डेढ़ लाख वर्ष पुराना है यह सूर्य मंदिर :-
काले और भूरे पत्थरों की अप्राप्य शिल्पकारी से बना यह सूर्य-मंदिर उड़ीसा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता जुलता है। मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राही लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है, जिसके अनुसार १२ लाख १६ हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इलापुत्र पुरूरवा ऎल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन् २०१४ ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल को एक लाख पचास हजार चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं।
विश्व का एकमात्र पश्चिमाभिमुख सूर्यमंदिर है :-
देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (प्रात:) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य, और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में यही एकमात्र सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है। जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदतियां प्रसिद्ध है जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है।
सूर्य पुराण में भी है इस मंदिर की कथा उपलब्ध है :-
सूर्य पुराण के अनुसार ऎल एक राजा थे, जो किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ रोग से पीडित थे। वे एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखाई पड़ा जिसके किनारे वे जल पीने गए और अंजुरी में भरकर जल पिया। जल पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर जल का स्पर्श हुआ उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के मैले जल में लेट गए और इससे उनका श्वेत कुष्ठ रोग पूरी तरह जाता रहा। शरीर में आशर्चजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऎल ने इसी वन में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया। रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमे प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि राजा ऎल ने इसी निर्देश के अनुसार सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुंड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर के यथावत रहने के बाद भी उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऎसा लगता है मानो बाद में स्थापित की गई हो।
देवशिल्पी विश्वकर्मा ने एक ही रात में बनाया था सूर्य मंदिर :-
मंदिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों से किया था। कहा जाता है कि इतना सुंदर मंदिर कोई साधरण शिल्पी बना ही नहीं सकता। इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहां भी सूर्य मंदिर है, उनका मुंह पूर्व की ओर है, लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी प्रात:कालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं।
जनश्रुति है कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड़ मूर्तियों एवं मंदिरों को तोड़ता हुआ यहां पहुंचा तो देव मंदिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मंदिर को न तोड़ें क्योंकि यहां के भगवान का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हंसा और बोला यदि सचमुच तुम्हारे भगवान में कोई शक्ति है तो मैं रात भर का समय देता हूं तथा यदि इसका मुंह पूरब से पश्चिम हो जाए तो मैं इसे नहीं तोड़ूंगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रात भर भगवान से प्रार्थना करते रहे। सबेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मंदिर का मुंह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मंदिर का मुंह पश्चिम की ओर ही है। हर साल चैत्र और कार्तिक के छठ मेले में लाखों श्रद्धालु विभिन्न स्थानों से यहां आकर भगवान भास्कर की आराधना करते हैं भगवान भास्कर का यह त्रेतायुगीन मंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। यूं तो वर्षों भर देश के विभिन्न जगहों से श्रद्धालु यहां मनौतियां मांगने और सूर्यदेव द्वारा उनकी पूर्ति होने पर अर्ध्य देने आते हैं।
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