रविवार, 21 अप्रैल 2024

एक दिलचस्प और रोचक शिक्षाप्रद कहानी.... परहित का चिंतन

परहित का चिंतन



एक राजा था जिसे शिल्प कला अत्यंत प्रिय थी। वह मूर्तियों की खोज में देश-परदेस जाया करता था। इस प्रकार राजा ने कई मूर्तियाँ अपने राज महल में लाकर रखी हुई थीं और स्वयं उनकी देख रेख करवाते। सभी मूर्तियों में उन्हें तीन मूर्तियाँ जान से भी ज्यादा प्यारी थीं। सभी को पता था कि राजा को उनसे अत्यंत लगाव है। 


एक दिन जब एक सेवक इन मूर्तियों की सफाई कर रहा था तब गलती से उसके हाथों से उनमें से एक मूर्ति टूट गई। जब राजा को यह बात पता चली तो उन्हें बहुत क्रोध आया और उन्होंने उस सेवक को तुरन्त मृत्युदण्ड दे दिया। सजा सुनने के बाद सेवक ने तुरन्त अन्य दो मूर्तियों को भी तोड़ दिया। यह देख कर सभी को आश्चर्य हुआ। 


राजा ने उस सेवक से इसका कारण पूछा, तब उस सेवक ने कहा - "महाराज !! क्षमा कीजियेगा, यह मूर्तियाँ मिट्टी की बनी हैं, अत्यंत नाजुक हैं। अमरता का वरदान लेकर तो आई नहीं हैं। आज नहीं तो कल टूट ही जातीं। अगर मेरे जैसे किसी प्राणी से टूट जातीं तो उसे अकारण ही मृत्युदंड का भागी बनना पड़ता। मुझे तो मृत्यु दंड मिल ही चुका हैं इसलिए मैंने ही अन्य दो मूर्तियों को तोड़कर उन दो व्यक्तियों की जान बचा ली। 


यह सुनकर राजा की आँखे खुली की खुली रह गईं, उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने सेवक को सजा से मुक्त कर दिया। सेवक ने उन्हें साँसों का मूल्य सिखाया, साथ ही सिखाया कि न्यायाधीश के आसन पर बैठकर अपने निजी प्रेम के चलते छोटे से अपराध के लिए मृत्युदंड देना उस आसन का अपमान है। एक उच्च आसन पर बैठकर हमेशा उसका आदर करना चाहिये। राजा हो या कोई भी अगर उसे न्याय करने के लिए चुना गया है तो उसे न्याय के महत्व को समझना चाहिये। 


मूर्ति से राजा को प्रेम था लेकिन उसके लिए सेवक को मृत्युदंड देना न्याय के विरुद्ध था। न्याय की कुर्सी पर बैठकर किसी को भी अपनी भावनाओं से दूर हट कर फैसला देना चाहिये। राजा को समझ आ गया कि मुझसे कई गुना अच्छा तो वो यह सेवक था जिसने मृत्यु के इतना समीप होते हुए भी परहित का सोचा..!! 


राजा ने सेवक से पूछा कि अकारण मृत्यु को सामने पाकर भी तुमने ईश्वर को नही कोसा, तुम निडर रहे, इस संयम, समस्वस्भाव तथा दूरदृष्टि के गुणों के वहन की युक्ति क्या है ? 


सेवक ने बताया कि आपके यहाँ काम करने से पहले मैं एक अमीर सेठ के यहां नौकर था। मेरा सेठ मुझसे तो बहुत खुश था लेकिन जब भी कोई कटु अनुभव होता तो वह ईश्वर को बहुत गालियाँ देता था । 


एक दिन सेठ ककड़ी खा रहा था । संयोग से वह ककड़ी कड़वी थी। सेठ ने वह ककड़ी मुझे दे दी। मैंने उसे बड़े चाव से खाया - जैसे वह बहुत स्वादिष्ट हो। सेठ ने पूछा – “ ककड़ी तो बहुत कड़वी थी । भला तुम ऐसे कैसे खा गये तो मैने कहा सेठ जी आप मेरे मालिक हैं। रोज ही स्वादिष्ट भोजन देते हैं। अगर एक दिन कुछ कड़वा भी दे दिए तो उसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है।" 


राजा जी इसी प्रकार अगर ईश्वर ने इतनी सुख–सम्पदाएँ दी है, और कभी कोई कटु अनुदान दे भी दे तो उसकी सद्भावना पर संदेह करना ठीक नहीं । 


जन्म, जीवनयापन तथा मृत्यु सब उसी की देन है। असल में यदि हम समझ सकें तो जीवन में जो कुछ भी होता है, सब ईश्वर की दया ही है। ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए ही करता है| यदि सुख दुख को ईश्वर का प्रसाद समझकर संयम से ग्रहण करें तथा हर समय परिहित का चिंतन करें।  

एक दिलचस्प और रोचक शिक्षाप्रद कहानी....  परहित का चिंतन

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