बुधवार, 22 मई 2024

नालंदा विश्वविद्यालयन को क्यों जलाया गया था जानिए सच्चाई ...

 

नालंदा विश्वविद्यालयन को क्यों जलाया गया था जानिए सच्चाई ...??



एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क लूटेरा था....बख्तियार खिलजी. इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।


उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित

कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था| एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली|


मगर वह ठीक नहीं हो सका| किसी ने उसको सलाह दी की नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय विधियों से इलाज कराया जाय उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय वैद्य उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और वह किसी काफ़िर से| उसका इलाज करवाए फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी...


मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा किसी भी तरह मुझे ठीक करों वर्ना मरने के लिए तैयार रहो.

बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई बहुत उपाय सोचा...


अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर

चले गए कहा इस कुरान की पृष्ठ संख्या इतने से

इतने तक पढ़ लीजिये ठीक हो जायेंगे!


उसने पढ़ा और ठीक हो गया जी गया उसको बड़ी झुंझलाहट हुई उसको ख़ुशी नहीं हुई उसको बहुत गुस्सा आया कि उसके मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!


बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने

के बदले उनको पुरस्कार देना तो दूर उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया पुस्तकालयों को ही जला के राख कर दिया...!


वहां इतनी पुस्तकें थीं कि आग लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके जलती रहीं उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार डाले

आज भी बेशरम सरकारें उस नालायक बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन बनाये पड़ी हैं... ! उखाड़ फेंकना चाहिये इन अपमानजनक नामों को।


मैंने यह तो बताया ही नहीं कुरान पढ़ के वह

कैसे ठीक हुआ था| हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर रख के नहीं पढ़ते थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते मिएँ ठीक उलटा करते हैं कुरान के हर पेज को थूक लगा लगा के पलटते हैं...

बस...वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ

पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप

लगा दिया था वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट गया ठीक हो गया और उसने इस एहसान का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान

लेते है।


यह प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के

साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण

के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।


इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।


यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।

अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे।

 मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी|

 दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।

समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे, जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख-भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।


इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे।

 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।

प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था। अध्ययन-अध्यापन पद्धति इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी।

शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।

यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।


नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।


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गुरुवार, 16 मई 2024

रविवार की कथा



रविवार की कथा


  एक बुढ़िया थी। रविवार के व्रत करती थी। उसका गोबर का काम था। गोबर से चूल्हा लीप के तब रोटी बना के खाती थी। पड़ोसन के पास गाय थी। उसके यहाँ से गोबर लाती थी। 

          एक दिन पड़ोसन ने गऊ अंदर बाँध ली। बुढ़िया को ना गोबर मिला, ना करा, ना खाया। भूखी रह गयी।

          सपने में सूर्य नारायण दिखे, बोले- बुढ़िया भूखी क्यों पड़ी है। बुढ़िया बोली, 'देव मुझे गोबर का नेम है। चूल्हा गोबर से लीप के, रोटी बनाऊँ हूँ। ना गोबर मिला, ना लीपा, ना खाया।' सूर्य नारायण बोले, 'बाहर निकल के देख, तेरे गोरी-गाय, गोरा बछड़ा बंध रहे हैं। 

          गाय ने एक लड़ी सोने की, एक गोबर की दी। पड़ोसन दे देख लिया। सोने की पड़ोसन ले गई, गोबर की बुढ़िया ले आई। लीप-पोत के खा ले। रोज ऐसे ही करे।

          भगवान ने सोचा मैंने बुढ़िया को धन दिया। बुढ़िया को लेना ना आया। अब सूरज भगवान ने आँधी-मेघ बरसा दिया। बुढ़िया ने गऊ अंदर बाँध ली। तब बुढ़िया को पता चला सोने की लड़ी घर में रख ली। गोबर से चूल्हा लीप के रोटी बना ली, और खाली।

          पड़ोसन को गुस्सा आया उसने राजा से शिकायत की कि बुढ़िया की गऊ तो सोना हगती है। ऐसी गऊ तो राजा-महाराजा के पास होनी चाहिए। राजा ने नौकर भेजकर गऊ मँगा ली। राजा बोला गलीचे बिछा दो गऊ सोना हगेगी। गऊ ने सारा घर गोबर से भर दिया।

          राजा ने बुढ़िया को बुलाया। राजा बोला तेरे घर पर तो सोना हगती है, हमारा महल गोबर से भर दिया। बुढ़िया बोली, 'महाराज मेरे गोबर का नेम है। गोबर से चूल्हा लीपकर खाना बनाकर खाती हूँ। एक दिन मुझे गोबर नहीं मिला, भूखी पड़ी रही, सो गई। सपने में सूर्य नारायण दीखे। उन्होंने कहा, बुढ़िया भूखी क्यों पड़ी है ?' मैंने कहा, 'बेटा मेरे गोबर का नेम है, आज गोबर नहीं मिला।' उसने कहा, 'बाहर जाके देखो।' मैंने जाके देखा गऊ बछड़ा बँधे हैं। गाय एक सोने की करे, एक गोबर की। पड़ोसन सोने की ले जावे, गोबर की मैं ले जाती। एक दिन आँधी-मेघ बरसा, मैंने गऊ अंदर बाँध ली जब देखा एक सोने की लड़ी, एक गोबर की पोथी। पड़ोसन को उस दिन सोना नहीं मिला तो आपसे चुगली कर दी। मुझे तो सूर्य नारायण ने दी थी।'

          राजा ने बुढ़िया को गऊ भी दी और धन दिया। पड़ोसन को दंड दिया। जैसे बुढ़िया ने पाई वैसे सब कोई पावें    

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बुधवार, 15 मई 2024

ढाबे वाली आंटी..... बहुत ही भावुक और प्यारी कहानी.....

 

 


 

ढाबे वाली आंटी


                                                                                     

जी...वो खाना..मिलेगा क्या?

 प्रमोद ने सकुचाते हुए उनसे पूछा

नए आये हो न?... ढाबे में खाना नहीं मिलेगा तो और क्या मिलेगा| उनकी अनुभवी आँखों ने उसकी सकुचाहट को पढ़ लिया | 

 बताओ क्या लगाऊँ?  उन्होंने पूछा ।

जी..अ..बस ये लोग जो खा रहे हैं.. मतलब दाल रोटी.. कितने की होगी ये? एक दो लोग और थे जो वहाँ खाना खा रहे थे| उनकी थाली में दाल, रोटी, सब्जी, चावल देख के प्रमोद ने वही खाने को उनसे कह दिया।

20 रुपैये की थाली है... चार रोटी दाल सब्जी और चावल.. आराम से बैठो बेटा... लगाती हूँ| उन्होंने बड़ी ममता से कहा और रसोई में चली गईं ।

ओह्ह.. जी पर एक बात है.. मेरे पास सिर्फ... सिर्फ.. उन्नीस रूपैये हैं.. प्रमोद बड़ी शर्मिन्दिगी से बोल पाया ।

कोई नहीं.. बाद में दे देना.. अब खाना खाने तो रोज ही आओगे न, यहाँ उन्होंने जाते जाते मुड़ के मुस्कुराते हुए वात्सल्य प्रेम में डूबी आवाज में कहा।

जी..जी..ठीक है, वह चैन की साँस लेते हुए बोला उसके बाद खाना खाया और पैसे देकर वह अपने कमरे पे आ गया।


एक गरीब माँ बाप का होनहार मगर बहुत शर्मीला बेटा प्रमोद यहाँ लखनऊ में आगे पढ़ने आया था| सेक्टर क्यू के पास बेलिगारद में एक सस्ता कमरा लेकर रह रहा था| 

आज उसका पहला दिन है, बेलिगारद चौराहे, वैसे ये है तो तिराहा पर इसे चौराहा क्यों कहते हैं, किसी को नहीं पता, इसी चौराहे पर ये आंटी का ढाबा है| ढाबा क्या सड़क किनारे बने एक छोटे से मकान के निचले हिस्से में एक महिला जिन्हें सब ऑन्टी कहते हैं| मीनू में सिर्फ दो आइटम वाला ये ढाबा चलाती हैं| ढाबे में मजबूर मगर मध्यम लोग ही खाना खाने आते हैं जो सस्ता खाना ढूँढते हैं इसलिए ढाबे की हालत और उसकी कमाई में से कौन ज्यादा खस्ताहाल है, ये कहना जरा मुश्किल है।

अगले दिन प्रमोद फिर जाता है| ढाबे में आंटी उसे देखकर मुस्कुराती हैं। वह भी हल्का मुस्कुराता है शायद कल के बाद से थोड़ा सा आत्मविश्वास आया है। उसने कहा "आंटी..खाना लगा दीजिये... पर आपसे एक विनती है.. आप थाली से एक रोटी.. कम कर दीजिये| क्योंकि मेरे पास उन्नीस रुपैये से ज्यादा खाने पे खर्च करने को नहीं हैं| उसने सोचा खाने से पहले ही साफ़ साफ़ बता दिया जाय|

हालाँकि बजट बीस रुपैये का था, पर एक रुपैया रोज बचा के जब छुट्टियों में घर जाऊँगा तो अपनी माँ के लिए कुछ उपहार ले जाऊँगा ये सोच के प्रमोद ने यह नीति बनाई थी।

ठीक है.. बैठ जाओ.. अभी लगाती हूँ... कहकर वो रसोई में चली गईं| 

एक तरफ की दीवार से लगीं मेज कुर्सियां पड़ी थीं और दूसरी ओर एक दीवार पे जमीन से करीबन ढाई फुट ऊँचा एक प्लेटफॉर्म बना था, जिसपे चूल्हा बर्तन इत्यादि रखे थे| बस वही रसोई थी।

आंटी का कद बहुत छोटा है| जिसकी वजह से रसोई का प्लेटफॉर्म उनसे थोड़ी ज्यादा ऊँचाई पे पड़ता है और उन्हें खाना बनाने के काम में काफी कठिनाई आ रही है ... थोड़ी देर बाद वो खाने की थाली ले आईं।

अरे... आप तो इसमें चार रोटी ले आईं.. मैंने आपसे कहा... मैं आगे कुछ कहता कि वो बोल पड़ीं| देखो बेटा.. मैं एक बूढ़ी अकेली औरत बस इसलिए ढाबा चलाती हूँ.. कि तुम लोगों के साथ... मेरी भी दो रोटी का इंतजाम हो जाए... अब एक रुपैये के लिए क्या तेरा पेट काटूँगी" कहकर उसके सर पे हाथ फेरकर वो चली गईं।

ऐसे ही रोज ये क्रम चलता रहा प्रतिदिन वह ऑन्टी को ऊँचे प्लेटफॉर्म पे बड़ी मुश्किल से काम करते देखता, घुटनो में तकलीफ के कारण बैठ के कोई काम उनसे हो नहीं पाता था| खाना खाता , उन्नीस रुपये देता कुछ हल्की फुल्की बातें उनसे होती। बातों बातों में पता चला कि उनके पति की बहुत साल पहले ही मौत हो चुकी है और कोई ओलाद भी नही है उनकी अकेली ही जीवन यापन कर रहीं है।

बस ऐसे ही कुछ महीने बीत गए और फिर आज के दिन वह काफी देर से ढाबे पे आया।

अरे.. आज बड़ी देर कर दी तूने... सब ठीक तो है.. बैठ मैं खाना लगाती हूँ| ऑन्टी की आँखों में चिंता थी, प्रमोद ने कहा "सब ठीक है और हाँ खाना तो खाऊंगा ही.. पर पहले आप रसोई में आओ मेरे साथ..."

उनका हाथ पकड़ के वह रसोई वाले हिस्से में उन्हें ले आया और उन्हें रसोई के प्लेटफॉर्म की ओर खड़ा किया और फिर उनके पैरों के नीचे पूजा पाठ वाली दुकान से खरीदी लकड़ी की एक मजबूत चौकी रखने लगा तो वो आश्चर्य से भर गईं, उसपे खड़ी हुईं और उनकी आँखों ने न जाने कितने वर्षों के बंधे बाँध खोल दिए..

प्रमोद ने उनके पैर छुए और कहा "हैप्पी मदर्स डे... ऑन्टी" ।


आंटी ने प्रमोद को गले लगा लिया, और रोते हुए बोली- ऐसा बेटा भगवान सभी को दे| 

 जिंदगी में कभी कभी छोटी खुशियां लोगो के जीने का सहारा बन     जाती हैं 

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मंगलवार, 14 मई 2024

अभिमान मैं ही हूँ... यह धारणा बहुत ही गलत है जानिए कैसे??

 


अभिमान अक्ल को खा जाता है


एक बार एक व्यक्ति को घर के मुखिया होने का अभिमान हो गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता। उसकी छोटी सी दुकान थी। उससे जो आय होती थी, उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था। चूंकि कमाने वाला वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। लोगों के सामने डींग हांका करता था। एक दिन वह एक संत के सत्संग में पहुंचा। संत कह रहे थे- 

दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता। यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा। सभी को अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है।

सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से कहा - मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का खर्च चलता है। मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे।

संत बोले - यह तुम्हारा भ्रम है ! हर कोई अपने भाग्य का खाता है।

इस पर मुखिया ने कहा- आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए !! संत ने कहा - ठीक है !! तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ। उसने ऐसा ही किया। संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने अपना भोजन बना लिया है। मुखिया के परिवार वाले कई दिनों तक शोक संतप्त रहे। गांव-समाज वाले आखिरकार उनकी मदद के लिए सामने आए। एक सेठ ने उसके बड़े लड़के को अपने यहां नौकरी दे दी। गांव वालों ने मिलकर लड़की की शादी कर दी। एक व्यक्ति छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हो गया।एक महीने बाद मुखिया छिपता-छिपाता रात के वक्त अपने घर आया। घर वालों ने भूत समझ कर दरवाजा नहीं खोला। जब वह बहुत गिड़गिड़ाया और उसने सारी बातें बताईं तो उसकी पत्नी ने दरवाजे के भीतर से ही उत्तर दिया - हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब हम पहले से ज्यादा सुखी हैं। उस व्यक्ति का सारा अभिमान चूर-चूर हो गया। संसार किसी के लिए भी नही रुकता।

शिक्षा:- यहाँ सभी के बिना काम चल सकता है संसार सदा से चला आ रहा है और चलता रहेगा। जगत को चलाने का दम्भ भरने वाले बडे बडे सम्राट, मिट्टी हो गए, जगत उनके बिना भी चला है।।इसलिए अपने बल का, अपने धन का, अपने कार्यों का, अपने ज्ञान का गर्व व्यर्थ है। सेवा सर्वोपरी है। परमपिता परमेश्वर का सदैव कृतज्ञता-आभार प्रकट करते रहें कि उसने मुझे श्रेय दिलाने का मुझे अपना कृपापात्र चुना।

सदैव प्रसन्न रहिये।

जो प्राप्त है,वो पर्याप्त है।

अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है|


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अभिमान  मैं ही हूँ |  यह धारणा बहुत ही गलत है  जानिए कैसे  

मंगलवार, 7 मई 2024

सरस्वती के भाई बनकर... श्रीराम और तीनों भैया सपरिवार शादी मे आये

 

सरस्वती के भाई


अयोध्या के बहुत निकट ही पौराणिक नदी कुटिला है। जिसे आज टेढ़ी कहते है। उसके तट के निकट ही एक भक्त परिवार रहता था। उनके घर एक सरस्वती नाम की बालिका थी। वे लोग नित्य श्री कनक बिहारिणी बिहारी जी का दर्शन करने अयोध्या आते थे।


 सरस्वती जी का कोई सगा भाई नही था, केवल एक मौसेरा भाई ही था। वह जब भी श्री रधुनाथ जी का दर्शन करने आती, उसमे मन मे यही भाव आता की सरकार मेरे अपने भाई ही है ।


उसकी आयु उस समय मात्र पाँच वर्ष की थी। रक्षाबंधन से कुछ समय पूर्व उसने सरकार से कहा की मै आपको राखी बांधने आऊंगी। उसने सुंदर राखी बनाई और रक्षाबंधन पूर्णिमा पर मंदिर लेकर गयी ।


पुजारी जी से कहा कि हमने भैया के लिए राखी लायी है। पुजारी जी ने छोटी सी सरस्वती को गोद मे उठा लिया और उससे कहा कि मै तुम्हे राखी सहित सरकार को स्पर्श कर देता हूं और राखी मै बांध दूंगा। पुजारी जी ने राखी बांध दी और उसको प्रसाद दिया। अब हर वर्ष राखी बांधने का उसका नियम बन गया ।


समय के साथ वह बड़ी हो गयी और उसका विवाह निश्चित हो गया। वह पत्रिका लेकर मंदिर में आयी और कहा की मेरा विवाह निश्चित हो गया है, मै आपको न्योता देने आए हूं। चारो भाइयो को विवाह में आना ही है। पुजारी जी को पत्रिका देकर कहा कि मैन चारो भाइयों से कह दिया है, आप पत्रिका सरकार के पास रख दो और आप भी कह दो की चारो भाइयों को विवाह में आना ही है। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गयी।


विवाह का दिन आया। अवध में एक रस्म होती है कि विवाह के बाद भाई आकर उसको चादर ओढ़ाता है। और कुछ भेट वस्तुएं देता है।


उसकी मौसी ने अपने लड़के को कुछ सामान और ११ रुपये दिए और मंडप में पहुंचने को कहकर वह चली गयी। उसका मौसेरा भाई उपहार, वस्त्र और ११ रुपये लेकर रिक्शा पर बांध कर विवाह मंडप की ओर निकल पड़ा ।


रास्ते मे ही रिक्शा उलट गया और वह गिर गया। थोड़ी सी चोट आयी  और लोगो ने उसको दवाखाने ले जाकर मलम पट्टी कराई। यहां सरस्वती जी घूंघट से बार बार मंडप के दरवाजे पर देख रही है। और सोच रही है। कि सरकार अभी तक क्यो नही आये। उसको पूरा विश्वास है कि चारो भाई आएंगे।


माँ से भी कह दिया कि ध्यान रखना अयोध्या जी से मेरे भाई आएंगे – माँ ने उसको भोला समझकर हँस दिया।


जब बहुत देर हो गयी तब व्याकुल होकर वह दरवाजे पर जाकर रोने लगी।  दूर दूर के रिश्तेदार आ गए पर मेरे अपने भाई क्यो नही आये? क्या मैं उनकी बहन नही हूं? उसी समय ४ बड़ी मोटर गाड़िया और एक बड़ा ट्रक आते हुए उसने देखा । 


पहली गाड़ी से उसकी मौसी का लड़का और उसकी पत्नी उतरे। बाकी गाडियों से और ३ जोड़िया उतरी। मौसी के लड़के के रूप में सरकार ही आये है । रत्न जटित पगड़ियां, वस्त्र, हीरो के हार पहन रखे है । श्री हनुमान जी पीछे ट्रक में समान भरकर लाये है, हनुमान जी पहलवान के रूप में आये थे। उन्होंने ट्रक से सारा सामान उतारना शुरू किया – स्वर्ण, चांदी, पीतल, तांबे के बहुत से बर्तन ।


बिस्तर, सोफे, ओढ़ने बिछाने के वस्त्र, साड़ियां , अल्मारियाँ, कान, नाक, गले ,कमर, हाथ ,पैर के आभूषण । मौसी देखकर आश्चर्य में पड़ गयी कि इतना कीमती सामान मेरा लड़का कहां से लेकर आया ? चारो का तेज और सुंदरता देखकर सरस्वती समझ गयी कि यह मेरे चारो भाई है।


सरस्वती जी के आनंद का ठिकाना न रहा, उसका रोना बंद हो गया । सरकार ने इशारे से कहा कि किसी को अभी भेद बताना नही, गुप्त ही रखना। इनका रूप इतना मनोहर था कि सब उन्हें देखते ही रह गए, कोई पूछ न पाया कि यह गाड़ियां कैसे आयी, ये अन्य ३ लोग कौन है ?

 

लोग हैरान हो कर देख रहे थे कि अभी तक रो रही थी, और अभी इतना हँस रही है और आनंद में नाच रही है। किसी को कुछ समझ नही आ रहा था। जब तक उसकी विदाई नही हुई तब तक चारो भाई उसके साथ ही रहे। सभी गले मिले और आशीर्वाद दिया ।


सरस्वती ने कहा – जैसे आज शादी में सब संभाल लिया वैसे जीवन भर मुझे संभालना। जब वह गाड़ी में बैठकर पति के साथ जाने लगी तब चारों भाई अन्तर्धान हो गए। उसी समय असली मौसेरा भाई किसी तरह लंगड़ाते हुए पट्टी लगाए हुए वहां आया। उसने वस्त्र ओढाया उपहार और ११ रुपये दिया ।

 

मौसी ने पूछा कि अभी अभी तो तू बड़े कीमती वस्त्र पहने गाड़ि और ट्रक लेकर आया था? ये पट्टी कैसे बंध गयी और कपड़े कैसे फट गए ? उसको तो कुछ समझ ही नही आ रहा था। अंत मे सरस्वती से उसकी माता ने एकांत मे पूछा की बेटी सच सच बता की क्या बात है? ये चारों कौन थे?


तब उसने कहा की माँ मैने आपसे कहा था कि ध्यान रखना, मेरे भाई अयोध्या से आएंगे। माँ समझ गयी की इसके तो ४ ही भाई है और वो श्रीरघुनाथ जी और अन्य तीन भैया ही है। माँ जान गई कि श्री अयोध्या नाथ सरकार ही अपनी बहन के प्रेम में बंध कर आये थे और अपनी बहन को इतने उपहार, आभूषण और वस्तुएं दे गए।

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सरस्वती के भाई बनकर श्रीराम और तीनों भैया सपरिवार बहन की शादी मे आये 

सोमवार, 6 मई 2024

मानवता का गुण....एक छोटे बच्चे और कुत्ते के पिल्ले की रोचक कहानी


मानवता का गुण



एक किसान के पास बहुत सारे पिल्ले थे, तो वह कुछ पिल्लो को बेचना चाहता था| उसने घर के बाहर बिक्री का बोर्ड लगा दिया| एक दिन दस साल का बच्चा किसान के दरवाजे पर आया और बोला - मैं एक पिल्ला खरीदना चाहता हूँ| आप एक पिल्ला कितने रूपये में देंगे ?


किसान ने कहा - एक पिल्ला दौ सौ रूपये का है|


यह सुनकर वह लड़का बोला - मेरे पास अभी तो केवल सौ रूपये है| बाकी कीमत मैं आपको हर महीने 25 रूपये देकर चुकाऊंगा| क्या आप मुझे पिल्ला देंगे ?


किसान ने सौ रूपये लिए और पिल्लो को बुलाने के लिए सीटी बजायी| चार छोटे – छोटे पिल्ले बाहर आ गये| बच्चे ने एक पिल्ले को सहलाया| अचानक उसकी नजर पांचवे पिल्ले पर पड़ी| वह लंगडाकर चल रहा था |


"मुझे वह पिल्ला चाहिए"  बच्चे ने कहा |


किसान बोला - लेकिन वह तो तुम्हारे साथ खेल भी नहीं पायेगा| इसका तो एक पैर ख़राब है |


कोई बात नहीं, मुझे वही पिल्ला पसंद है| मुझे इसी की जरुरत है, बच्चा बोला 


तब तुम इसे ले जाओ| इसके दाम देने की आवश्यकता नहीं है – किसान बोला -


नहीं यह पिल्ला भी उतना ही महत्वपूर्ण है और मैं आपको इसकी पूरी कीमत दूंगा, बच्चा बोला 


लेकिन तुम्हे यह पिल्ला क्यों चाहिए ? जबकि इतने सारे और पिल्ले भी है- किसान बोला !


ताकि उसका दर्द समझने और बांटने वाला भी कोई हो| ताकि वो दुनिया में खुद को अकेला न समझे| कहकर बच्चे ने पिल्ला उठाया और वापस चल दिया |


जब वह लड़का जाने लगा तब किसान ने देखा| वह बच्चा भी एक पैर से लंगड़ा है विशेष जूता पहने था| किसान सोचने लगा की एक ‘घायल की गति घायल ही जान सकता है |


लड़के ने उस लंगड़े पिल्ले को इसलिए ख़रीदा क्योंकि वह उस पिल्ले के दुःख को जानता था| वह लड़का स्वयं भी एक पैर से लंगड़ा था| इसलिए उसने स्वस्थ और खुबसूरत पिल्ले लेने के बजाय लंगड़े हुए पिल्ले को चुना| दुःख तो हमारे जीवन का सबसे बड़ा रस है |


जिसे जीवन में दुःख नहीं मिला उसे सुख की अनुभूति भला क्या होगी| जो स्वयं दुःख का अनुभव करता है वही दूसरे के दुःख को पहचान पाता है| यही मानवता का सबसे बड़ा गुण है|


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शुक्रवार, 3 मई 2024

असली पारस.....संत नामदेव जी की बहुत ही रोचक कहानी

संत नामदेव जी की बहुत ही रोचक कहानी




संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था | परीसा भागवत की पत्नी का नाम था, कमला। कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियाँ थीं। 


दोनों की शादी हुई तो पड़ोस-पड़ोस में ही आ गयीं। राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी थी। 


कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस माँग लिया और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे।


नामदेव जी दर्जी का काम करते थे। वे कीर्तन-भजन करने जाते और पाँच- पन्द्रह दिन के बाद लौटते। अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इकट्ठे करते और फिर चले जाते।


वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।


एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गये तो कमला ने राजाई से कहा कि ‘तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया, तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।‘


राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की माँग भी आवश्यकता की पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।


नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में बहुत सारा सामान, धन-धान्य…. भरा-भरा घर दीखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।


नामदेव जी ने कहाः “इतना सारा वैभव कहाँ से आया ? “ 


राजाई ने सारी बात बता दी कि “परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया। वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं। हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दुःख देखकर उसको दया आ गयी।“


नामदेव जी ने कहाः “मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों के पारस ईश्वर है, उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान !”


नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बाँटकर आ गये। घर जैसे पहले था ऐसे ही खाली-खट कर दिया।


नामदेव जी ने पूछाः “वह पत्थर कहाँ है ? लाओ !” राजाई पारस ले आयी। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे ‘मेरे विट्ठल, पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा, नहीं  तो हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जायेंगे।‘ – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गये।


स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती। राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया। अब सहेली कमला तो रोने लगी। 


इतने में परीसा भागवत आया, पूछाः “कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ? “


वह बोलीः “तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।“ आखिर परीसा भागवत ने सारा रहस्य समझा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया।


बोलाः “कहाँ है नामदेव, कहाँ है ? कहाँ गया मेरा पारस, कहाँ गया ? “ और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।


परीसा भागवत वहाँ पहुँचाः “ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिये।“


नामदेवः “पारस तो मैंने डाल दिया उधर (नदी में)। परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ? मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है। पारस-पारस क्या करते हो भाई ! बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।“


“मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।“


“हरि - हरि बोलो और आत्म-विश्रांति पाओ !!


“नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ। मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है.. मुझे मेरा पारस दीजिये।“


“पारस तो नदी में डाल दिया।“


“नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिये।“


“अब क्या करना है.. सच्चा पारस तो तुम्हारी आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है..“


“मैं आपको हाथ जोड़ता हूँ मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो.. पारस दो..।“


“पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।“


“कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किये, सिद्धि आयी, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है। देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस..“


नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।


नामदेव जी बोलेः “अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है !”


‘जय पांडुरंगा !’ कहकर नामदेव जी ने नदीं में डुबकी लगायी और कई पत्थर ला के रख दिये उसके सामने।


“आपका पारस आप ही देख लो।“  


देखा तो सभी पारस ! “इतने पारस कैसे !”


“अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !” 


“ये कैसे पारस, इतने सारे !”


नामदेव जी बोलेः “अरे, आप अपना पारस पहचान लो।“ 


अब सब पारस एक जैसे, जैसे रूपये-रूपये के सिक्के सब एक जैसे। आपने मुझे एक सिक्का दिया, मैंने फेंक दिया और मैं वैसे सौ सिक्के ला के रख दूँ और बोलूँ कि आप अपना सिक्का खोज लो तो क्या आप खोज पाओगे ??


उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया। लोहे की जिस वस्तु को लगाये वह सोना !


“ओ मेरी पांडुरंग माऊली (माँ) ! क्या आपकी लीला है ! हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे ! हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस, नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !”


परीसा भागवत ने सारे-के-सारे पारस नदी में फेंक दिये और परमात्म- पारस में ध्यान मग्न हो गये।


ईश्वर जिस ध्यान में हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस ध्यान में हैं, तुम वहाँ पहुँच सकते हो। अपनी महिमा में लग जाओ। आपका समय कितना कीमती है और आप कौन से कूड़-कपट जैसी क्रिया-कलापों में उलझ रहे हो !


अभी आप बन्धन में हो, मौत कभी भी आकर आपको ले जा सकती है और भी किसी के गर्भ में ढकेल सकती है। गर्भ न मिले तो नाली में बहने को आप मजबूर होंगे। 


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संत नामदेव जी की बहुत ही रोचक कहानी 

गुरुवार, 2 मई 2024

आत्मनिरीक्षण... ऐसी कहानी जो सच दिखाती है और आगे बढ़ना सिखाती है

 

आत्मनिरीक्षण  


दो आदमी यात्रा पर निकले! दोनों की मुलाकात हुई, दोनों का गंतव्य एक था तो दोनों यात्रा में साथ हो चले।


सात दिन बाद दोनों के अलग होने का समय आया तो एक ने कहा: भाई साहब! एक सप्ताह तक हम दोनों साथ रहे क्या आपने मुझे पहचाना?


दूसरे ने कहा: नहीं, मैंने तो नहीं पहचाना।


पहला यात्री बोला: महोदय मैं आपके शहर का नामी ठग हूँ परन्तु आप तो महाठग हैं। आप मेरे भी गुरू निकले।


दूसरे यात्री बोला: कैसे?


पहला यात्री: कुछ पाने की आशा में मैंने निरंतर सात दिन तक आपकी तलाशी ली, मुझे कुछ भी नहीं मिला। 


इतने दिन साथ रहने के बाद मुझे यह पता है आप बहुत धनी व्यक्ति हैं और इतनी बड़ी यात्रा पर निकले हैं तो ऐसा कैसे हो सकता है कि आपके पास कुछ भी नहीं है? बिल्कुल खाली हाथ हैं!


दूसरा यात्री: मेरे पास एक बहुमूल्य हीरा है और थोड़ी-सी रजत मुद्राएं भी है।


पहला यात्री बोला: तो फिर इतने प्रयत्न के बावजूद वह मुझे मिले क्यों नहीं?


दूसरा यात्री: मैं जब भी बाहर जाता, वह हीरा और मुद्राएं तुम्हारी पोटली में रख देता था और तुम सात दिन तक मेरी झोली टटोलते रहे। 


अपनी पोटली सँभालने की जरूरत ही नहीं समझी। तो फिर तुम्हें कुछ मिलता कहाँ से!


ईश्वर नित नई खुशियाँ हमारी झोल़ी मे डालते हैं परन्तु हमें अपनी गठरी पर निगाह डालने की फुर्सत ही नहीं है, यही सबकी मूलभूत समस्या है। 


जिस दिन से इंसान दूसरे की ताकझाख बंद कर देगा उस क्षण सारी समस्या का समाधान हो जाऐगा।


अपनी गठरी टटोलें! जीवन में सबसे बड़ा गूढ मंत्र है स्वयं को टटोले और जीवन-पथ पर आगे बढ़े.. सफलताये आप की प्रतीक्षा में है।


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     ऐसी कहानी जो सच दिखाती है और आगे बढ़ना सिखाती है   

Impotant

रोचक कहानी संपत्ति बड़ी या संस्कार

       दक्षिण भारत में एक महान सन्त हुए तिरुवल्लुवर। वे अपने प्रवचनों से लोगों की समस्याओं का समाधान करते थे। इसलिए उन्हें सुनने के लिए दूर-...