. लक्ष्मीजी को सफेद रंग के मिष्ठान्न, केसर भात बहुत पसंद होते हैं।

6. दुर्गाजी को खीर, मालपुए, पूरणपोली, केले, नारियल और मिष्ठान्न बहुत पसंद हैं।

7. गणेशजी को मोदक या लड्डू का नैवेद्य अच्छा लगता है।

8. श्रीरामजी को केसर भात, खीर, धनिए का प्रसाद आदि पसंद हैं।

9. हनुमानजी को हलुआ, पंच मेवा, गुड़ से बने लड्डू या रोठ, डंठल वाला पान और केसर भात बहुत पसंद है।

9. श्रीकृष्ण को माखन और मिश्री का नैवेद्य बहुत पसंद है।


नैवेद्य चढ़ाए जाने के नियम

नमक, मिर्च और तेल का प्रयोग नैवेद्य में नहीं किया जाता है।

नैवेद्य में नमक की जगह मिष्ठान्न रखे जाते हैं।

प्रत्येक पकवान पर तुलसी का एक पत्ता रखा जाता है।

नैवेद्य की थाली तुरंत भगवान के आगे से हटाना नहीं चाहिए।

शिवजी के नैवेद्य में तुलसी की जगह बेल और गणेशजी के नैवेद्य में दूर्वा रखते हैं। 

नैवेद्य देवता के दक्षिण भाग में रखना चाहिए।

कुछ ग्रंथों का मत है कि पक्व नैवेद्य देवता के बाईं तरफ तथा कच्चा दाहिनी तरफ रखना चाहिए। 

भोग लगाने के लिए भोजन एवं जल पहले अग्नि के समक्ष रखें। फिर देवों का आह्वान करने के लिए जल छिड़कें।

तैयार सभी व्यंजनों से थोड़ा-थोड़ा हिस्सा अग्निदेव को मंत्रोच्चार के साथ स्मरण कर समर्पित करें। अंत में देव आचमन के लिए मंत्रोच्चार से पुन: जल छिड़कें और हाथ जोड़कर नमन करें।

भोजन के अंत में भोग का यह अंश गाय, कुत्ते और कौए को दिया जाना चाहिए। इसे बलि कहते है। जिसका अर्थ बाद में चार्वाको द्वारा बदलकर पशु हिंसा का प्रारुप दे दिया गया था।

पीतल की थाली या केले के पत्ते पर ही नैवेद्य परोसा जाए। देवता को निवेदित करना ही नैवेद्य है। सभी प्रकार के प्रसाद में निम्न प्रदार्थ प्रमुख रूप से रखे जाते हैं

दूध-शकर, मिश्री, शकर-नारियल, गुड़-नारियल, फल, खीर, भोजन इत्यादि पदार्थ।

 

आखिर क्या फायदा होगा नैवेद्य अर्पित कर उसे खाने से

मन और मस्तिष्क को स्वच्छ, निर्मल और सकारात्मक बनाने के लिए हिन्दू धर्म में कई रीति-रिवाज, परंपरा और उपाय निर्मित किए गए हैं। सकारात्मक भाव से मन शांतचित्त रहता है। शांतचित्त मन से ही व्यक्ति के जीवन के संताप और दुख मिटते हैं।


लगातार प्रसाद वितरण करते रहने के कारण लोगों के मन में भी आपके प्रति अच्छे भावों का विकास होता है। इससे किसी के भी मन में आपके प्रति राग-द्वेष नहीं पनपता और आपके मन में भी उसके प्रति प्रेम रहता है।


लगातार भगवान से जुड़े रहने से चित्त की दशा और दिशा बदल जाती है। इससे दिव्यता का अनुभव होता है और जीवन के संकटों में आत्मबल प्राप्त होता है। देवी और देवता भी संकटों के समय साथ खड़े रहते हैं।


भजन, कीर्तन, नैवेद्य आदि धार्मिक कर्म करने से जहां भगवान के प्रति आस्था बढ़ती है वहीं शांति और सकारात्मक भाव का अनुभव होता रहता है। इससे इस जीवन के बाद भगवान के उस धाम में भगवान की सेवा की प्राप्ति होती है और अगला जीवन और भी अच्छे से शांति व समृद्धिपूर्वक व्यतीत होता है।


मंदिर में रोज प्रसाद वितरित हो और इसके लिए समृद्धिशाली लोग आगे आये तो मंदिर के आसपास रहने वाले गरीव लोगो को खाना मिलता है और भगवान का दिया हुआ समझकर सब खुशी खुशी ग्रहण भी करते है। इसमे किसी के स्वाभिमान को भी ठेस नही पंहुचती।


श्रीमद् भगवद् गीता (7/23) के अनुसार अंत में हमें उन्हीं देवी-देवताओं के स्वर्ग, इत्यादि धामों में वास मिलता है जिसकी हम आराधना करते रहते हैं।


श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन के माध्यम से हमें यह भी बताते हैं कि देवी-देवताओं के धाम जाने के बाद फिर पुनर्जन्म होता है अर्थात देवी-देवताओं का भजन करने से, उनका प्रसाद खाने से व उनके धाम तक पहुंचने पर भी जन्म-मृत्यु का चक्र खत्म नहीं होता है। (श्रीगीता)


अतएव प्रथम श्रद्धा युक्त हृदय से ईश्वर को अर्पित करना है। इसके उपरांत अतिथि एवं परिवार के सभी सदस्यों को प्रसाद वितरण करने के पश्चात स्वयं प्रसाद ग्रहण करना चाहिए है।

 प्रसाद के सम्बंधित अतिआवश्यक बातें 

बहुत ही सुंदर और शिक्षाप्रद कहानी... हमारा दिया हमे वापस

हमारा दिया हमे वापस


एक राज्य में बहुत पानी गिरने से बाड़ आ गई थी|वहां के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मिल कर गांव गांव से चंदा, खान पान की चीजें, कपड़े आदि लेकर जमा करना शुरु किया ताकि बाड़ से पीड़ित लोगों की कुछ मदद कर सके|


हर कोई अपनी अपनी इच्छा और हैसियत के अनुसार कुछ न कुछ दे रहा था|


जब वे एक संपन्न परिवार के घर गये तो उनका बच्चा बहुत उत्साहित हुआ कि उन्हें वे बहुत कुछ दे सके, जब वह अपने मा बाप से कहने लगा तो वे कहने लगे "एसे तो मांगने वाले बहुत आते रहेंगे तो क्या सारा घर लुटा दोगे, जाओ वो एक फटी हुई पुरानी चादर पड़ी है दे दो उन्हें"


कुछ घंटों बाद पानी का बहाव और बड़ गया और उस परिवार का घर भी पानी से लदालद हो गया|

फिर उन्हे भी घर छोड़ कर उस धर्मशाला में जाना पड़ा जहां सभी पीड़ित लोग आये हुए थे|

बरसात की वजह से ठंड भी काफी लग रही थी|

उन्होने वहां से कुछ कंबल या चादर की याचना की|

कार्यकर्ताओं ने कहा "भाई जो काफी समय से यहां सारे लोग आ चुके हैं, हमने सभी में सब बांट लिया है, देखता हूं कुछ बचा है क्या?"


जब उसने देखा तो एक चादर दिखी और ले आया| चादर काफी फटी हुई थी|


चादर देते वक्त उसने कहा "माफ करना भाई कुछ रहा तो नही सिवा इस फटी चादर के| इसी से गुजारा कर लो| यह शायद नहीं बचती फटी है इसलिए बच गई है| "


अब वे तीन भला उस फटी चादर में कैसे गुजारते?

उन्होने वह चादर अपने बच्चे को ओड़ दी| 

जब बच्चे ने वह देखी तो कहने लगा,


"हमारा ही दीया हमे वापस"


सीख:- जैसे वह परिवार संपन्न था उसके बावजूद भी उन्होने फटी मैली चादर ही दी जोकि उन्हे ही वापस मिली| अगर वे कुछ अच्छी रजाईयां या कंबल देते तो हो सकता है वो उन्ही के काम में आते|हमारे मन में जैसी भावना हो वैसी ही भावना हमे वापसी में मिलती है।

और

हमारा ही दीया हुआ हमे वापस मिलता है....

अगर अच्छा दो तो अच्छा ही वापस भी आयेगा।

  हमारा दिया हमे वापस बहुत ही सुंदर और शिक्षाप्रद कहानी 


शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

क्या है रुद्री.... असंभव भी संभव हो जाता है

  

रुद्री क्या है


              हम सभी ने कभी न कभी रुद्री के बारे में जरूर सुना होगा। आज इस शिव मंदिर में रुद्री या लघुरुद्र है।  ब्राह्मणों और शिव उपासकों के लिए शिव को प्रसन्न करने का एक उत्तम पाठ है रुद्री।     

         रुद्री के बारे में कहा जाता है कि

         "रुत द्रव्यति इति रुद्र" 

 अर्थात रुद्र का अर्थ है रुत, पीड़ा और पीड़ा का कारण, दूर करने वाला, नष्ट करने वाला और रुद्री ऐसे शिव के रुद्र रूप को प्रसन्न करने वाला स्तोत्र है। 

         वेदों में रुद्री संबंधी मंत्रों को शुक्ल यजुर्वेदीय, कृष्ण यजुर्वेदीय, रुग्वेदीय मंत्र कहा जाता है।  शुक्ल यजुर्वेदीय रुद्र मंत्र सौराष्ट्र-गुजरात में अधिक लोकप्रिय हैं।

रुद्र के इस स्तोत्र को अष्टाध्यायी कहा जाता है क्योंकि रुद्री में आठ मुख्य अध्याय हैं।  इस स्तोत्र में रुद्र के आठ मुख्य रूप पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य और आत्मा हैं।  इसके स्वरूपों का वर्णन किया गया है। 

 मोटे तौर पर ये अध्याय:

 - प्रथम अध्याय में गणपति की स्तुति है।

 - दूसरा अध्याय भगवान विष्णु की स्तुति में है.

 - तीसरे अध्याय में इंद्र की स्तुति है।

 - चौथे अध्याय में सूर्यनारायण की स्तुति है।

 - पांचवां अध्याय हृदय है जिसमें रुद्र की स्तुति की गई है। 

 - छठे अध्याय में मृत्युंजय की स्तुति है।

 - सातवां अध्याय भगवान मरुत की स्तुति है और,

 - आठवें अध्याय में अग्नि देवता की स्तुति है।

    इस प्रकार आठ अध्यायों में सभी देवताओं की स्तुति की गई है।  चूंकि शिव सभी देवताओं में व्याप्त हैं और सभी देवता शिवलिंग में समाहित हैं, इसलिए शिवलिंग का अभिषेक करते समय इन आठ-आठ अध्यायों का पाठ किया जा सकता है।

पंचम अध्याय, जो इस स्तोत्र का मुख्य भाग है, में 66 मंत्र हैं।  एक से चार अध्यायों के बाद पांचवें अध्याय की ग्यारह पुनरावृत्ति और फिर छह से आठ अध्यायों को एक रुद्री के रूप में गिना जाता है। 

 मुख्य बात यह है कि रुद्र के पांचवें अध्याय, जिसे एकादशिनी भी कहा जाता है, का ग्यारह बार पाठ करें। 

 शिव के समक्ष यह पाठ यदि एक निश्चित आरोह-अवरोह और शुद्ध उच्चारण के साथ किया जाता है तो इसे सस्वर रुद्री कहा जाता है।  इस पाठ के साथ-साथ यदि शिवलिंग पर जल या किसी अन्य पदार्थ का अभिषेक किया जाए तो इसे रुद्राभिषेक कहा जाता है और यदि इस प्रकार यज्ञ किया जाए तो इसे रुद्र माना जाता है।

पांचवें अध्याय को लगातार 11 बार दोहराने की बजाय आठवें अध्याय के साथ दोहराने की विधि को नमक-चमका कहा जाता है।  अब यदि पंचम अध्याय को 121 बार दोहराया जाए तो इसे लघुरुद्र कहा जाता है। 

 - लघुरुद्र की 11 आवृत्तियाँ महारुढ़ा और हैं

 - महारुद्र की 11 आवृत्ति को अतिरुद्र कहा जाता है।

 - रूद्र के 1 पाठ से बच्चों के रोग दूर हो जाते हैं।

 - रुद्र के 3 मंत्रों से संकट से मुक्ति मिलती है।

 - रुद्र के 5 अंशों से ग्रहों पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है।

 - रुद्र के 11 मार्ग धन और राजनीतिक लाभ देते हैं।

 - रूद्र के 33 मंत्रों से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और शत्रुओं का नाश होता है।

रुद्र के 99 श्लोकों का पाठ करने से पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, धर्म, अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

 रुद्राभिषेक शिव पूजा का सर्वोत्तम रूप है, जैसे ही साधक वैदिक मंत्रों और मंदिर की ऊर्जा को सुनकर थक जाता है, साधक में शिव तत्व का उदय होता है।

         इसके अलावा, महाभारत युद्ध के दौरान भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाए गए 11 मंत्रों के सेट को "पुराणोकटा रुद्राभिषेक" कहा जाता है।  इस पाठ को 11 बार करने से एक रूद्री का फल मिलता है।  उच्चारण आसान है और अब यह पाठ लोगों के बीच अधिक लोकप्रिय है।  यूं भी वैदिक मंत्रों में रुद्री की मस्ती ही अलग है। 

 यदि समय की कमी या अन्य कारणों से वैदिक रुद्री के पांचवें अध्याय के 11 श्लोकों का पाठ करना संभव न हो तो इनका लगातार पाठ करें।  मन-बुद्धि-शील-हृदय-चक्षु के साथ-साथ संबंध संबंधी विषयों को आध्यात्मिक रूप से शुद्ध करने वाले वैदिक अभिरुचि से युक्त शुक्ल यजुर्वेदी वैदिक रुद्री का लगातार पाठ लाभकारी होता है।

क्या है रुद्री इसके पाठ से असंभव भी संभव हो जाता है 

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एक दिलचस्प कहानी.... वसीयत और नसीहत

 

वसीयत और नसीहत



एक दौलतमंद इंसान ने अपने बेटे को वसीयत देते हुए कहा, 


बेटा मेरे मरने के बाद मेरे पैरों में ये फटे हुऐ मोज़े (जुराबें) पहना देना, मेरी यह इक्छा जरूर पूरी करना ।


पिता के मरते ही नहलाने के बाद, बेटे ने पंडितजी से पिता की आखरी इक्छा बताई ।


पंडितजी ने कहा: हमारे धर्म में कुछ भी पहनाने की इज़ाज़त नही है 


पर बेटे की ज़िद थी कि पिता की आखरी इक्छ पूरी हो ।


बहस इतनी बढ़ गई की शहर के पंडितों को जमा किया गया, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला ।


इसी माहौल में एक व्यक्ति आया, और आकर बेटे के हाथ में पिता का लिखा हुआ खत दिया, जिस में पिता की नसीहत लिखी थी|


"मेरे प्यारे बेटे"


देख रहे हो..? दौलत, बंगला, गाड़ी और बड़ी-बड़ी फैक्ट्री और फॉर्म हाउस के बाद भी, मैं एक फटा हुआ मोजा तक नहीं ले जा सकता ।


एक रोज़ तुम्हें भी मृत्यु आएगी, आगाह हो जाओ, तुम्हें भी एक सफ़ेद कपडे में ही जाना पड़ेगा ।


लिहाज़ा कोशिश करना,पैसों के लिए किसी को दुःख मत देना, ग़लत तरीक़े से पैसा ना कमाना, धन को धर्म के कार्य में ही लगाना ।


सबको यह जानने का हक है कि शरीर छूटने के बाद सिर्फ कर्म ही साथ जाएंगे"। लेकिन फिर भी आदमी तब तक धन के पीछे भागता रहता है जब तक उसका निधन नहीं हो जाता।





एक दिलचस्प कहानी.... 


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मंगलवार, 6 अगस्त 2024

पुरुषार्थ हो, लेकिन निस्वार्थ हो... मार्मिक कहानी

 

पुरुषार्थ हो, लेकिन निस्वार्थ हो

   एक सन्त बड़े निस्पृह, सदाचारी एवं लोक सेवी थे। जीवन भर निस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई में लगे रहते। एक बार विचरण करते हुए देवताओं की टोली उनकी कुटिया के समीप से निकली। सन्त साधनारत थे| साधना से उठे "देखा, देवगण खड़े हैं। आदर सम्मान किया, आसन दिया।


  देवतागण बोले - "आपके लोकहितार्थ किए गए कार्यों को देखकर हमें प्रसन्नता हुई। आप जो चाहें वरदान माँग लें।"


  सन्त विस्मय से बोले - “सब तो है, मेरे पास। कोई इच्छा भी नहीं है, जिसे मांगा जाये।“


  देवगण एक स्वर में बोले - “आप को मांगना ही पड़ेगा, अन्यथा हमारा बड़ा अपमान होगा।“


  सन्त बड़े असमंजस में पड़े कि कोई तो इच्छा शेष नहीं है। मांगें भी तो क्या मांगें? बड़े विनीत भाव से बोले - “आप सर्वज्ञ हैं, स्वयं समर्थ हैं। आप ही अपनी इच्छा से दे दें, मुझे स्वीकार होगा।“


  देवता बोले - “तुम दूसरों का कल्याण करो।"


  सन्त बोले - क्षमा करें देव ! यह दुष्कर कार्य मुझसे न बन पड़ेगा| 


  देवता बोले - “इसमें दुष्कर क्या है?"


  सन्त बोले - “माफ करना, मैंने तो आज तक किसी को दूसरा समझा ही नहीं। सभी तो मेरे अपने हैं, फिर दूसरों का कल्याण कैसे बन पड़ेगा?”


  देवतागण एक-दूसरे को देखने लगे कि सन्तों के बारे में बहुत सुना था। आज वास्तविक सन्त के दर्शन भी हो गये। देवताओं ने सन्त की कठिनाई समझकर अपने वरदान में संशोधन किया। “अच्छा आप जहाँ से भी निकलेंगे और जिस पर भी आपकी परछाई पड़ेगी, उसका कल्याण होता चला जाएगा|


    सन्त ने बड़े विनम्र भाव से प्रार्थना की - “हे देवगण ! यदि एक कृपा और कर दें तो बड़ा उपकार होगा। वो यह कि मेरी छाया से किसका कल्याण हुआ, कितनों का उद्धार हुआ, इसका भान मुझे न होने पाए, अन्यथा मेरा अहंकार मुझे ले डूबेगा।“


   देवतागण सन्त के विनम्र भाव सुनकर नतमस्तक हो गए। कल्याण सदा ऐसे ही सन्तों के द्वारा सम्भव है। अहंकारी इन्सान को चापलूस बहुत अधिक पसंद आते हैं। जो उसकी चापलूसी करके उसको दीमक की तरह खोखला करते रहते हैं। 


  आलोचकों की सत्य बोलने वाली कड़वी वाणी उनके अहंकार को चोट पहुँचाती है। इसलिए आलोचक उन्हें शत्रु के समान दिखाई देते हैं। अहंकारी इन्सान से सच्चे मित्र एंव शुभचिंतक मानसिक तौर से दूर हो जाते हैं। क्योंकि अहंकारी को अपने वार्तालाप में किसी की मर्यादा भंग करने तथा उसे द्रवित करने वाले वचनों का ध्यान नहीं रहता। 


  अहंकार को सदा मुँह की खानी पड़ती है। वह चाहे रावण का अहंकार हो या दुर्योधन का। अहंकार के उत्पन्न होने से विवेक नष्ट होता है एवं विवेकहीन व्यक्ति सम्मान पाने लायक नहीं होते। सम्मान पाने के लिए विवेक पूर्ण कार्यों की आवश्यकता होती है और जरुरी नहीं कि धन से सम्मान मिले, अधिकतर धन से धोखा ही मिलता है।


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मार्मिक कहानी 

सोमवार, 5 अगस्त 2024

रोचक कहानी... बदनामी के दाग़ नहीं मिटते


बदनामी के दाग़ नहीं मिटते


एक छोटे से कस्बे में पंडित रामानंद शास्त्री रहा करते थे। 


वे बहुत सदाचारी थे और हर किसी की मदद को हमेशा तैयार रहते थे। आस पास के कई गांवों तक उनकी ख्याति थी। 


उनका एक पुत्र था रामसेवक। रामसवेक इकलौता होने के कारण बड़ा ही चंचल और नटखट था।


पंडित जी की हार्दिक अभिलाषा थी उनका बेटा विद्या प्राप्त करके उन्हीं की तरह सदाचारी बने और पूजा पंडिताई का काम करे। 


लेकिन पिता की इच्छा के विपरीत लाड़ला रामसेवक हमेशा शरारतें किया करता था। 


पंडित रामानंद शास्त्री उसे समझाने का प्रयास करते रहते थे, लेकिन रामसेवक को बुरे कामों में मजा आता था।


अंत में निराश होकर पंडित जी ने रामसेवक को समझाना बंद कर दिया। 


जब कभी कोई उसके पुत्र की शिकायत लेकर आता तो पंडित जी अपने घर के मुख्य द्धार पर एक कील गाढ़ देते। 


कुछ ही दिनों में दरवाजा कीलों से भर गया।


एक दिन एक अंधा मुसाफिर रोता हुआ पंडित जी के पास आया और पूछने पर उसने बताया कि उनके बेटे रामसेवक ने उनकी लाठी खींच ली और उनकी पोटली कुएं में फेंक दी। 


यह सुनकर पंडित को दुख हुआ, उन्होंने दरवाजे की ओर देखा, उसमें केवल एक आखिरी कील के लिए जगह बची थी।


पंडित जी ने उसे अंधे मुसाफिर से माफी मांगकर उसे रवाना किया और कील हथौड़ा लेकर दरवाजे पर जैसे ही कील ठोकनी शुरू की..


उसी समय रामसेवक वहां आ पहुंचा। उसने पिता से पूछा, ”पिता जी, आप यह क्या कर रहे हैं?“


पंडित जी उदास मन से बोल उठे, ”बेटा, मैं तेरे किए गए दुष्कर्मों की गिनती कर रहा हूं।“


रामसेवक आश्चर्य से दरवाजे पर लगी कीलों को देखने लगा और फिर पूछ बैठा, ”क्या दरवाजे पर लगी सभी कीलें मेरे कारण लगी हैं?“


इस पर दुखी पंडित जी बोल उठे, ”हां, मेरे नालायक बेटे! ये सब कीलें तुम्हारे किए गए दुष्कर्मों की सूचक है।“


पंडित जी ने रामसेवक को समझाया, ”देखो बेटा! बुरे कर्मों को छोड़कर परोपकार और सत्कर्म करो, ज्ञान विद्या प्राप्त करो, अब भी अवसर है, नहीं तो शेष जीवन पश्चाताप में बीत जाएगा।“


यह सुनकर रामसेवक उदास हो गया। उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। 


उसने मन ही मन प्रण किया कि अब वह अच्छे कर्म करेगा और अपने पिता द्धारा बताए गए मार्ग पर चलेगा।


एकाएक उसके व्यवहार में बदलाव आ गया। उसने लोगों को सताना बंद कर दिया। वह सबकी सहायता करने लगा। 


उसके इस बदले व्यवहार से पंडित जी खुश रहने लगे। उन्होंने रामसेवक के प्रत्येक अच्छे काम पर दरवाजे पर लगी एक कील निकालनी शुरू कर दी। धीरे धीरे सारी कीलें निकल गई। 


एक दिन पंडित जी आंगन में बैठकर धूप सेक रहे थे, कि तभी उन्हें किसी ने बताया कि अभी अभी रामसवेक ने एक निर्धन बुढ़िया महिला की सहायता की है। 


इस सूचना पर प्रसन्न होकर पंडित जी ने जैसे ही अंतिम कील निकाली, उसी वक्त रामसेवक वहां आ पहुंचा। 


रामसेवक कभी अपने पिता को देखता तो कभी दरवाजे को। 


उसने कहा, ”पिताजी कील तो सारी निकल गईं पर उनके निशान दरवाजे पर सदा के लिए रह गए।“


इस पर पंडित जी बोले, ”देखो बेटा, बुरे काम छोड़ देने पर भी उसकी बदनामी मिटाई नहीं जा सकती, इसलिए हमें कभी भी बुरे काम नहीं करने चाहिए...


मनुष्य द्धारा किए गए छोटे से छोटे बुरे काम की बदनामी उसकी पीछा नहीं छोड़ती, जैसे ऋषि वाल्मीकि का प्रारंभिक जीवन उनके परिचय में हमेशा उल्लिखित किया जाता है।“

रोचक कहानी 

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

जब भागे अपनी जान बचा के बिना खाना खाये .... बुद्धि का भ्रम

 

बुद्धि का भ्रम (ज्ञानवर्धक लेख)



एक सज्जन का नियम था कि प्रतिदिन तीन ग़रीब लोगों को भोजन कराने के पश्चात् ही स्वयं भोजन करते थे। 


एक दिन बहुत खोजने पर भी कोई ग़रीब न मिला। 


दोपहर हो गई। त्योहार निकट था दुकानों पर नाना प्रकार की मिठाइयाँ और चीनी के खिलौने सजे थे। एक हलवाई ने चीनी से आदमी की आकृति बना रखे थे। 


इन्होंने देखा तो सोचा, दूसरे ग़रीब तो मिले नहीं, चीनी से बने इन गरीबों को ही ले चलो। इन्हीं को भोग लगाकर खाना खा लेंगे।


तीन चीनी के मिठाई नुमा आदमी खरीदकर वे घर आए, तो देखा कि वहाँ तीन असली निर्धन लोग खड़े हैं। 


उसने उनका स्वागत करते हुए कहा- भाइयों ! मैं तो सुबह से आपको ही खोज रहा था। आएँ भोजन करें।


उसने तीनों गरीबों को बैठाया और पत्नी से बोले- तुम जल्दी से भोजन बनाओ, मैं बाजार से दही ले आता हूँ।


वह बाजार चले गए, पत्नी खाना बनाने लगी। 


इतने में ही उनका पुत्र भीतर आया। उसने थैले में पड़े वे चीनी से बने मिठाई नुमा आदमी देखे तो बोला- माँ! एक आदमी तो मैं खाऊँगा।


साथ वाले कमरे में बैठे आदमियों ने यह बात सुनी तो घबराए। 


इतने में उस माँ की आवाज आई- इतना उतावला क्यों होता है? अभी तेरे पिताजी आएँगे। यहाँ आदमी तीन हैं। एक तुम खाना, एक तेरे पिताजी खाएँगे, एक मैं खाऊँगी।


उन तीनों आदमियों ने जब यह बात सुनी तो उनके होश उड़ गये कि आख़िर हम लोग कहाँ आकर फंस गए? ये लोग तो आदमियों तक को खाते हैं, मनुष्य नहीं राक्षस मालूम पड़ते हैं।


उसके बाद एक आदमी लघुशंका के बहाने घर से बाहर हो गया। दूसरे ने भी ऐसा ही किया, तीसरे ने भी। तीनों ने अपने अपने जूते उठाए और लगे भागने। 


सामने से वही सज्जन दही लेकर आ रहे थे। देखा तो पत्नी से पूछा- क्या हुआ?


 वह बोली- मुझे तो पता नहीं, वे लघुशंका जाने की बात कह रहे थे। न जाने क्यों भाग रहे हैं?


 वह सज्जन तो सुबह से ही भूखे थे। उन तीन आदमियों के पीछे भागे, बोले- भाइयों ! कहाँ भागे जाते हो? हम लोग तो सुबह से भूखे हैं।


उन आदमियों ने दौड़ते हुए कहा- आज तो ये दुष्ट हमें ही खाकर अपनी भूख मिटाएँगे।


अन्ततः वह सज्जन उन तीनों आदमियों के पास पहुँचे। उनकी बात सुनी, उन्हें चीनी के मिटाई नुमा आदमियों की बात बताई, तब उन तीनों की जान में जान आई और फ़िर उन सब ने भोजन किया। 


इसलिए अगर पूरी बात मालूम न होने से अच्छी भली बुद्धि में भी भ्रम पैदा हो जाता है।

 

जब भागे अपनी जान बचा के बिना खाना खाये .... 


   

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गुरुवार, 1 अगस्त 2024

रूठे गणेश जी को मनाया डंडे से ... निश्च्छल प्रेम की मधुर कहानी

 

निश्च्छल प्रेम



एक गाँव में एक सास और बहू रहती थे। सास भगवान् की भक्ति में हमेशा लीन रहती थी पर बहू को इन सब बातों से कोई फर्क नही पड़ता था। वो बहुत ही भोली और सीधी-साधी थी। उसकी सास उसे बहुत समझाती थी कि बहू थोड़ा तो प्रभु का भजन कर लिया कर पर वह तर्क-पे-तर्क करने लगती। तो फिर सास ने उसे समझाना ही छोड़ दिया।


एक दिन सास ने सत्संग का आयोजन करने का निर्णय किया फिर उसने सोचा अगर बहू घर पर रही तो कुछ भी अच्छे से नहीं हो पायेगा। तो उसने एक तरकीब निकाली उसने बहू को बुलाया और एक काला कपड़ा दे कर कहा कि जाओ उसे नदी पर धो लो, और तब तक धोती रहना कि जब तक ये पूरा सफेद न हो जाये । साथ में उसे खाने के लिए एक सुखी मोटी रोटी दे दी ।


बहू तो सीधी-साधी थी उसे क्या पता कि काले कपड़े को कितना भी  धो लो वह सफेद नहीं होगा, वह कपड़ा लेकर नदी पर चली गई । उसे धोते-धोते दोपहर हो गई। अब उसे बहुत ही जोर से भुख लगी थी। वहीं से थोडी दूरी पर एक गणेशजी का मंदिर था। वहाँ उन्हें देखा {गणेशजी को} देशी घी मिला के गुड़ का प्रसाद चढ़ाया गया था। 


बहू ने देखा कि उसकी सास ने तो उसे सुखी रोटी ही दी है। अब वह उसे कैसे खाये तो उसने गणेशजी को लगे भोग का गुड़ उठाया और खाने लगी, ज्यो ही उसने वो भोग उठाया गणेशजी नाक पर ऊंगली रखकर मुह फेर कर बैठ गए ।


जब सुबह पंडितजी आये और गणेशजी को भोग लगाने लगे तो देखते हैं कि प्रभु तो मुहँ फेर कर बैठे हैं । अब तो ये बात राजा तक पहुँच गई । धीरे-धीरे पूरे राज्य मे यह खबर जँगल की आग की तरह फैल गई कि गणेश जी नाक पर ऊंगली रखकर और मुहँ फेर कर बैठ गये हैं। 


राजा भी बहुत चिंतित हो गए कि अगर प्रभु ने भोग नहीं लिया तो पूरा राज्य नष्ट हो जायेगा। ये कैसी विपदा आन पड़ी है ,अब इससे हमें कौन बचायेगा । उन्होंने पूरे राज्य में घोषणा करवा दी कि जो भी गणेश जी को मना लेगा उनकी नाक पर से ऊंगली हटवा देगा उसे वह अपना आधा राज्य दे देंगे ।


सब लोग पूजा पाठ करने लगे पर गणेश जैसे-के-तैसे बैठे रहे । जब यह खबर बहू ने सुनी तो वह गुस्से से उस मंदिर में आयी और साथ में एक ड़ंडा भी लेकर आयी। सब लोग उसे बहुत ही हैरानी से देख रहे थे कि ये पागल यहाँ क्या कर रही है, 


बड़े-से-बड़े पंडित और ज्ञानी गणेशजी को नहीं मना पाये तो ये पागल क्या कर पायेगी। उसकी सास भी सोचने लगी कि उसकी बहू पागल हो गई है।


अब उसकी बहू ने वो ड़ंडा उठाया और गणेशजी की तरफ तान दिया। सब लोग आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। अरे ये क्या अनर्थ कर रही है? 


बहू बोली रोज-रोज घी वाला गुड़ तो आप ही न खाते हो इसीलिए आपका मन बहुत बढ़ गया है। एक दिन मैने आपका घी वाला गुड़ खा लिया तो क्या हो गया? अब हाथ हटाकर सीधे होते हो के नहीं या उठाऊ ड़ंडा। 


ज्यो ही बहू ने ऐसा कहा गणेशजी तुरंत ही सीधे होकर बैठ गए भगवान् उसके निश्छल प्रेम को देखकर प्रसन्न हो गए और उसे अपनी भक्ति का वरदान दिया। इधर राजा ने भी अपना वचन पूर्ण किया और उसे अपना आधा राज्य दे दिया। अब बहु और सास दोनो सुख पूर्वक रहने लगे। 


प्रभु को किसका डर है वो तो खुद ही दूसरों के डर को दूर करते हैं लेकिन उन्होंने बहू के गुस्से में छुपे निश्छल मन व प्रेम को पहचान लिया और उससे वो प्रसन्न हो गए। प्रभु कब किस पे अपनी कृपा दृष्टी डाल दें ये कोई नहीं जानता इसलिए हमेशा प्रभु को याद रखना चाहिए चाहे वो सुख हो य़ा दुःख हो ।



    रूठे गणेश जी को मनाया डंडे से एक बहु ने  निश्च्छल प्रेम की मधुर कहानी 

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