शुक्रवार, 21 जून 2024

बुरा वक्त भी चला जाता है..... समझिये कैसे? प्रेरक कहानी

  

जीवन का सुख


एक अंधकारपूर्ण रात्रि में कोई व्यक्ति नदी तट से कूदकर आत्महत्या करने का विचार कर रहा था| वर्षा के दिन थे और नदी पूर्ण पर थी| आकाश में बादल घिरे थे और बीच-बीच में बिजली चमक रही थी| वह व्यक्ति उस देश का बहुत धनी व्यक्ति था, लेकिन अचानक घाटा लगा और उसकी सारी संपत्ति चली गई| उसका भाग्य-सूर्य डूब गया था और उसके समक्ष अंधकार के अतिरिक्त और कोई भविष्य नहीं था| ऐसी स्थिति में उसने स्वयं को समाप्त करने का विचार कर लिया था 

किंतु वह नदी में कूदने के लिए जैसे ही चट्टान के किनारे पर पहुंचने को हुआ कि किन्हीं दो वृद्ध, लेकिन मजबूत हाथों ने उसे रोक लिया| तभी बिजली चमकी और उसने देखा कि एक साधु उसे पकड़ा हुआ है। उस वृद्ध ने उससे इस निराशा का कारण पूछा और सारी कथा सुनकर वह हंसने लगा और बोला, ''तो तुम यह स्वीकार करते हो कि पहले तुम सुखी थे?'' 

 वह बोला, ''हां, मेरा भाग्य-सूर्य पूरे प्रकाश से चमक रहा था और अब सिवाय अंधकार के मेरे जीवन में और कुछ भी शेष नहीं है| वह वृद्ध फिर हंसने लगा और बोला, ''दिन के बाद रात्रि है और रात्रि के बाद दिन, जब दिन नहीं टिकता, तो रात्रि भी कैसे टिकेगी? परिवर्तन प्रकृति का नियम है।

ठीक से सुन लो- जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे , और जो व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, वह सुख में सुखी नहीं होता और दुख में दुखी नहीं| उसका जीवन उस अडिग चट्टान की भांति हो जाता है, जो वर्षा और धूप में समान ही बनी रहती है|

सुख और दुख को जो समभाव से ले, समझना कि उसने स्वयं को जान लिया क्योंकि स्वयं की पृथकता का बोध ही समभाव को जन्म देता है| सुख-दुख आते और जाते हैं, जो न आता है और न जाता है, वह है, स्वयं का अस्तित्व, इस अस्तित्व में ठहर जाना ही समत्व है|


बुरा वक्त भी चला जाता है..... समझिये कैसे? प्रेरक कहानी 


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मंगलवार, 18 जून 2024

जानिये आपके विचार ही कैसे कर्म बनते हैं। ... शिक्षाप्रद कहानी ...

   

कर्म क्या है


बुद्ध अपने शिष्यों के साथ बैठे थे। एक शिष्य ने पूछा- "कर्म क्या है?"

बुद्ध ने कहा- "मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ।"


एक राजा हाथी पर बैठकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहा था।अचानक वह एक दुकान के सामने रुका और अपने मंत्री से कहा- "मुझे नहीं पता क्यों, पर मैं इस दुकान के स्वामी को फाँसी देना चाहता हूँ।" 

यह सुनकर मंत्री को बहुत दु:ख हुआ। लेकिन जब तक वह राजा से कोई कारण पूछता, तब तक राजा आगे बढ़ गया। 


अगले दिन मंत्री उस दुकानदार से मिलने के लिए एक साधारण नागरिक के वेष में उसकी दुकान पर पहुँचा। उसने दुकानदार से ऐसे ही पूछ लिया कि उसका व्यापार कैसा चल रहा है? दुकानदार चंदन की लकड़ी बेचता था। उसने बहुत दुखी होकर बताया कि मुश्किल से ही उसे कोई ग्राहक मिलता है। लोग उसकी दुकान पर आते हैं, चंदन को सूँघते हैं और चले जाते हैं। वे चंदन कि गुणवत्ता की प्रशंसा भी करते हैं, पर ख़रीदते कुछ नहीं। अब उसकी आशा केवल इस बात पर टिकी है कि राजा जल्दी ही मर जाए, उसकी अन्त्येष्टि के लिए बड़ी मात्रा में चंदन की लकड़ी खरीदी जाएगी। वह आसपास अकेला चंदन की लकड़ी का दुकानदार था, इसलिए उसे पक्का विश्वास था कि राजा के मरने पर उसके दिन बदलेंगे। 


अब मंत्री की समझ में आ गया कि राजा उसकी दुकान के सामने क्यों रुका था और क्यों दुकानदार को मार डालने की इच्छा व्यक्त की थी। शायद दुकानदार के नकारात्मक विचारों की तरंगों ने राजा पर वैसा प्रभाव डाला था, जिसने उसके बदले में दुकानदार के प्रति अपने अन्दर उसी तरह के नकारात्मक विचारों का अनुभव किया था।


बुद्धिमान मंत्री ने इस विषय पर कुछ क्षण तक विचार किया। फिर उसने अपनी पहचान और पिछले दिन की घटना बताये बिना कुछ चन्दन की लकड़ी ख़रीदने की इच्छा व्यक्त की। दुकानदार बहुत खुश हुआ। उसने चंदन को अच्छी तरह कागज में लपेटकर मंत्री को दे दिया। 


जब मंत्री महल में लौटा तो वह सीधा दरबार में गया जहाँ राजा बैठा हुआ था और बोला कि चंदन की लकड़ी के दुकानदार ने उसे एक भेंट भेजी है। राजा को आश्चर्य हुआ। जब उसने बंडल को खोला तो उसमें सुनहरे रंग के श्रेष्ठ चंदन की लकड़ी और उसकी सुगंध को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। प्रसन्न होकर उसने चंदन के व्यापारी के लिए कुछ सोने के सिक्के भिजवा दिये। राजा को यह सोचकर अपने हृदय में बहुत खेद हुआ कि उसे दुकानदार को मारने का अवांछित विचार आया था। 


जब दुकानदार को राजा से सोने के सिक्के प्राप्त हुए, तो वह भी आश्चर्यचकित हो गया। वह राजा के गुण गाने लगा जिसने सोने के सिक्के भेजकर उसे ग़रीबी के अभिशाप से बचा लिया था। कुछ समय बाद उसे अपने उन कलुषित विचारों की याद आयी जो वह राजा के प्रति सोचा करता था। उसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ऐसे नकारात्मक विचार करने पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। 


यदि हम दूसरे व्यक्तियों के प्रति अच्छे और दयालु विचार रखेंगे, तो वे सकारात्मक विचार हमारे पास अनुकूल रूप में ही लौटेंगे, लेकिन यदि हम बुरे विचारों को पालेंगे, तो वे विचार हमारे पास उसी रूप में लौटेंगे। 


यह कहानी सुनाकर बुद्ध ने पूछा- "कर्म क्या है?" अनेक शिष्यों ने उत्तर दिया- "हमारे शब्द, हमारे कार्य, हमारी भावनायें, हमारी गतिविधियाँ..."


बुद्ध ने सिर हिलाया और कहा- 

"तुम्हारे विचार ही तुम्हारे कर्म हैं..!!"



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जानिये आपके विचार ही कैसे कर्म बनते हैं। ... शिक्षाप्रद कहानी 

सोमवार, 17 जून 2024

निर्जला एकादशी की संक्षेप मे जानकारी...

निर्जला एकादशी



 हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर २६ हो जाती है। ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी कहते है इस व्रत मे पानी का पीना वर्जित है इसिलिये इस निर्जला एकादशी कहते है।


सबसे महत्वपूर्ण है निर्जला एकादशी

साल में चौबीस एकादशी पड़ती हैं, जबकि अधिक मास में इसकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। उपवास के कठोर नियमों के कारण इनमें सबसे महत्वपूर्ण है ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी व्रत, जिसमें भक्त न अन्न ग्रहण करते हैं और न भीषण गर्मी में जल ग्रहण करते हैं। इसलिए इस एकादशी को निर्जला एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रायः मई या जून महीने में गंगा दशहरा के अगले दिन पड़ती है। हालांकि कभी कभार गंगा दशहरा और निर्जला एकादशी एक ही दिन पड़ जाती है। बहरहाल, मान्यता है कि जो श्रद्धालु साल की सभी चौबीस एकादशियों का उपवास करने में समर्थ न हों, उन्हें सिर्फ निर्जला एकादशी उपवास करना चाहिए। इससे दूसरी सभी एकादशियों का पुण्यफल मिल जाता है।


निर्जला एकादशी को क्यों कहते हैं भीमसेनी एकादशी

पौराणिक कथा के अनुसार पांडवों में दूसरे बड़े भाई भीमसेन के लिए अपनी भूख को नियंत्रित करना काफी मुश्किल था। इस कारण वो एकादशी व्रत नहीं कर पाते थे। जबकि भीम के अलावा द्रौपदी समेत बाकी पांडव हर एकादशी व्रत को रखते थे। भीमसेन अपनी इस लाचारी और कमजोरी को लेकर परेशान थे। भीमसेन को लगता था कि वह एकादशी व्रत न करके भगवान विष्णु का अनादर कर रहे हैं। इस दुविधा से उबरने के लिए भीमसेन महर्षि व्यास के पास गए, यहां महर्षि व्यास ने भीमसेन को साल में एक बार निर्जला एकादशी व्रत रखने की सलाह दी और कहा कि निर्जला एकादशी साल की चौबीस एकादशियों के तुल्य है। इसी पौराणिक कथा के बाद निर्जला एकादशी भीमसेनी एकादशी, भीम एकादशी और पांडव एकादशी के नाम से प्रसिद्ध हो गई।


एकादशी व्रत में क्या करें

एकादशी व्रत के दिन दिनचर्या शुरू करे मुख शुद्धि आदि के बाद स्नान कर मंदिर में जाकर गीता-पाठ करना चाहिए या पुरोहित से भगवतगीता का पाठ सुनना चाहिए। साथ ही भगवान के सम्मुख इस प्रकार प्रण करना चाहिए – आज मैं दुराचारी, चोर और पाखण्डी व्यक्ति से वार्ता-व्यवहार नहीं करूंगा। किसी से कड़वी बात कर उसका दिल नहीं दुखाऊंगा। गाय, ब्राह्मण आदि को फलाहार औरअन्न आदि देकर प्रसन्न करूंगा। रात्रि जागरण कर कीर्तन करूंगा, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप करूंगा। राम, कृष्ण इत्यादि विष्णु सहस्रनाम को कण्ठ का आभूषण बनाऊंगा।”

इस संकल्प के बाद श्रीहरि भगवान विष्णु का स्मरण कर प्रार्थना करना चाहिए, कहना चाहिए – “हे तीनों लोकों के स्वामी! मेरे प्रण की रक्षा करना। मेरी लाज आपके हाथ है, इस प्रण को पूरा कर सकूं, ऐसी शक्ति मुझे देना प्रभु!”

यदि भूलवश किसी निंदक से बात कर बैठें तो इस दोष के निवारण के लिए भगवान सूर्य नारायण के दर्शन करके, धूप-दीप से श्रीहरि की पूजा-अर्चना कर क्षमा याचना करें।

एकादशी वाले दिन यथाशक्ति अन्नदान करना चाहिए, लेकिन स्वयं किसी का दिया अन्न कदापि न लें।

असत्य वचन और कपटादि कुकर्मों से दूर रहना चाहिए।

किसी संबंधी की मृत्यु होने पर उस दिन एकादशी व्रत रखकर उसका फल उसे संकल्प कर देना चाहिए और श्री गंगाजी में पुष्प (अस्थि) प्रवाह करने पर भी एकादशी व्रत रखकर फल प्राणी के निमित्त दे देना चाहिए।

प्राणी मात्र को प्रभु का अवतार समझकर किसी प्रकार का छल-कपट नहीं करना चाहिए। सभी से मीठे वचन बोलने चाहिए। अपना अपमान करने या कड़वे शब्द बोलने वाले को भी आशीर्वाद देना चाहिए।

सन्तोष का फल सदैव मीठा होता है। सत्य वचन बोलने चाहिए और मन में दया भाव रखना चाहिए। इस विधि से व्रत करने वाला मनुष्य दिव्य फल को प्राप्त करता है। 


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निर्जला एकादशी की संक्षेप मे जानकारी 

प्रेरक कहानी....कलयुग में सत्संग ही सबसे बड़ा तीर्थ है

   

चोर बना महात्मा


एक चोर जब मरने लगा तो उसने अपने बेटे को बुलाकर एक नसीहत दी:- ”अगर तुझे चोरी करनी है तो किसी गुरुद्वारा, धर्मशाला या किसी धार्मिक स्थान में मत जाना बल्कि इनसे दूर ही रहना और दूसरी बात अगर कभी पकड़े जाओ, तो यह मत स्वीकार करना कि तुमने चोरी की है, चाहे कितनी भी सख्त मार पड़े|”

चोर के लड़के ने कहा:- “सत्य वचन”। इतना कहकर वह चोर मर गया और उसका लड़का रोज रात को चोरी करता रहा। एक बार उस लड़के ने चोरी करने के लिए किसी घर के ताले तोड़े, लेकिन घर वाले जाग गए और उन्होंने शोर मचा दिया । आगे पहरेदार खड़े थे । उन्होंने कहा:- “आने दो, बच कर कहाँ जाएगा”? एक तरफ घर वाले खड़े थे और दूसरी तरफ पहरेदार । अब चोर जाए भी तो किधर जाए, वह किसी तरह बच कर वहां से निकल गया । रास्ते में एक धर्मशाला पड़ती थी, धर्मशाला को देखकर उसको अपने बाप की सलाह याद आ गई कि धर्मशाला में नहीं जाना , लेकिन वह अब करे भी तो क्या करे ? उसने यह सही मौका देख कर वह धर्मशाला में चला गया, वहाँ सत्संग हो रहा था। 

वह बाप का आज्ञाकारी बेटा था, इसलिए उसने अपने कानों में उंगली डाल ली जिससे सत्संग के वचन उसके कानों में ना पड़ जाए, लेकिन आखिरकार मन अडियल घोड़ा होता है, इसे जिधर से मोड़ो यह उधर नही जाता है । कानों को बंद कर लेने के बाद भी चोर के कानों में यह वचन पड़ गए कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती । उस चोर ने सोचा की परछाई हो या ना हो इस से मुझे क्या लेना देना ।

घर वाले और पहरेदार पीछे लगे हुए थे । किसी ने बताया कि चोर, धर्मशाला में है, जांच पड़ताल होने पर वह चोर पकड़ा गया।

पुलिस ने चोर को बहुत मारा लेकिन उसने अपना अपराध कबूल नहीं किया । उस समय यह नियम था कि जब तक मुजरिम अपराध ने स्वीकार कर ले तो सजा नहीं दी जा सकती । उसे राजा के सामने पेश किया गया वहां भी खूब मार पड़ी, लेकिन चोर ने वहाँ भी अपना अपराध नहीं माना । वह चोर देवी की पूजा करता था। इसलिए पुलिस ने एक ठगिनी को सहायता के लिए बुलाया । ठगिनी ने कहा कि मैं इसको मना लूंगी, उसने देवी का रूप भर कर दो नकली बांहें लगाई, चारों हाथों में चार मशाल जलाई और नकली शेर की सवारी की, क्योंकि वह पुलिस के साथ मिली हुई थी इसलिए जब वह आई तो उसके कहने पर जेल के दरवाजे कड़क कड़क कर खुल गए । जब कोई आदमी किसी मुसीबत में फंस जाता है तो अक्सर अपने इष्ट देव को याद करता है । इसलिए चोर भी देवी की याद में बैठा हुआ था कि अचानक दरवाजा खुल गया और अंधेरे कमरे में एकदम रोशनी हो गई। देवी ने खास अंदाज में कहा:-”देख भक्त! तूने मुझे याद किया और मैं आ गई, तूने बड़ा अच्छा किया कि तुमने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया, अगर तू ने चोरी की है तो मुझे सच- सच बता दे, मुझसे कुछ भी मत छुपाना, मैं तुम्हें फौरन आजाद करवा दूंगी|”

चोर देवी का भक्त था, अपने इष्ट को सामने खड़ा देखकर बहुत खुश हुआ और मन में सोचने लगा कि मैं देवी को सब सच सच बता दूंगा, वह बताने को तैयार ही हुआ था कि उसकी नजर देवी की परछाई पर पड़ गई,उसको फौरन सत्संग का वचन याद आ गया कि देवी देवताओं की परछाई नहीं होती । उसने देखा कि इसकी तो परछाई है वह समझ गया कि यह देवी नहीं बल्कि मेरे साथ कोई धोखा है । वह सच कहते कहते रुक गया और बोला:- “मां! मैंने चोरी नहीं की, अगर मैंने चोरी की होती तो क्या आपको पता नहीं होता । जेल के कमरे के बाहर बैठे हुए पहरेदार चोर और ठगनी की बातचीत नोट कर रहे थे । उनको और ठगिनी को विश्वास हो गया कि यह चोर नहीं है।

अगले दिन उन्होंने राजा से कह दिया कि यह चोर नहीं है । राजा ने उस को आजाद कर दिया । जब चोर आजाद हो गया तो सोचने लगा कि सत्संग का एक वचन सुनकर मैं जेल से छूट गया हूं, अगर मैं अपनी सारी जिंदगी सत्संग सुनने में लगाऊं तो मेरा तो जीवन ही बदल जाएगा, अब वह प्रतिदिन सत्संग में जाने लगा और चोरी का धंधा छोड़ कर महात्मा बन गया।


        शिक्षा:-

कलयुग में सत्संग ही सबसे बड़ा तीर्थ है।


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Impotant

रोचक कहानी संपत्ति बड़ी या संस्कार

       दक्षिण भारत में एक महान सन्त हुए तिरुवल्लुवर। वे अपने प्रवचनों से लोगों की समस्याओं का समाधान करते थे। इसलिए उन्हें सुनने के लिए दूर-...