एक बार गणेश जी ने भगवान शिव जी से कहा -
पिता जी ! आप यह "चिता-भस्म" लगा कर मुण्डमाला धारण कर अच्छे नहीं लगते! मेरी माता "गौरी" अपूर्व सुन्दरी और आप उनके साथ इस भयंकर "रूप" में ?
पिताजी ! आप एक बार कृपा कर के अपने सुन्दर रूप में माता के सम्मुख आयें, जिससे हम आपका असली स्वरूप देख सकें |
भगवान शिव जी मुस्कुराये और "गणेश" की बात मान ली | कुछ समय बाद जब शिव जी "स्नान" कर के लौटे तो उनके शरीर पर "भस्म" नहीं थी| बिखरी जटाएँ, सँवरी हुईं "मुण्डमाला" उतरी हुई थी|
सभी देवी-देवता, यक्ष, गन्धर्व, शिवगण उन्हें "अपलक" देखते रह गये, वो ऐसा रूप था कि "मोहिनी" अवतार रूप भी फीका पड़ जाए |
भगवान शिव ने अपना यह रूप कभी प्रकट नहीं किया था | शिव जी का ऐसा अतुलनीय रूप कि करोड़ों कामदेव को भी "मलिन" कर रहा था |
गणेश अपने पिता की इस मनमोहक "छवि" को देख कर "स्तब्ध" रह गये| मस्तक झुका कर बोले मुझे क्षमा करें पिता जी ,परन्तु अब आप अपने "पूर्व रूप" को धारण कर लीजिए |
भगवान शिव मुस्कुराये और पूछा, "क्यों पुत्र ?" अभी भी तुमने ही मुझे इस रूप में देखने की इच्छा प्रकट की थी| अब पुनः "पूर्व स्वरूप" में आने की बात क्यों ?
गणेश जी ने मस्तक झुकाये हुए ही कहा, क्षमा करें पिता श्री, "मेरी माता" से "सुन्दर" कोई और दिखे, मैं ऐसा कदापि नहीं चाहता| शिव जी हँसे और अपने पुराने स्वरूप में लौट आये |
"पौराणिक ऋषि" इस प्रसंग का सार स्पष्ट करते हुए कहते है
आज भी ऐसा ही होता है,"पिता" , "रुद्र रूप" में रहता है क्योंकि उसके ऊपर परिवार की ज़िम्मेदारियाँ अपने परिवार का "रक्षण" उनके "मान सम्मान" का ख्याल रखना होता है, तो थोड़ा "कठोर" रहता है|
जबकि "माँ सौम्य, प्यार, लाड़, स्नेह उनसे बातचीत कर के प्यार दे कर उस "कठोरता" का सन्तुलन बनाए रखती है| इसलिए सुन्दर होता है"माँ" का "स्वरुप"|
पिता के ऊपर से भी ज़िम्मेदारियों का बोझ हट जाए तो वो भी बहुत "सुन्दर" दिखता है|
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