शुक्रवार, 29 मार्च 2024

आध्यात्मिक ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान का महत्त्व भी जरुरी होता है, जानिये इस रोचक कहानी से.......एक रोटी


एक रोटी


तीन व्यक्ति एक सिद्ध गुरु से दीक्षा प्राप्त कर वापस लौट रहे थे| गुरु जी ने उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान के साथ – साथ व्यवहारिक होने की भी सीख दी थी| तीनो तमाम ग्रंथो, पुराणों पर चर्चा करते आगे बढ़ते जा रहे थे||बहुत समय चलने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि अब उन्हें कहीं विश्राम करना चाहिए और रात गुजार कर ही आगे बढ़ना चाहिए। वे एक जगह रुके और खाने की पोटली खोली … पर दुर्भाग्यवश उसमे एक ही रोटी बची थी| तीनो ने सोचा कि इसे बाँट कर खाने से किसी की भूख नहीं मिटेगी| अच्छा होगा कि कोई एक ही इसे खा ले|


पर वो एक व्यक्ति कौन हो ये कैसे पता चले?


चूँकि वे आध्यात्मिक अनुभव कर लौट रहे थे, इसलिए तीनो ने तय किया कि इसका निर्णय वे भगवान पर छोड़ देंगे … भगवान ही कुछ ऐसा इशारा करेंगे कि समझ में आ जायेगा कि रोटी किसे खानी चाहिए|


और ऐसा सोच कर वे तीनो लेट गए, थके होने के कारण जल्द ही सबकी आँख लग गयी|


जब अगली सुबह वे उठे तो पहले व्यक्ति ने कहा,“कल रात मेरे सपने में एक देवदूत आये, वे मुझे स्वर्ग की सैर पर ले गए … सचमुच इससे पहले मैंने कभी ऐसे दृश्य नहीं देखे थे| असीम शांति, असीम सौंदर्य … मैंने हर जगह देखी और जब मैं भ्रमण के अंतिम चरण में था तो सफ़ेद वस्त्र पहने एक महात्मा ने मुझसे कहा … “ पुत्र ये रोटी लो … इसे प्रसाद समझो और अपनी भूख मिटाओ ”|


पहले व्यक्ति ने अपनी बात खत्म ही की थी, कि दूसरा वयक्ति बोला,


कितनी अजीब बात है, मैंने भी बिलकुल ऐसा ही सपना देखा, और अंत में एक महात्मा ने मुझे स्पष्ट निर्देश दिए कि मैंने जीवन भर लोगों का भला किया है, इसलिए रोटी पर मेरा ही हक़ बनता है|


उन दोनों की बातें सुन तीसरा व्यक्ति चुप-चाप बैठा था|


“तुमने क्या सपना देखा ?” , पहले व्यक्ति ने पुछा


मेरे सपने में कुछ भी नहीं था, मैं कहीं नहीं गया, और न ही मुझे कोई महात्मा दिखे| लेकिन रात में जब एक बार मेरी नींद टूटी तो मैंने उठकर रोटी खा ली|


“ अरे … तुमने ये क्या किया …. ऐसा करने से पहले तुमने हमें बताया क्यों नहीं ” बाकी दोनों ने गुस्से से पुछा|


“ कैसे बताता, तुम दोनों अपने - अपने सपनो में इतने दूर जो चले गए थे.”,  तीसरे व्यक्ति ने कहा|


और कल ही तो गुरु जी ने हमें बताया था कि आध्यात्मिक ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान का महत्त्व समझना चाहिए| मेरे मामले में भगवान ने जल्द ही मुझे संकेत दे दिया की भूखा मरने से अच्छा है कि रोटी खा ली जाए … और मैंने वही किया..!!


आध्यात्मिक ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान का महत्त्व भी जरुरी होता है जानिये इस रोचक कहानी से..... एक रोटी 

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क्या आप जानते हैं?.....दान और दक्षिणा मे अन्तर... मैं बताता हूँ आपको


दान और दक्षिणा मे क्या अंतर


प्रस्तुत पोस्ट मात्र जागरूकता के लिए है यह किसी भी प्रकार से किसी से मांग की नहीं।


अक्सर देखा गया है कि लोग पूजा करवाने के बाद दक्षिणा देने की बारी आने पर पंडित से बहस और चिक -चिक करने लग जाते हैं... 

लोग तर्क देेने लगते हैं कि दक्षिणा श्रद्धा से दिया जाता है

पंडित को "लोभी हो, लालची हो",इस तरह की कई सारी बातें लोग बोलने लगते है और अनावश्यक ही पंडित को असंतुष्ट कर अपने द्वारा की गई पूजा के पूर्ण फल से वंचित रह जाते हैं।

क्योकि ब्राह्मणों की संतुष्टि महत्वपूर्ण है।

यहाँ एक और बात ब्राह्मण के लिए कहेंगे कि ब्राह्मण को संतोषी स्वभाव का होना चाहिये। 

अब हम दान और दक्षिणा पर बात करते है..

दान श्रद्धानुसार किया जाता है जबकि दक्षिणा शक्ति के अनुसार

जब हम मन मे किसी के प्रति श्रद्धा या दया के भाव से युक्त होकर बदले में उस व्यक्ति से कोई सेवा लिये बिना, अपने मन की संतुष्टि के लिये उसे कुछ देते हैं उसे दान कहते है। 

जबकि दक्षिणा पंडित को उसके द्वारा पूजा - पाठ करवाने के बाद उसे पारिश्रमिक के तौर पर दिया जाता है।

अर्थात् चूंकि यह पंडित का पारिश्रमिक है अतः उसे पूरा अधिकार है कि वो आपकी दी गई दक्षिणा से संतुष्ट न होने पर और देने की मांग करे।

जैसे आप सब्जी लेते हैं तो आप उसकी कीमत सब्जी वाले के अनुसार चुकाते हैं, बाल कटवाते हैं तो नाई के  द्वारा निर्धारित दर के अनुसार ही पैसे देते हैं.. आप बाल कटवाने के बाद ये नहीं कहते कि इतने पैसे देने की मेरी श्रद्धा नहीं है, तुम ज्यादा मांग रहे हो, तुम लालची हो... ।

किसी भी व्यवसाय में काम की दर पहले से निर्धारित होती है, केवल ब्राह्मण की वृत्ति ही बिना किसी सौदेबाजी के होती है क्योंकि पंडित को  हर तरह के(अमीर -गरीब) यजमान मिलते है इसलिये दक्षिणा को शक्ति के अनुसार रखा जाता है..ताकि संतुलन बना रहे और सभी अपने स्तर पर ईश्वर की उपासना का लाभ ले सकें..। 

क्योंकि ईश्वर पर अधिकार गरीब का भी उतना ही है जितना किसी अमीर का है| भगवान की पूजा के लिये किसी की आर्थिक स्थिति बीच में न आये इसलिये ही दक्षिणा यथाशक्ति देने का विधान है.. ।

इसलिये दक्षिणा शक्ति के अनुसार ही देनी चाहिये क्योंकि पंडित को भी इस मंहगाई मे परिवार पालना बहुत ही मुश्किल होता है। 

मान लीजिये आप लखपति हैं साल मे कभी एक बार पूजा करवा रहे हैं और ब्राह्मण को दक्षिणा के नाम पर सौ रूपये पकड़ा रहे हैं,तो क्या सौ रूपये ही देने लायक शक्ति है क्या आप में? 

आप ब्राह्मण को तो धोखा दे देंगे, लेकिन आप भगवान को धोखा नहीं दे सकते क्यों कि भगवान आपको आपके मनोभावों के अनुसार ही आपको पूजा का फल दे देते हैं ,क्योकि संकल्प ही यथाशक्ति दक्षिणा का करवाया जाता है अर्थात आप अपनी क्षमता से कम देकर एक तरह का झूठ भगवान के सामने दिखाते हैं और भगवान आपको तथास्तु कह देते हैं ।

इसलिये कोशिश करें कि आपकी दक्षिणा से ब्राह्मण संतुष्ट हो जाये, 

हाँ दान ,आप स्वेच्छा सेे करें,

दान के लिये पंडित को अधिकार नहीं होता कि वो इसे कम-ज्यादा देने को कहे ।

अर्थात दान उसे कहेंगे कि मान लीजिये पंडित जी आपके घर आये हैं और आप श्रद्धा से उसे कुछ भेंट करें वो दान है ।

या आप पंडित से बिना कोई पूजा पाठ करवाये किसी निमित्त उनके यहां पहुंचाने जाते हैं, वो दान है

तब आज तक आपको किसी पंडित ने नही कहा होगा कि थोड़ा और लाते ।

यदि कोई पंडित इस "दान" पर बोले तो उसे भले लोभी समझे लेकिन दक्षिणा के लिये और मांग करने वाले ब्राह्मण को लालची न कहे न ही समझे


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अपने भीतर के गुणों को पहचानना सीखिये ......

अपने भीतर के गुणों को पहचानना चाहिए


एक सरोवर के तट पर एक खूबसूरत बगीचा था। इसमें अनेक प्रकार के फूलों के पौधे लगे हुए थे। लोग वहां आते, तो वे वहां खिले तमाम रंगों के गुलाब के फूलों की तारीफ जरूर करते। एक बार एक गुलाबी रंग के बहुत सुंदर गुलाब के पौधे के एक पत्ते के भीतर यह विचार पदा हो गया कि सभी लोग फूल की ही तारीफ करते हैं, लेकिन पत्ते की तारीफ कोई नहीं करता। इसका मतलब यह है कि मेरा जीवन ही व्यर्थ है।


यह विचार आते ही पत्ते के अंदर हीन भावना घर करने लगी और वह मुरझाने लगा। कुछ दिनों बाद बहुत तेज़ तूफान आया। जितने भी फूल थे, वे पंखुड़ी-पंखुड़ी होकर हवा के साथ न जाने कहां चले गए। चूंकि पत्ता अपनी हीनभावना से मुरझाकर कमजोर पड़ गया था, इसलिए वह भी टूटकर, उड़कर सरोवर में जा पड़ा। पत्ते ने देखा कि सरोवर में एक चींटी भी आकर गिर पड़ी थी और वह अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी। चींटी को थकान से बेदम होते देख पत्ता उसके पास आ गया। उसने चींटी से कहा - घबराओ मत, तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ। मैं तुम्हें किनारे पर ले चलूंगा।


चींटी पत्ते पर बैठ गई और सही-सलामत किनारे तक आ गई। चींटी इतनी कृतज्ञ हो गई कि पत्ते की तारीफ करने लगी। उसने कहा - मुझे तमाम पंखुड़ियां मिलीं, लेकिन किसी ने भी मेरी मदद नहीं की, लेकिन आपने तो मेरी जान बचा ली। आप बहुत ही महान हैं।


यह सुनकर पत्ते की आँखों में आँसू आ गए। वह बोला- धन्यवाद तो मुझे देना चाहिए कि तुम्हारी वजह से मैं अपने गुणों को जान सका। अभी तक तो मैं अपने अवगुणों के बारे में ही सोच रहा था, लेकिन आज अपने गुणों को पहचानने का अवसर मिला।


सार 

किसी से तुलना करके हीन-भावना पैदा करने की बजाय सक्रिय होकर अपने भीतर के गुणों को पहचानना चाहिए।


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सीखिये 

गुरुवार, 28 मार्च 2024

सेठ,महात्मा एवं गधे की बड़ी ही दिचस्प और रोचक कहानी ........विकारो के पांच गधे


विकारो के पांच गधे



एक महात्मा कहीं जा रहे थे। रास्ते में वो आराम करने के लिये रुके। एक पेड के नीचे लेट कर सो गये | नींद में उन्होंने एक स्वप्न देखा कि वे रास्ते में जा रहे हैं ,और उन्हें एक व्यापारी मिला, जो पांच गधों पर बड़ी- बड़ी गठरियां लादे हुए जा रहा था। गठरियां बहुत भारी थीं, जिसे गधे बड़ी मुश्किल से ढो पा रहे थे।

साधु ने व्यापारी से प्रश्न किया इन गठरियों में तुमने ऐसी कौन-सी चीजें रखी हैं, जिन्हें ये बेचारे गधे ढो नहीं पा रहे हैं?

व्यापारी ने जवाब दिया इनमें इंसान के इस्तेमाल की चीजें भरी हैं। उन्हें बेचने मैं बाजार जा रहा हूं।

साधु ने पूछा अच्छा! कौन-कौन सी चीजें हैं, जरा मैं भी तो जानूं!

व्यापारी ने कहा यह जो पहला गधा आप देख रहे हैं इस पर अत्याचार की गठरी लदी है।

साधु ने पूछा भला अत्याचार कौन खरीदेगा?

व्यापारी ने कहा इसके खरीदार हैं राजा महाराजा और सत्ताधारी लोग। काफी ऊंची दर पर बिक्री होती है इसकी।

साधु ने पूछा इस दूसरी गठरी में क्या है?

व्यापारी बोला यह गठरी अहंकार से लबालब भरी है और इसके खरीदार हैं विद्वान। तीसरे गधे पर ईर्ष्या की गठरी लदी है और इसके ग्राहक हैं वे धनवान लोग, जो एक दूसरे की प्रगति को बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसे खरीदने के लिए तो लोगों का तांता लगा रहता है।

साधु ने पूछा अच्छा! चौथी गठरी में क्या है भाई?

व्यापारी ने कहा इसमें बेईमानी भरी है और इसके ग्राहक हैं वे कारोबारी, जो बाजार में धोखे से की गई बिक्री से काफी फायदा उठाते हैं। इसलिए बाजार में इसके भी खरीदार तैयार खड़े हैं।

साधु ने पूछा अंतिम गधे पर क्या लदा है?

व्यापारी ने जवाब दिया इस गधे पर छल-कपट से भरी गठरी रखी है और इसकी मांग उन औरतों में बहुत ज्यादा है जिनके पास घर में कोई काम-धंधा नहीं हैं और जो छल-कपट का सहारा लेकर दूसरों की लकीर छोटी कर अपनी लकीर बड़ी करने की कोशिश करती रहती हैं। वे ही इसकी खरीदार हैं।

तभी महात्मा की नींद खुल गई। इस सपने में उनके कई प्रश्नों का उत्तर उन्हें मिल गया। सही अर्थों में कहें तो वह व्यापारी स्वयं शैतान था, जो संसार में बुराइयाँ फैला रहा था और उसके शिकार कमजोर मानसिकता के स्वार्थी लोग बनते हैं। शैतान का शिकार बनने से बचने का एक ही उपाय है कि ईश्वर पर सच्ची आस्था रखते हुए "सत्संग" करते हुए अपने मन को ईश्वर का मंदिर बनाने का प्रयत्न किया जाय। ईश्वर को इससे मतलब नहीं कि कौन मंदिर गया, या किसने कितने वक्त तक पूजा की! पर उन्हें इससे अवश्य मतलब होगा कि किसने अपने किन अवगुणों का त्याग कर किन गुणों का अपने जीवन में समावेश किया ,और उसके रचे संसार को कितना सजाया-संवारा..!

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सेठ,महात्मा एवं गधे की बड़ी ही दिचस्प और रोचक कहानी


बुधवार, 27 मार्च 2024

महाबली महाप्रतापी महापंडित रावण की बहुत ही रोचक और महत्त्वपूर्ण जानकारी.......

    

महाबली महाप्रतापी महापंडित रावण



कैसे हुआ रावण का जन्‍म

रावण एक ऐसा योग है जिसके बल से सारा ब्रम्हाण्ड कांपता था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो रावण जिसे राक्षसों का राजा कहा जाता था वो किस कुल की संतान था। रावण के जन्म के पीछे के क्या रहस्य है? इस तथ्य को शायद बहुत कम लोग जानते होंगे। रावण के पिता विश्वेश्रवा महान ज्ञानी ऋषि पुलस्त्य के पुत्र थे। विश्वेश्रवा भी महान ज्ञानी सन्त थे। ये उस समय की बात है जब देवासुर संग्राम में पराजित होने के बाद सुमाली माल्यवान जैसे राक्षस भगवान विष्णु के भय से रसातल में जा छुपे थे।

वर्षों बीत गये लेकिन राक्षसों को देवताओं से जीतने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। एक दिन सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ रसातल से बाहर आया, तभी उसने विश्वेश्रवा के पुत्र कुबेर को अपने पिता के पास जाते देखा। सुमाली कुबेर के भय से वापस रसातल में चला आया, लेकिन अब उसे रसातल से बाहर आने का मार्ग मिल चुका था। सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री मैं तुम्हारे लिए सुयोग्य वर की तलाश नहीं कर सकता इसलिये उसे स्वयं ऋषि विश्वेश्रवा के पास जाना होगा और उनसे विवाह का प्रस्ताव स्वयं रखना होगा।

पिता की आज्ञा के अनुसार कैकसी ऋषि विश्वेश्रवा के आश्रम में पहुंच गई। ऋषि उस समय अपने संध्या वंदन में लीन थे, आंखें खोलते ही ट्टषि ने अपने सामने उस सुंदर युवती को देखकर कहा कि वे जानते हैं कि उसके आने का क्या प्रयोजन है? लेकिन वो जिस समय उनके पास आई है वो बेहद दारुण वेला है जिसके कारण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उनके पुत्रा राक्षसी प्रवृत्ति के होंगे।

तब कैकसी ऋषि चरणों में गिरकर बोली आप इतने महान तपस्वी हैं तो उनकी संतान ऐसी कैसे हो सकती है आपको संतानों को आशीर्वाद अवश्य ही देना होगा। तब कैकसी कि प्रार्थना पर ऋषि विश्वेश्रवा ने कहा कि उनका सबसे छोटा पुत्र धर्मात्‍मा प्रवृत्ति का होगा। इसके अलावा वे कुछ नही कर सकते। कुछ समय पश्चात् कैकसी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके दस सिर थे। ऋषि ने दस शीश होने के कारण इस पुत्र का नाम दसग्रीव रखा।

इसके बाद कुंभकर्ण का जन्म हुआ जिसका शरीर इतना विशाल था कि संसार मे कोई भी उसके समकक्ष नहीं था । कुंभकर्ण के बाद पुत्री सूर्पणखा और फिर विभीषण का जन्म हुआ। इस तरह दसग्रीव और उसके दोनो भाई और बहन का जन्म हुआ।


  रावण ने क्‍यों की ब्रह्मा की तपस्‍या 

ऋषि विश्वेश्रवा ने रावण को धर्म और पांडित्य की शिक्षा दी। दसग्रीव इतना ज्ञानी बना कि उसके ज्ञान का पूरे ब्रह्माण्ड मे कोई सानी नहीं था। लेकिन दसग्रीव और कुंभकर्ण जैसे जैसे बड़े हुए उनके अत्याचार बढ़ने लगे। एक दिन कुबेर अपने पिता ऋषि विश्वेश्रवा से मिलने आश्रम पहुंचे तब कैकसी ने कुबेर के वैभव को देखकर अपने पुत्रों से कहा कि तुम्हें भी अपने भाई के समान वैभवशाली बनना चाहिए। इसके लिए तुम भगवान ब्रह्मा की तपस्या करो।

माता की आज्ञा मान तीनों पुत्रा भगवान ब्रह्मा के तप के लिए निकल गए। विभीषण पहले से ही धर्मात्मा थे, उन्होने पांच हजार वर्ष एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप करके देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त किया इसके बाद पांच हजार वर्ष अपना मस्तक और हाथ उफपर रखके तप किया जिससे भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए विभीषण ने भगवान से असीम भक्ति का वर मांगा।

   

क्‍यों सोता रहा कुंभकर्ण

कुंभकर्ण ने अपनी इंद्रियों को वश में रखकर दस हजार वर्षों तक कठोर तप किया उसके कठोर तप से भयभीत हो देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना कि तब भगवान वर मांगते समय देवी सरस्वती कुंभकर्ण की जिव्हा पर विराजमान हो गईं और कुंभकर्ण ने इंद्रासन की जगह निद्रासन मांग लिया।

‘शारद प्रेरि तासु मति पफेरी मांगिस नींद मांस खटकेरी'।


रावण ने किससे छीनी लंका

दसग्रीव अपने भाइयों से भी अधिक कठोर तप में लींन था। वो प्रत्येक हजारवें वर्ष में अपना एक शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर देता। इस तरह उसने भी दस हजार साल में अपने दसों शीश भगवान को समर्पित कर दिया उसके तप से प्रसन्न हो भगवान ने उसे वर मांगने को कहा तब दसग्रीव ने कहा देव दानव गंधर्व किन्नर कोई भी उसका वध न कर सके वो मनुष्य और जानवरों को कीड़ों की भांति तुच्छ समझता था इसलिये वरदान मे उसने इनको छोड़ दिया। यही कारण था कि भगवान विष्णु को उसके वध् के लिए मनुष्य अवतार में आना पड़ा। दसग्रीव स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा था। रसातल में छिपे राक्षस भी बाहर आ गये। राक्षसों का आतंक बढ़ गया। राक्षसों के कहने पर लंका के राजा कुबेर से लंका और पुष्पक विमान छीनकर स्वयं बन गया लंका का राजा।


  कालजयी नहीं था रावण

रावण के वरदान की शक्ति थी, वो जानता था कि देवता भी उसे नहीं मार सकते। इसलिए उसने सोचा क्यों न काल को ही बंदी बना लिया जाए। शक्ति के मद में चूर रावण ने यमलोक पर आक्रमण कर दिया भीषण युद्ध हुआ देवता रावण के वरदान के आगे शक्तिहीन हो रहे थे। यमराज ने स्वयं रावण से युद्ध किया रावण भी रक्तरंजित हो चुका था। लेकिन फिर भी उसने हार नहीं मानी, तब क्रोधित यमराज ने रावण वध के लिए अपना काल दण्ड उठा लिया। तब ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर यमराज को अपने वरदान के बारे में बताया। यमराज ने ब्रह्मा जी की आज्ञानुसार अपना कालदण्ड वापस ले लिया। रावण को लगा कि उसने ये विजय अपनी शक्ति से पाई है। उसे अब और घमंड हो गया था वो स्वयं को कालजयी मानने लगा था। पृथ्वी पर उसका आतंक और बढ़ गया था। लेकिन पृथ्वी पर भी रावण को पराजित करने वाले और भी योद्धा थे।


 कैसे दसग्रीव का नाम रावण पड़ा

दसग्रीव ने नंदी के श्राप और चेतावनी को अनसुना कर दिया और आगे बढ़ा । अपने बल के मद में चूर दसग्रीव ने जिस पर्वत पर भगवान शिव विश्राम कर रहे थे। उस पर्वत को अपनी भुजाओं पर उठा लिया। जिससे भगवान शंकर की तपस्‍या भंग हो गई और भगवान ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया । पर्वत के नीचे दसग्रीव की भुजाएं दब गईं वो पीड़ा से इस तरह रोया कि चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। तब रावण ने मंत्रियों की सलाह पर एक हजार वर्षों तक भगवान शिव की स्तुति की। भगवान शिव ने दसग्रीव से प्रसन्न होकर उसे अपनी चंद्रहास खड्ग दी और कहा कि तुम्हारे रुदन से सारा विश्व कराह उठा इसलिये तुम्हारा नाम रावण होगा। रावण का अर्थ रुदन होता है। तबसे दसग्रीव रावण के नाम से प्रचलित हुआ।


बालि ने भी हराया था रावण को

एक बार रावण भ्रमण करता हुआ महिष्मतीपुरी पहुंचा। इस अत्यंत सुंदर नगरी का राजा था सहस्रार्जुन। रावण ने इस नगरी पर अधिकार जमाने के लिये आक्रमण कर दिया। सहस्रार्जुन ने इस युद्ध में रावण को आसानी से हरा दिया, वो चाहता तो रावण को मार भी सकता था लेकिन सहस्रार्जुन ने अपने पूज्य पुलस्त्य ऋषि का वंशज होने के कारण बंदी बना लिया। जिसकी कैद से मुक्त कराने के लिए पुलस्त्य ऋषि स्वयं पृथ्वी पर आए और रावण मुक्त हो गया। बालि से भी रावण की पराजय का विवरण ग्रंथों में मिलता है। कहा जाता है कि किष्किन्ध के राजा बालि ने रावण को अपनी बांह में दबाकर सात समुद्रों की यात्रा की थी। लेकिन तब रावण ने अपनी कुटिल ब‍ुद्धि का प्रयोग कर बालि को अपना मित्रा बना लिया था। इस तरह रावण शक्तिशाली तो था लेकिन पराजय का स्वाद उसने भी चखा था।


रावण के वध का कारण बनीं स्त्रियां

यदि गौर करें तो रावण के वध् का कारण स्त्रियां ही बनीं। चाहे वह सीता हों या पिफर सूर्पणखा। ग्रन्थों में इसके पीछे भी रहस्य मिलता है। रावण एक बार हिमालय वन में विचरण कर रहा था तभी उसने वहां वेदवती नामक एक तपस्वनी को तपस्या में लीन देखा। रावण उस तपस्वनी को देखकर उस पर आशक्त हो गया और उसने वेदवती नामक उस तपस्वनी के केश पकड़कर उसे साथ ले जाने लगा। वेदवती ने अपने केश काटकर रावण को श्राप दिया कि तुम्हारे और तुम्हारे कुल के नाश का कारण स्त्रियां होंगी।


क्यों बनी वानरों की सेना ?

अब सवाल ये उठता है कि जब श्री राम विष्णु अवतार थे तो रावण को मारने के लिए वे सर्वशक्तिशाली सेना का प्रयोग कर सकते थे लेकिन उन्हाने वानरों की ही सेना का निर्माण क्यों किया? इसके पीछे भी एक रहस्य मिलता है। शक्ति और ऐश्वर्य से घिरा दसग्रीव खुद को भगवान समझने लगा था। पूरे ब्रह्माण्ड को वह अपने अधीन मानता था। एक बार दसग्रीव अपनी शक्ति के मद में चूर पुष्पक विमान से विचरण करता हुआ सरकण्डा के वन में पहुंचा कुछ दूरी पर पहुंचने के बाद उसका विमान आगे नहीं बढ़ रहा था। तभी उसे एक आवाज सुनाई दी कि यहां से लौट जाओ भगवान शिव और माता पार्वती यहां विश्राम कर रहे हैं। तेज रौशनी में दसग्रीव को भगवान शंकर के दूत नंदी का मुख वानर के समान प्रतीत हुआ। दसग्रीव ने वानर कहकर नंदी का परिहास किया तब नंदी ने उसे श्राप दिया और कहा कि तुमने वानर कहकर मेरा उपहास किया है तो वानरों की सेना ही तुम्हारे वध में सहायक होगी।


रावण ने सीता जी से कभी जबर्दस्‍ती नहीं की

रावण इतना बलशाली था लेकिन पिफर भी वो सीता से विवाह करने की याचना करता था। जबकि त्रिलोक के बड़े बड़े वीर उसके आगे कांपते थे चाहता तो वो जबरन विवाह कर सकता था। लेकिन रावण सीता से चाहकर भी विवाह नहीं कर सकता था क्योंकि उसे श्राप था। एक बार रावण आकाश मार्ग से विचरण करता हुआ जा रहा था तभी उसने एक सुन्दर अप्सरा को देखा वो अप्सरा नल कुबेर की प्रेयसी थी। रावण ने उस अप्सरा को अपनी राक्षसी प्रवृत्ति का शिकार बना डाला। नल कुबेर को जब रावण के इस कुकृत्य का पता चला तो उसने रावण का श्राप दिया कि यदि वो किसी भी स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध छुएगा तो उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जाएंगे। यही कारण था कि रावण सीता से बार-बार प्रणय याचना करता था, उसने सीता के साथ कभी जबर्दस्‍ती नहीं की।


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मंगलवार, 26 मार्च 2024

जानिए क्या होता है.... चैत्र महीना 2024 हिंदू नववर्ष से जुड़ी कई जानकारियां...

 

चैत्र महीना


चैत्र महीना - वर्ष 2024


इस वर्ष चैत्र मास - 26/ मार्च/ 2024 से 23/ अप्रैल/ 2024 तक है।


कालगणना के अनुसार हिंदू वर्ष का चैत्र महीना बहुत ही विशेष होता है। क्योंकि यह माह हिंदू नववर्ष का पहला महीना होता है।

चैत्र माह से हिंदू नववर्ष आरंभ हो जाता है। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि हिंदू नववर्ष का पहला दिन माना जाता है।

चैत्र प्रतिपदा तिथि को गुड़ी पड़वा भी कहते हैं। इसके अलावा इस तिथि पर चैत्र नवरात्रि भी आरंभ हो जाते हैं।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को वर्ष प्रतिपदा, उगादि और गुड़ी पड़वा कहा जाता है।


वैसे तो पूरी दुनिया अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार नया साल जनवरी के महीने से शुरू हो जाता है,लेकिन वैदिक हिंदू परंपरा और सनातन काल गणना में चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि पर नववर्ष की शुरुआत होती है।


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन ब्रह्राजी ने समस्त सृष्टि की रचना की थी इसी कारण से हिंदू मान्यताओं में नए वर्ष का शुभारंभ होता है।


आइए विस्तार से जानते हैं हिंदू नववर्ष से जुड़ी कई जानकारियां...


हिंदू नववर्ष से जुड़ी बातें..


आप सभी के मन में यह सवाल उठता होगा कि चैत्र महीना जोकि हिंदू नववर्ष का पहला महीना होता है यह होली के त्योहार के बाद शुरू हो जाता है।


यानि फाल्गुन पूर्णिमा तिथि के बाद चैत्र कृष्ण प्रतिपदा लग जाती है फिर भी उसके 15 दिन बाद नया हिंदू नववर्ष मनाया जाता है।


आखिर इसके पीछे क्या तर्क है ? 

दरअसल चैत्र का महीना होली के दूसरे दिन ही शुरू हो जाता है, लेकिन यह कृष्ण पक्ष होता है।

हिंदू पंचांग के अनुसार कृष्ण पक्ष पूर्णिमा से अमावस्या तिथि के 15 दिनों तक रहता है और कृष्ण पक्ष के इन 15 दिनों में चंद्रमा धीरे-धीरे लगातार घटने के कारण पूरे आकाश में अंधेरा छाने लगता है।

सनातन धर्म का आधार हमेशा अंधेरे से उजाले की तरफ बढ़ने का रहा है यानि “तमसो मां ज्योतिर्गमय्”।

इसी वजह से चैत्र माह के लगने के 15 दिन बाद जब जब शुक्ल पक्ष लगता और प्रतिपदा तिथि से हिंदू नववर्ष मनाया जाता है।

अमावस्या के अगले दिन शुक्ल पक्ष लगने से चंद्रमा हर एक दिन बढ़ता जाता है जिससे अंधकार से प्रकाश होता जाता है।

चैत्र माह की प्रदिपदा तिथि पर ही महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन,माह और वर्ष की गणना करते हुए हिंदू पंचांग की रचना की थी।

इस तिथि से ही नए पंचांग प्रारंभ होते हैं और वर्ष भर के पर्व, उत्सव और अनुष्ठानों के शुभ मुहूर्त निश्चित होते हैं।


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इस वजह से भी चैत्र प्रतिपदा तिथि का इतना महत्व है।


इसी दिन से नया संवत्सर भी आरंभ हो जाता है इसलिए इस तिथि को नवसंवत्सर भी कहते हैं।


इसी के साथ ये भी मान्यता है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि पर भगवान राम ने वानरराज बाली का वध करके वहां की प्रजा को मुक्ति दिलाई। जिसकी खुशी में प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज फहराए थे।


अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार चैत्र मास मार्च या अप्रैल के महीने में आता है इस दिन को महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा तथा आंध्र प्रदेश में उगादी पर्व के रूप में भी मनाया जाता है।


चैत्र प्रतिपदा के दिन महाराज विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत की शुरुआत, भगवान झूलेलाल की जयंती, चैत्र नवरात्रि का प्रारम्भ, गुड़ी पड़वा,उगादी पर्व मनाए जाते हैं।


चैत्र प्रतिपदा नवरात्रि पर शक्ति की आराधना और साधना की जाती है। इसमें मां दुर्गा के नौ अलग-अलग स्वरूपों की पूजा होती है।


नवमी तिथि पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का जन्मोत्सव और फिर चैत्र पूर्णिमा पर भगवान राम के सबसे प्रिय भक्त हनुमान की जयंती मनाई जाती है।


शास्त्रों के अनुसार सभी चारों युगों में सबसे पहले सतयुग का प्रारम्भ इसी तिथि यानी चैत्र प्रतिपदा से हुआ था। यह तिथिसृष्टि के कालचक्र प्रारंभ और पहला दिन भी माना जाता है।


महर्षि दयानंद द्वारा आर्य समाज की स्थापना भी भी चैत्र माह की प्रतिपदा तिथि पर किया गया था।

जानिए क्या होता है.... 

     

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शनिवार, 23 मार्च 2024

महारानी मंदोदरी की बड़ी ही दिलचस्प जानकारी........


 

महारानी मंदोदरी


हिंदू महाकाव्य रामायण के अनुसार, लंका के राजा रावण की पत्नि   के रूप में मंदोदरी को वर्णित किया जाता है। रामायण में उन्हें सुंदर, पवित्र और पतिव्रता स्त्री के रूप में दिखाया गया है। उन्हें रामायण काल की सबसे सुन्दर पंच कन्याओं के रूप में जाना जाता है और मान्यता है कि उनके नाम से कई बाधाएं दूर होती हैं। 


आइए जानें रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी के जीवन के बारे में कुछ प्रचलित कथाओं के बारे में।


कौन थी मंदोदरी

मंदोदरी असुरों के राजा मायासुर और अप्सरा हेमा की बेटी थीं। मंदोदरी उस समय की सबसे सुंदर और गुणवती स्त्री थीं। इसी वजह से लंकापति रावण ने उनसे विवाह किया और वो लंका की पटरानी बनीं।

मंदोदरी के दो पुत्र को मेघनाद और अक्षय कुमार थे। हालांकि कुछ पौराणिक कथाओं में माता सीता को भी मंदोदरी की पुत्री के रूप में वर्णित किया जाता है। मंदोदरी को एक पतिव्रता स्त्री के रूप में याद किया जाता है और अपने पति रावण के लाख दोषों के बावजूद, मंदोदरी उनसे प्रेम करती थीं और उन्हें अपना सर्वस्व मानती थीं।

यही नहीं मंदोदरी रावण को हमेशा सन्मार्ग पर चलने की सलाह देती थीं। रामायण में रावण के प्रति उसके प्रेम और निष्ठा का वर्णन मिलता है।


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मंदोदरी ने ही करवाया था पति रावण का वध

रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी का क्या हुआ

पौराणिक कथाओं में बताया जाता है कि रामायण काल में प्रभु श्री राम ने जब रावण का वध किया उस समय लंका में सिर्फ रावण के भाई विभीषण मौजूद थे। उस समय राम जी ने विभीषण का राज्याभिषेक कर दिया और उन्हें लंकापति नियुक्त किया।

उस समय मंदोदरी ने विभीषण की शरण ले और उनकी पत्नी के रूप में जीवन व्यतीत करने लगीं। हालांकि रामायण में इस बात का कहीं बहुत ज्यादा जिक्र नहीं है और कुछ लोगों का मानना यह भी है कि रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी ने मृत्यु को चुना और वो सती हो गईं।


रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी के जीवन से जुड़े अन्य तथ्य

एक पौराणिक कथा में इस बात का जिक्र मिलता है कि रावण की मृत्यु के बाद राम ने मंदोदरी को सांत्वना दी और उन्हें रानी और उनके पति की विधवा के रूप में उनके कर्तव्यों की याद दिलाई।

इसके साथ ही उन्होंने लंका के नए राजा की पटरानी बनने की सलाह भी दी, लेकिन मंदोदरी ने विधवा का जीवन ही स्वीकार किया और आध्यात्म में डूब गईं। मंदोदरी ने अपना आगे का जीवन धार्मिक प्रथाओं के लिए समर्पित कर दिया।

हालांकि इसका भी कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है और यह इस तथ्य पर आधारित है कि मंदोदरी एक धर्मपरायण स्त्री थीं और शायद इसी वजह से रावण की मृत्यु के बाद उन्होंने ऐसे ही जीवन को अपनाया होगा।


हिन्दू धर्म की पांच दिव्य कन्याओं का रहस्य

मंदोदरी हेमा नाम की अप्सरा की बेटी थी। एक बार देवराज इन्द्र की सभा में ऋषि कश्यप के पुत्र माया की दृष्टि हेमा पर गई और वह उस पर मोहित हो गए। माया ने हेमा के सामने शादी का प्रस्ताव रखा।

शादी के बाद हेमा ने मायासुर की बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम मथुरा रखा गया। अप्सरा की पुत्री होने के कारण मथुरा अत्यंत सुन्दर और आकर्षक थी।

जब मंदोदरी का विवाह हुआ तो उसके पिता मयासुर ने योग्य वर की खोज शुरू की, लेकिन उसे अपनी सुंदर पुत्री के योग्य कोई वर नहीं मिला।

मयासुर ने मंदोदरी को रावण से मिलवाया। जैसे ही रावण की दृष्टि मंदोदरी पर गई, वह मोहित हो गया और उसने जल्दी से विवाह के लिए प्रस्ताव रखा।

रावण ने मंदोदरी को वचन दिया कि हमेशा केवल मंदोदरी ही उसकी पत्नी और लंका की रानी होंगी। विवाह के बाद मंदोदरी को उपहार के रूप में, मायासुर ने रावण को सोने की लंका दी।

एक कहानी यह भी है कि रावण की मृत्यु एक विशेष बाण से हुई थी और इस बाण की सूचना मंदोदरी ने ही हनुमान को दी थी।

रावण की मृत्यु के बाद वास्तव में मंदोदरी का क्या हुआ इस बात के लिए कोई प्रमाणिक तथ्य नहीं मिलते हैं, लेकिन कुछ कथाओं में उनके आगे के जीवन के बारे में जिक्र मिलता है। 

महारानी मंदोदरी की बड़ी ही दिलचस्प जानकारी 

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गुरुवार, 21 मार्च 2024

आत्मिक शांति..... बहुत ही भावपूर्ण कहानी


आत्मिक शांति..... बहुत ही भावपूर्ण कहानी



सेठ मुरलीधर जी ने अपना घर बनवाना शुरू किया तो उनके बराबर में पड़े प्लाट के मालिक ओमप्रकाश जी ने मुरलीधर जी से अकेले में प्रार्थना की कि यदि वे उनके प्लाट साइड वाली दीवार के इस्तेमाल की अनुमति दे देंगे तो वे भी उनके बराबर में दो कमरे बना कर अपने परिवार के रहने लायक ठिकाना बना लेंगे। एक दीवार के निर्माण का खर्च बच जायेगा।


ओमप्रकाश जी एक सामान्य आर्थिक स्थिति में थे, बस खाने रहने लायक ही कमाई थी।उनके पिता ने कभी सस्ते में एक प्लाट खरीद लिया था, पर उसमें न तो उनके पिता मकान बनवा पाये और न जी ओमप्रकाश जी। जब सेठ मुरलीधर जी ने अपना मकान बनवाना शुरू किया तो उन्हें लगा कि अपने घर का साया तो होना ही चाहिये। इसी उमंग उत्साह में उन्होंने मुरलीधर जी उनकी दीवार के इस्तेमाल की बात कर ली। मुरलीधर जी पैसे वाले भी थे और दिलवाले भी। उन्होंने दीवार इस्तेमाल की अनुमति भी दी और साथ ही कहा कि ओमप्रकाश जी अब आप और हम पड़ौसी हैं, यदि कोई अन्य सहायता की आवश्यकता हो तो झिझकना नही,बता देना।


ओमप्रकाश जी का हौसला बढ़ा और उन्होंने जहां दो कमरों के साधारण से घर बनाने की कल्पना की थी,बनाते बनाते सीमा से अधिक खर्च कर बैठे और पूर्ति के लिये ब्याज पर कर्ज ले लिया। चूंकि मुरलीधर जी तो पैसे वाले थे सो उन्होंने तो मकान क्या कोठी का निर्माण कर लिया,जबकि ओमप्रकाश जी बेचारे कर्जमंद होकर भी उनकी कोठी के सामने मामूली सा मकान ही बना सके। उन्हें मुरलीधर के सामने आने में भी हिचक होती थी। उनके मन मे ग्लानि थी कि मुरलीधर जी बड़े आदमी है और वे मामूली।


समय बीतता गया, एक दिन मुरलीधर जी दीवार के उस ओर ओमप्रकाश जी के यहां से रुदन जैसी आवाज सुनाई दी। उन्हें अनहोनी की आशंका हुई । वे छत पर गये वहां से ओमप्रकाश जी का आँगन साफ दिखायी देता था। उन्होंने झांककर देखा तो ओमप्रकाश जी अपनी पत्नी से छत पर ही अकेले बतिया रहे थे। पत्नी अपनी आवाज को दबाकर रो रही थी।उन्होंने दीवार से कान लगा सुनने की कोशिश की। तो पता लगा ओमप्रकाश जी कर्ज न चुका पाने और तकादे के कारण पड़ने वाले दवाब तथा बेइज्जती से बचने के लिये आत्महत्या करने की बात कर रहे थे, पति पत्नी दोनो ने आत्महत्या का इरादा कर लिया था। अपने पांच वर्षीय बच्चे को उन्होंने अगले दिन उसके मामा के यहां छोड़ने के बाद इस कदम को उठाने का निश्चय कर लिया। मुरलीधर जी धक से रह गये। वे जानते थे कि सहायता की पेशकश ओमप्रकाश स्वीकार नही करेंगे क्योंकि उनकी सहायता को एक कर्ज के बदले दूसरा कर्ज समझेंगे। तो क्या किया जाये?


मुरलीधर जी ने सुबह ही ओमप्रकाश जी के यहाँ जाने का निर्णय कर लिया। वहां जाकर उन्होंने ओमप्रकाश जी के सामने प्रस्ताव रखा कि भाई जी मैंने सुना है आप अपना घर बेच रहे हो। ओमप्रकाश जी को लगा कि उन्होंने इस विकल्प पर तो विचार किया ही नही था।मुरलीधर जी बोले देखो भाई आपका घर और मेरा घर बराबर बराबर में है, मेरे दो बेटे है, मैं चाहता हूं कि दूसरे बेटे के लिये भी घर बनवा दूँ। पर बेटा तीन वर्ष बाद आयेगा। मेरा प्रस्ताव है कि मैं आपको इस घर के अग्रिम रूप में दो लाख दे देता हूँ। दो वर्ष बाद आपको यह घर हमारे नाम लिखना होगा या आप मेरे दो लाख वापस कर अपना घर अपने पास रख सकते हैं। मेरा इस प्रस्ताव का मकसद मात्र यह है कि आप किसी अन्य को घर न बेचे।


ओमप्रकाश जी की आंखों में तो आंसू आ गये, बैठे बिठाये उन्हें दो वर्ष के लिये बिना ब्याज के दो लाख मिल रहे थे। मुरलीधर जी ने दो लाख रुपये ओमप्रकाश जी के सामने रख विदा ले ली। दीवार के कान ने दो जिंदगी बचा ली थी। एक कल्पित दूसरे बेटे की कहानी बना कर मुरलीधर जी ओमप्रकाश जी के स्वाभिमान और हिचक को दूर कर उनकी निस्वार्थ सहायता कर एक आत्मिक शांति का अनुभव कर रहे थे।



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वृंदावन मे भक्ति इसलिए हमेशा चरम पर होती है क्योकि.......

  

वृंदावन मे भक्ति


एक बार नारद जी पृथ्वी का भ्रमण कर रहे थे तो नारद जी सभी तीर्थो मे गये लेकिन कहीं पर भी नारद जी को शांति नही मिली -


ये सब कलियुग का प्रभाव था क्योकि तीर्थो मे भी लोगो ने गंदगी फैलानी शुरु कर दी है इसलिए नारद जी का मन को कहीं शांति नही मिली

जब नारद जी को कहीं शांति नही मिली तो नारद जी श्रीधाम वृंदावन आ गये-- 


श्रीधाम वृंदावन मे आकर नारद जी को कुछ शांति महसुस हूई ओर जब नारद जी यमुना तट पर भ्रमण कर रहे थे तो पीछे से एक स्त्री की आवाज आयी की -


अरे साधु रुको,,-

नारद जी ने पीछे मुडकर देखा तो नारद जी ने देखा की एक स्त्री बैठी है ओर उसकी गोद मे दो वृद्ध पुरुष लेटे है--


नारद जी उस स्त्री के पास गये ओर पुछने लगे की -- आप कौन है ?? 

ओर आपकी गोद मे ये दो वृद्ध पुरुष कौन है  ??


उस स्त्री ने कहा की हे महात्मा,मै भक्ति हूं ओर मेरी गोद मे ये दोनो मेरे बेटे ज्ञान ओर वैराग्य है-

मै द्रविड देश मे पैदा हुई ,

कर्नाटक में जवान हुई ,गुजरात मे वृद्ध हो गयी लेकिन जब वृन्दावन आयी तो मै तो जवान हो गयी लेकिन मेरे बेटे वृद्ध हो गये--

जब मां जवान हो ओर बेटे वृद्ध हो जाएं तो दुख क्यो नही होगा---

हे नारद जी अब कारण बताओ की एसा क्यो हुआ ओर उपाय भी बताओ ?

नारद जी ने जब ये सुना तो नारद जी बोले की--


 वृंदावनस्यसंयोगा नुतस्तवं तरुणी नवां--

धन्यं वृंदावन तेन भक्ति नृत्यति यत्र च--


नारद जी बोले की हे भक्ति.!!

तुम वृंदावन मे आकर जवान हो गयी हो क्योकि वृंदावन भक्ति की भुमि है ,वृंदावन तो तुम्हारा घर है--


बिलकुल सही कह रहे है नारद जी क्योकि आज भी वृंदावन मे कण कण मे भक्ति ,कण -कण मे प्रेम है-


वृंदावन मे तो रिक्शावाला भी राधे राधे बोलता है ओर जगह-जगह नाम संकीर्तन चलता रहता है-- इस श्लोक मे जरा गौर करें की इसमे लिखा है की भक्ति नृत्यति यत्र च-- भक्ति का वृंदावन मे नृत्य होता है---


वास्तव मे भक्ति कोई स्त्री नही है बल्कि भक्ति तो ह्रदय का भाव है--

ओर गुरुजी ने कथा मे बताया भी था की बहुत लोग प्रश्न करते है की वृंदावन की कौन सी गलि मे भक्ति नाचती है ?


गुरुजी बोले की -- वृंदावन जाना ओर बिहारी जी का दर्शन करना, अगर बिहारी जी का दर्शन करके तुम्हारा ह्रदय मस्ती से झुमने लगे तो समझना की भक्ति तुम्हारे ह्रदय मे नाच रही है---


ओर ये सत्य ही है की वृंदावन का कण कण भक्तिमय है --

जिसके लगन सच्ची होती है,,जिनका बिहारी जी के प्रति प्रेम बहूत गहरा होता है उनका ह्रदय भी वृंदावन ही बन जाता है ओर जहां जहां कथा होती है 


वहां का कथा पंडाल भी वृंदावन ही बन जाता है क्योकि स्थान चाहे कोई भी हो लेकिन जहां भागवत जी आकर बैठ जाए,वो स्थान तो साक्षात् वृंदावन ही बन जाता है---


इसलिए नारद जी ने भक्ति से कहा की आप वृंदावन मे आकर जवान हो गयी हो क्योकि वृंदावन आपका घर है ओर यहां कण कण मे प्रेम बसा है--


उसके बाद नारद जी ने कहा की कलियुग के प्रभाव के कारण तुम्हारे दोनो बेटो की ये दुर्दशा हो गयी है--


लोग ज्ञान ओर वैराग्य की बडी बडी बाते तो जरुर करते है लेकिन उस ज्ञान को जीवन मे नही उतार पाते--


एक प्रसंग गुरुजी कथा मे अक्सर सुनाते है की एक व्यक्ति बहुत सारा पैसा लेकर एक बाबा के पास गया ओर बोला की बाबा आप ये पैसा रख लो ओर मेरी तरफ से सेवा मे लगा देना--


बाबा जी बोले की- अरे तेरी ईतनी औकात की तू मुझे पैसा दिखा रहा है,क्या तुझे मालुम है की मै पैसे को छुता भी नही हूं---


वो व्यक्ति डर गया ओर बोला की महाराज आप क्रोध ना करें मै पैसो को वापिस ले जाता हूं---


बाबा जी बोले की-- अरे रुक,, मै पैसो को छूता नही हूं लेकिन ये पैसे मेरे पट्टे मे बांध दे--


लोग ज्ञान की बाते तो बहुत करते है लेकिन जीवन मे धारण नही कर पाते--


इसलिए नारद जी ने कहा की हे भक्ति.!कलियुग के प्रभाव से तुम्हारे बेटो की ये दुर्दशा हुई है--

नारद जी ने उन दोनो को वेद सुनाए,,उपनिषद् सुनाए,गीता सुनाई लेकिन वो दोनो अचेत अवस्था मे ही मुर्च्छित पडे रहे--


नारद जी को दुख हुआ की अब मै कैसे इन दोनो को स्वस्थ करूं--


नारद जी के अंदर दयाभाव है लेकिन कलियुग मे लोगो के अंदर दया खत्म होती जा रही है- लोग दुसरो का नुकसान ही सोचते रहते है --


नारद जी भक्ति के दुख को देखकर दुखी हुए ओर नारद जी ने कहा की आप चिंता मत कतो बल्कि प्रभु का चिंतन करो क्योकि चिंता से समस्या हल नही होगी बल्कि चिंतन से समस्या हल होगी--


नारद जी के प्रयास के बावजुद भी जब वो दोनो खडे नही हुऐ तो आकाशवाणी हूई की सत्कर्म करो,सत्कर्म करो,,सत्कर्म करो---


नारद जी ने सोचा की मैने वेद,उपनिषद्,गीत सुनाई इनसे बडा सत्कर्म ओर क्या होगा- नारद जी सोचते हुए जा रहे थे की सत्कर्म क्या है तो उसी समय ब्रह्मा के चारो पुत्र सनक सनंदन सनातन सनतकुमार नारद जी से मिले--


नारद जी ने सारी बात बताई ओर पूछा की वो सत्कर्म क्या है--

उन ऋषियो ने कहा की तुम उनको श्रीमद्भागवत का श्रवण कराओ --


श्रीमद्भागवत ही सत्कर्म है-

एक बात ध्यान मे जरुर रखनी चाहिये की जो लोग दुसरो की सहायता के लिए आगे बढते है तो भगवान भी उनका साथ देते है--


नारद जी भक्ति के दुख को दूर करने के लिए उस सत्कर्म के विषय मे सोचते हुए जा रहे थे तो भगवान की कृपा से नारद जी को मार्ग मे ब्रह्ना के चारो पुत्र मिल गये--


उसके बाद नारद जी ने श्रीमद्भागवत का आयोजन किया ओर ब्रह्मा के चारो पुत्रो को वक्ता बनाया गया--


बडे बडे ऋषि मुनि उस कथा मे पहुचें ओर दूर दूर से लोग आने लगे--- 


बहुत लोग तो एसे होते है जो कथा पंडाल के पास रहकर भी कथा मे नही जा पाते ओर कुछ लोग एसे होते है जो बहूत दुर रहकर भी कथा मे पहूंच जाते है-


बिहारी जी की कृपा से ही सत्संग मिलता है ओर जिसको मिलता है वो भाग्यशाली है-

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बुधवार, 20 मार्च 2024

भूख प्यास नींद आशा मे कौन है सबसे बड़ा

कौन है सबसे बड़ा



चार बुढिया थीं। 

उनमें विवाद का विषय था

कि हम में से बडी कौन है?


जब वे बहस करते-करते थक गयीं तो उन्होंने तय किया कि पडौस में जो नयी बहू आयी है,

उसके पास चल कर फैसला करवायें।


वह चारों बहू के पास गयीं। बहु- बहु हमारा फैसला कर दो कि हम में से कौन बडी है?


बहू ने कहा कि आप 

अपना-अपना परिचय दो!


पहली बुढिया ने कहा :


मैं भूख हूं। मैं बडी हूं न?


बहू ने कहा कि : भूख में विकल्प है ,

56 प्रकार के भोज व्यंजन से भी भूख मिट सकती है और बासी रोटी से भी !


दूसरी बुढिया ने कहा :


   मैं प्यास हूं,  मैं बडी हूं न ?


बहू ने कहा कि :

प्यास में भी विकल्प है, प्यास गंगाजल और मधुर- रस  से भी शान्त हो जाती है और वक्त पर तालाब का गन्दा पानी पीने से भी प्यास बुझ जाती है।


तीसरी बुढिया ने कहा-

मैं नींद हूं, मैं बडी हूं न ?


बहू ने कहा कि : नींद में भी विकल्प है। नींद सुकोमल-सेज पर आती है किन्तु वक्त पर लोग कंकड-पत्थर पर भी सो जाते हैं।


अन्त में चौथी बुढिया ने कहा -

मैं आस (आशा) हूं, मैं बडी हूं न ?


बहू ने उसके पैर छूकर कहा कि आशा का कोई विकल्प नहीं है।


आशा से मनुष्य सौ बरस भी जीवित रह सकता है, किन्तु यदि आशा टूट जाये तो वह जीवित नहीं रह सकता, भले ही उसके घर में करोडों की धन दौलत भरी हो।


यह आशा और विश्वास जीवन की शक्तियां हैं।

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गजब की कहानी .... गुरु की आज्ञा

गुरु आज्ञा


गोपिचंद एक राजा हुए है|वह जब राज पाट छोड कर गुरु शरण मे जाने लगे तो उनकी माता ने कहा - बेटा जा तो रहे हो पर वहाँ मजबूत किले मे ही रहना|

गोपिचंद- माँ मजबूत किले मे? वहाँ खुले मे खुले आकाश मे रहना होगा।

माँ - तुम समझे नही मै कोई महल या मकान की बात नही कर रही ! गुरु आज्ञा रूपी मजबूत किले की बात कर रही हूँ| गुरु की आज्ञा शिष्य, के लिए एक मजबूत किला जैसी ही होती है, गुरु सदैव शिष्य का भला ही सोचते है इसलिए वहाँ तन मन से गुरु की आज्ञा का पालन करना ! सदैव सुद्रड किले मे ही रहना |

ऐसा बोलते हुए माता जी ने अपने पुत्र को 

एक कहानी सुनाई कि---- 

ऐसे ही राजा चंद्र गुप्त मोर्य अपने गुरु की आज्ञा मे ही सदैव रहते थे चंद्रगुप्त मोर्य के लिए एक बार एक बहुत ही विशाल ओर सुंदर महल बनवाया गया ओर जब उसका उदघाटन का समय आया तो चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाडक्य जी को उदघाटन के लिए विनय की | 

जब उदघाटन का समय महल का नाम और महल को पूरा देख कर गुरुदेव ने आज्ञा दी, की अभी इसी वक्त इस महल को आग लगा दी जाये !

सभी हैरान परेशान हो गये कुछ लोग राजा को समझने लगे ऐसा मत करना इतना सुंदर महल जला कर राख मत करना 

परंतु चंद्र गुप्त को गुरु आज्ञा से बड कर कुछ भी था | ओर उसने उसी वक्त महल को जला ने की आज्ञा दे दी चारो तरफ से महल जला दिया गया | 

अब जब चारो तरफ से आग पूरे महल मे लगा दी गई, तो बहुत सी चीख पुकार कि आवाजे आने लगी | चंद्रगुप्त ने गुरुवर की तरफ हैरान हो कर देखा तो गुरु ने कहा -जब महल जल जाये तो खुद देख लेना ! 

ओर जब महल जल कर राख हो गया तो देखा बहुत से मनुष्य की जली हुई लाशे मिली !

अब गुरूवर ने बताया कि दुश्मन ने तुम्हें मारने का षड्यंत्र सुरंग बना कर रचा था| यदि तुम महल मे रहते तो तुम्हारी हत्या कर दी जाती| 

सभी गुरु के नत मस्तक हुए आज आप न होते तो हम अपने राजा को खो देते यदि राजा आप की आज्ञा का पालन ना करते तो जीवन समाप्त हो जाता अच्छा है जो राजा ने हमारी बात नही मानी ऐसा कह सारी प्रजा गुरु ,को प्रणाम करने लगी | 


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पढ़िए ये रोचक कहानी कि.... कर्म से कैसे बदलता है भाग्य

 

कर्म से बदल जाते हैं भाग्य

 

प्रकृत्य ऋषि का रोज का नियम था कि वह नगर से दूर जंगलों में स्थित शिव मन्दिर में भगवान् शिव की पूजा में लीन रहते थे। कई वर्षो से यह उनका अखण्ड नियम था।

उसी जंगल में एक नास्तिक डाकू का भी डेरा था। उसका भय आसपास के क्षेत्र में व्याप्त था। वह मन्दिरों में भी चोरी-डाका से नहीं चूकता था।

एक दिन डाकू की नजर प्रकृत्य ऋषि पर पड़ी। उसने सोचा यह ऋषि जंगल में छुपे मन्दिर में पूजा करता है, हो न हो इसने मन्दिर में काफी माल छुपाकर रखा होगा। आज इसे ही लूटते हैं।

डाकू ने प्रकृत्य ऋषि से कहा कि जितना भी धन छुपाकर रखा हो चुपचाप मेरे हवाले कर दो। ऋषि उसे देखकर तनिक भी विचलित हुए बिना बोले- कैसा धन ? मैं तो यहाँ बिना किसी लोभ के पूजा करने आता हूँ।

डाकू को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने क्रोध में ऋषि प्रकृत्य को जोर से धक्का मारा। ऋषि ठोकर खाकर शिवलिंग के पास जाकर गिरे और उनका सिर फट गया। रक्त की धारा फूट पड़ी।

इसी बीच आश्चर्य ये हुआ कि ऋषि प्रकृत्य के गिरने के फलस्वरूप शिवालय की छत से सोने की कुछ मोहरें डाकू के सामने गिरीं। उसने अट्टहास करते हुए बोला तू ऋषि होकर झूठ बोलता है। 

झूठे ब्राह्मण तू तो कहता था कि यहाँ कोई धन नहीं फिर ये सोने के सिक्के कहाँ से गिरे। अब अगर तूने मुझे सारे धन का पता नहीं बताया तो मैं यहीं पटक-पटकर तेरे प्राण ले लूँगा।

प्रकृत्य ऋषि करुणा में भरकर दुखी मन से बोले - हे शिवजी मैंने पूरा जीवन आपकी सेवा पूजा में समर्पित कर दिया फिर ये कैसी विपत्ति आन पड़ी ? प्रभो मेरी रक्षा करें। जब भक्त सच्चे मन से पुकारे तो भोलेनाथ क्यों न आते।

महेश्वर तत्क्षण प्रकट हुए और ऋषि को कहा कि इस होनी के पीछे का कारण मैं तुम्हें बताता हूँ। यह डाकू पूर्वजन्म में एक ब्राह्मण ही था। इसने कई कल्पों तक मेरी भक्ति की। परन्तु इससे प्रदोष के दिन एक भूल हो गई। 

यह पूरा दिन निराहार रहकर मेरी भक्ति करता रहा। दोपहर में जब इसे प्यास लगी तो यह जल पीने के लिए पास के ही एक सरोवर तक पहुँचा। संयोग से एक गाय का बछड़ा भी दिन भर का प्यासा वहीं पानी पीने आया। तब इसने उस बछड़े को कोहनी मारकर भगा दिया और स्वयं जल पीया। 

इसी कारण इस जन्म में यह डाकू हुआ। तुम पूर्वजन्म में मछुआरे थे। उसी सरोवर से मछलियाँ पकड़कर उन्हें बेचकर अपना जीवन यापन करते थे। जब तुमने उस छोटे बछड़े को निर्जल परेशान देखा तो अपने पात्र में उसके लिए थोड़ा जल लेकर आए। उस पुण्य के कारण तुम्हें यह कुल प्राप्त हुआ।

पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण इसका आज राजतिलक होने वाला था पर इसने इस जन्म में डाकू होते हुए न जाने कितने निरपराध लोगों को मारा व देवालयों में चोरियां की इस कारण इसके पुण्य सीमित हो गए और इसे सिर्फ ये कुछ मुद्रायें ही मिल पायीं।

तुमने पिछले जन्म में अनगिनत मछलियों को मारा जिसके कारण आज का दिन तुम्हारी मृत्यु के लिए तय था पर इस जन्म में तुम्हारे संचित पुण्यों के कारण तुम्हें मृत्यु स्पर्श नहीं कर पायी और सिर्फ यह घाव देकर लौट गई।

ईश्वर वह नहीं करते जो हमें अच्छा लगता है, ईश्वर वह करते हैं जो हमारे लिए सचमुच अच्छा है। यदि आपके अच्छे कार्यों के परिणाम स्वरूप भी आपको कोई कष्ट प्राप्त हो रहा है तो समझिए कि इस तरह ईश्वर ने आपके बड़े कष्ट हर लिए।

हमारी दृष्टि सीमित है परन्तु ईश्वर तो लोक-परलोक सब देखते हैं, सबका हिसाब रखते हैं। हमारा वर्तमान, भूत और भविष्य सभी को जोड़कर हमें वही प्रदान करते हैं जो हमारे लिए उचित है।


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मंगलवार, 19 मार्च 2024

खरमास 14 मार्च से 13 अप्रैल विशेष....जरूर पढ़िए


खरमास 14 मार्च से 13 अप्रैल विशेष


सूर्य देव को ग्रहों का राजा माना जाता है. वे 12 राशियों में क्रमवार गोचर करते हैं, उसका शुभ और अशुभ प्रभाव लोगों पर पड़ता है|सूर्य जब देव गुरु बृहस्पति की राशियों मीन और धनु में प्रवेश करते हैं तो उस समय खरमास लग जाता है| यह खरमास अंग्रेजी कैलेंडर के मार्च-अप्रैल और दिसंबर-जनवरी के बीच लगता है| वहीं हिंदू कैलेंडर के अनुसार, खरमास फाल्गुन-चैत्र और मार्गशीर्ष-पौष माह के बीच लगता है।  इस कारण इस अवधि में मांगलिक कार्य नहीं होते है। जैसे ही सूर्य धनु राशि मेंप्रवेश करता है तभी से खरमास आरम्भ हो जाता है और इसी के साथ शादी विवाह एवं अन्य मांगलिक कार्य निषेध हो जाते है।


इस माह में सूर्य मीन राशि का होता है। ऐसे में सूर्य का बल वर को प्राप्त नहीं होता। इस वर्ष 14 मार्च दिन 12:34 पर सूर्य के मीन राशि में प्रवेश करने से लेकर 13 अप्रैल 2024 रात्रि 09:03 पर सूर्य के मेष राशि मे प्रवेश करने तक तक खरमास रहेगा। वर को सूर्य का बल और वधू को बृहस्पति का बल होने के साथ ही दोनों को चंद्रमा का बल होने से ही विवाह के योग बनते हैं। इस पर ही विवाह की तिथि निर्धारित होती है।


खरमास शुरू हो जाने से विवाह संस्कारों पर एक माह के लिए रोक लग जाएगी। साथ ही अनेक शुभ संस्कार जैसे जनेऊ संस्कार, मुंडन संस्कार, गृह प्रवेश भी नहीं किया जाएगा। हमारे भारतीय पंचांग के अनुसार सभी शुभ कार्य रोक दिए जाएंगे। खरमास कई स्थानों पर मलमास के नाम से भी विख्यात है। शास्त्रों में मलमास शब्द की यह व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से बताई गई है।


‘मली सन् म्लोचति गच्छतीति मलिम्लुचः’ 

अर्थात् ‘मलिन (गंदा) होने पर यह आगे बढ़ जाता है।’


हिन्दू धर्म ग्रंथों में इस पूरे महीने में किसी भी शुभ कार्य को करने की मनाही है। जब गुरु की राशि धनु में सूर्य आते हैं तब खरमास का योग बनता है। वर्ष में दो मलमास पहला धनुर्मास और दूसरा मीन मास आता है। यानी सूर्य जब-जब बृहस्पति की राशियों धनु और मीन में प्रवेश करता है तब खर या मलमास होता है क्योंकि सूर्य के कारण बृहस्पति निस्तेज हो जाते हैं। इसलिये सूर्य के गुरु की राशि में प्रवेश करने से विवाह संस्कार आदि कार्य निषेध माने जाते हैं। विवाह और शुभ कार्यों से जुड़ा यह नियम मुख्य रूप से उत्तर भारत में लागू होता है जबकि दक्षिण भारत में इस नियम का पालन कम किया जाता है। मद्रास, चेन्नई, बेंगलुरू में इस दोष से विवाह आदि कार्य मुक्त होते हैं।


खरमास में व्रत का महत्व


जो व्यक्ति खरमास में पूरे माह व्रत का पालन करते हैं उन्हें पूरे माह भूमि पर ही सोना चाहिए| एक समय केवल सादा तथा सात्विक भोजन करना चाहिए| इस मास में व्रत रखते हुए भगवान पुरुषोत्तम अर्थात विष्णु जी का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहिए तथा मंत्र जाप करना चाहिए|  श्रीपुरुषोत्तम महात्म्य की कथा का पठन अथवा श्रवण करना चाहिए| श्री रामायण का पाठ या रुद्राभिषेक का पाठ करना चाहिए| साथ ही श्रीविष्णु स्तोत्र का पाठ करना शुभ होता है।


मास के आरम्भ के दिन श्रद्धा भक्ति से व्रत तथा उपवास रखना चाहिए| इस दिन पूजा – पाठ का अत्यधिक महात्म्य माना गया है| इसमास मे प्रारंभ के दिन दानादि शुभ कर्म करने का फल अत्यधिक मिलता है| जो व्यक्ति इस दिन व्रत तथा पूजा आदि कर्म करता है वह सीधा गोलोक में पहुंचता है और भगवान कृष्ण के चरणों में स्थान पाता है।


खरमास की समाप्ति पर स्नान, दान तथा जप आदि का अत्यधिक महत्व होता है| इस मास की समाप्ति पर व्रत का उद्यापन करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और अपनी श्रद्धानुसार दानादि करना चाहिए| इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात यह है कि खरमास माहात्म्य की कथा का पाठ श्रद्धापूर्वक प्रात: एक सुनिश्चित समय पर करना चाहिए।


इस मास में रामायण, गीता तथा अन्य धार्मिक व पौराणिक ग्रंथों के दान आदि का भी महत्व माना गया है| वस्त्रदान, अन्नदान, गुड़ और घी से बनी वस्तुओं का दान करना अत्यधिक शुभ माना गया है।


खरमास की पौराणिक प्रचलित कथा


लोक कथाओं के अनुसार खरमास (मलमास) को अशुभ माह मानने के पीछे एक पौराणिक कथा बताई जाती है। खर गधे को कहा जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मार्कण्डेय पुराण के अनुसार एक बार सूर्य अपने सात घोड़ों के राथ को लेकर ब्राह्मांड की परिक्रमा करने के लिए निकल पड़ते हैं।


इस परिक्रमा के दौरान सूर्य देव को रास्ते में कहीं भी रूकने की मनाही होती है, लेकिन सूर्य देव के सातों घोड़े कई साल निरंतर दौड़ने की वजह से जब प्यास से व्याकुल हो जाते हैं तो सूर्य देव उन्हें पानी पिलाने के लिए निकट बने एक तलाब के पास रूक जाते हैं। तभी उन्हें स्मरण होता है कि उन्हें तो रास्ते में कहीं रूकना ही नहीं है तो वो कुंड के पास कुछ गधों को अपने रथ से जोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। जिससे उनकी गति धीमी हो जाती है। यही वजह है कि खरमास को अशुभ माह के रूप में देखा जाता है।


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