गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

क्षमादान से बडा कोई यज्ञ नहीं...एक अनसुनि कथा

एक अनसुनि कथा 

वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच श्रेष्ठता का निर्णय



क्षमादान से बडा कोई यज्ञ नहीं...


क्षमः यशः क्षमा दानं क्षमः यज्ञः क्षमः दमः ।

क्षमा हिंसा: क्षमा धर्मः क्षमा चेन्द्रियविग्रहः ॥

अर्थात् :-

क्षमा ही यश है क्षमा ही यज्ञ और मनोनिग्रह है ,अहिंसा धर्म है।

और इन्द्रियों का संयम क्षमा के ही स्वरूप है क्योंकि क्षमा ही दया है और क्षमा ही पुण्य है क्षमा से ही सारा जगत् टिका है अतः जो मनुष्य क्षमावान है वह देवता कहलाता है। वही सबसे श्रेष्ठ है। 


वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच श्रेष्ठता का निर्णय इसी गुण ने तो किया था। ब्रह्मा जी विश्वामित्र के घोर तप से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्हें राजर्षि कहकर संबोधित किया। विश्वामित्र इस वरदान से संतुष्ट न थे। उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से जाहिर कर दिया कि ब्रह्मा उन्हें समुचित पुरस्कार नहीं दे रहे। ब्रह्माजी ने कहा- तुम्हें बहुत ज़ल्दी आभास हो जाएगा कि आखिर मैंने ऐसा क्यों कहा। जो चीज़ तुम्हें मैं नहीं दे सकता उसे तुम उससे प्राप्त करो जिससे द्वेष रखते हो। विश्वामित्र के लिए यह जले पर नमक छिड़कने की बात हो गयी। जिस वसिष्ठ से प्रतिशोध के लिए राजा से तपस्वी बने हैं उनसे वरदान लेंगे! ब्रह्मा अपने पुत्र को श्रेष्ठ बताने के लिए भूमिका बांध रहे हैं।


विश्वामित्र सामान्य बात को भी आन पर ले लेते थे इसलिए राजर्षि ही रहे जबकि वशिष्ठ क्षमा की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने यह भूला दिया कि विश्वामित्र ही उनके पुत्र शक्ति की हत्या के लिए उत्तरदायी हैं। वह अपनी पत्नी अरुंधति से विश्वामित्र केे तप की प्रशंसा किया करते थे। एकदिन विश्वामित्र हाथ में तलवार लिए वशिष्ठ की हत्या करने चुपके से आश्रम में घुसे थे। उन्होंने वशिष्ठ और अरुंधति को बात करते देखा। वशिष्ठ कह रहे थे- अरुंधति! तपस्वी हो तो विश्वामित्र जैसा।


हाथ से तलवार छूट गई। राजर्षि विश्वामित्र वशिष्ठ के चरणों में लोट गए- हा देव! क्षमा! हा देव क्षमा! इसके अलावा कुछ निकलता ही न था मुख से। वशिष्ठ ने कहा- उठिए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र! देवो ने पुष्पवर्षा करके वशिष्ठ का अनुमोदन कर दिया। क्षमा गुण धारण करने के कारण वशिष्ठ वह वरदान देने में समर्थ थे जो स्वयं ब्रह्मा न दे सके। बड़े दिल वाला व्यक्ति आरम्भ में मात खा सकता है परंतु अंतिम बाज़ी उसी के हाथ होती है।





जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती ,ऐसी कहानी जो सोचने पर मजबूर कर देगी ......

 शरण

 

शरण




 एक गरीब आदमी की झोपड़ी पर… 

 रात को जोरों की वर्षा हो रही थी . सज्जन था , छोटी सी झोपड़ी थी . स्वयं और उसकी पत्नी , दोनों सोए थे . आधी रात किसी ने द्वार पर दस्तक दी . 


 उन सज्जन ने अपनी पत्नी से कहा - उठ ! द्वार खोल दे . पत्नी द्वार के करीब सो रही थी  .

  पत्नी ने कहा - इस आधी रात में जगह कहाँ है ? कोई अगर शरण माँगेगा तो तुम मना न कर सकोगे ?  


 वर्षा जोर की हो रही है | कोई शरण माँगने के लिए ही द्वार आया होगा न ! 

  जगह कहाँ है ? उस सज्जन ने कहा - जगह ? दो के सोने के लायक तो काफी है , तीन के बैठने के लायक काफी हो जाएगी ,  तू दरवाजा खोल ! 


 लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो नहीं लौटाना है | दरवाजा खोला ,कोई शरण ही माँग रहा था  | भटक गया था और वर्षा मूसलाधार थी . वह अंदर आ गया | तीनों बैठकर गपशप करने लगे | सोने लायक तो जगह न थी . 


 थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक दी | फिर उस सज्जन ने अपनी पत्नी से कहा - खोल !  

 पत्नी ने कहा - अब करोगे क्या ? जगह कहाँ है ? अगर किसी ने शरण माँगी तो ?  


 उस सज्जन ने कहा - अभी बैठने लायक जगह है फिर खड़े रहेंगे , मगर दरवाजा खोल ! जरूर कोई मजबूर है . फिर दरवाजा खोला | वह अजनबी भी आ गया | अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे | इतना छोटा झोपड़ा ! और खड़े हुए चार लोग ! 


 और तब अंततः एक कुत्ते ने आकर जोर से आवाज की , दरवाजे को हिलाया | सज्जन ने कहा - दरवाजा खोलो . 

 पत्नी ने दरवाजा खोलकर झाँका और कहा - अब तुम पागल हुए हो !  

 यह कुत्ता है , आदमी भी नहीं !  

 सज्जन बोले - "हमने पहले भी आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था" , "अपने हृदय के कारण खोला था ! !! "

 हमारे लिए कुत्ते और आदमी में क्या फर्क ? 


 हमने मदद के लिए दरवाजा खोला था । उसने भी आवाज दी है | उसने भी द्वार हिलाया है | उसने अपना काम पूरा कर दिया , अब हमें अपना काम करना है । दरवाजा खोलो ! 


 उनकी पत्नी ने कहा - अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं है ! 

  उसने कहा - अभी हम जरा आराम से खड़े हैं , फिर थोड़े सटकर खड़े होंगे  

 और एक बात याद रख ! 


  "यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें जगह की कमी हो ! " 


 यह गरीब का झोपड़ा है , इसमें खूब जगह है ! !!  

 जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती , जगह दिलों में होती है !  


 अक्सर आप पाएँगे कि गरीब कभी कंजूस नहीं होता ! उसका दिल बहुत बड़ा होता है ! !! 


 कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है ही नहीं | पकड़े तो पकड़े क्या ?  

 जैसे जैसे आदमी अमीर होता है , वैसे कंजूस होने लगता है , उसमें मोह बढ़ता है , लोभ बढ़ता है ।


 जरूरतमंद को अपनी क्षमता अनुसार शरण दीजिए । दिल बड़ा रखकर अपने दिल में औरों के लिए जगह जरूर रखिये..!!

अंधेरा वहां नहीं है,जहां तन गरीब है, अंधेरा वहां है, जहां मन गरीब है।


ऐसी कहानी जो सोचने पर मजबूर कर देगी 


बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

माता सीता की यह रोचक लोककथा धन के भंडार भर देगी


माता सीता की यह रोचक लोककथा



इस कहानी को सीता माता कहती थी और श्रीराम सुना करते थे। एक दिन श्रीराम भगवान को किसी काम के लिए बाहर जाना पड़ गया तो सीता माता कहने लगी कि भगवान मेरा तो बारह वर्ष का नितनेम (नित्य नियम) है। अब आप बाहर जाएंगे तो मैं अपनी कहानी किसे सुनाऊंगी? श्रीराम ने कहा कि तुम कुएं की पाल पर जाकर बैठ जाना और वहां जो औरतें पानी भरने आएंगी उन्हें अपनी कहानी सुना देना। 


सीता माता कुएं की पाल पर जाकर बैठ जाती हैं। एक स्त्री आई उसने रेशम की जरी की साड़ी पहन रखी थी और सोने का घड़ा ले रखा था। सीता माता उसे देख कहती हैं कि बहन मेरा बारह वर्ष का नितनेम सुन लो। पर वह स्त्री बोली कि मैं तुम्हारा नितनेम सुनूंगीं तो मुझे घर जाने में देर हो जाएगी और मेरी सास मुझसे लड़ेगी। उसने कहानी नहीं सुनी और चली गई। उसकी रेशम जरी की साड़ी फट गई, सोने का घड़ा मिट्टी के घड़े में बदल गया।  

सास ने देखा तो पूछा कि ये किस का दोष अपने सिर लेकर आ गई है? बहू ने कहा कि कुएं पर एक औरत बैठी थी उसने कहानी सुनने के लिए कहा लेकिन मैने सुनी नही जिसका यह फल मिला। 

 

बहू की बात सुनकर अगले दिन वही साड़ी और घड़ा लेकर सास कुएं की पाल पर गई। सास को वहीं माता सीता बैठी मिलीं तो माता सीता ने कहा कि बहन मेरी कहानी सुन लीजिए...  सास बोली कि एक बार छोड़, मैं तो चार बार कहानी सुन लूंगी... . 

 

राम आए लक्ष्मण आए देश के पुजारी आए 

नितनेम का नेम लाए आओ राम बैठो राम

तपी रसोई जियो राम, माखन मिसरी खाओ राम

दूध बताशा पियो राम,सूत के पलका मोठो राम

शाल दुशाला पोठो राम, शाल दुशाला ओढ़ो राम

जब बोलूं जब राम ही राम, राम संवारें सब के काम

खाली घर भंडार भरेंगे सब का बेड़ा पार करेंगे

 

श्री राम जय राम जय-जय राम

 

सास बोली कि बहन कहानी तो बहुत अच्छी लगी। कहानी सुनकर सास घर चली गई और उसकी साड़ी फिर से रेशम जरी की बन गई। मिट्टी का घड़ा फिर सोने के घड़े में बदल गया। बहू कहने लगी सासू मां, आपने ये सब कैसे किया? सास ने कहा कि बहू तू दोष लगा के आई थी और मैं अब दोष उतारकर आ रही हूं. . . बहू ने फिर पूछा कि वह कुएं वाली स्त्री कौन है? सास बोली कि वे सीता माता थीं... वे पुराने से नया कर देती हैं, खाली घर में भंडार भर देती हैं, वह लक्ष्मी जी का वास घर में कर देती हैं, आदमी की जो भी इच्छा हो उसे पूरा कर देती हैं.... बहू बोली कि ऎसी कहानी मुझे भी सुना दो.... सास बोली कि ठीक है तुम भी सुनो और सास ने कहानी शुरु की...  


राम आए लक्ष्मण आए देश के पुजारी आए 

नितनेम का नेम लाए आओ राम बैठो राम

तपी रसोई जियो राम, माखन मिसरी खाओ राम

दूध बताशा पियो राम,सूत के पलका मोठो राम

शाल दुशाला पोठो राम, शाल दुशाला ओढ़ो राम

जब बोलूं जब राम ही राम, राम संवारें सब के काम

खाली घर भंडार भरेंगे सब का बेड़ा पार करेंगे

 

श्री राम जय राम जय-जय राम

 

कहानी सुनकर बहू बोली कि कहानी तो बहुत अच्छी है.. .. सास ने कहा कि ठीक है इस कहानी को रोज कहा करेगें। अब सास-बहू रोज सवेरे उठती, नहाती-धोती और पूजा करने के बाद नितनेम की सीता की कहानी कहती। एक दिन उनके यहां एक पड़ोस की औरत आई और बोली कि बहन जरा सी आंच देना तो वह बोली कि आंच तो अभी हमने जलाई ही नहीं।


 पड़ोसन ने कहा कि तुम सुबह चार बजे से उठकर क्या कर रही हो फिर? उन्होंने कहा कि सुबह उठकर हम पूजा करते हैं फिर सीता माता की नितनेम की कहानी कहते हैं। 


पड़ोसन ने उनकी बात सुनकर फिर कहा कि सीता माता की कहानी कहने से तुम्हें क्या मिला? वे बोली कि इनकी कहानी कहने से घर में भंडार भर जाते हैं। सारे काम सिद्ध होते हैं, मन की इच्छा भी पूरी होती है। पड़ोसन कहती है कि बहन ऎसी कहानी तो मुझे भी सुना दो फिर। वह बोली कि ठीक है तुम भी यह कहानी सुन लो... 

 

राम आए लक्ष्मण आए देश के पुजारी आए

नितनेम का नेम लाए आओ राम बैठो राम ……………..


सारी कहानी सुनने के बाद पड़ोसन कहने लगी बहन कहानी तो मुझे बहुत अच्छी लगी। अब वह पड़ोसन भी नितनेम सीता माता की कहानी कहने लगी। कहानी कहने से सीता माता ने पड़ोसन के भी भंडार भर दिए। अब  तो पूरे मोहल्ले में नितनेम की कथा चल पड़ी.. हर किसी की मनोकामना पूरी होने लगी...


 

हे सीता माता ! जैसे आपने उनके भंडार भरे, वैसे ही आप हमारे भी भंडार भरना। कहानी सुनने वाले के भी और कहानी कहने वाले के भी।

 

उत्तरप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में आज भी यह कथा सीता जयंती पर चाव से सुनाई जाती है।

सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

क्या भगवान वैसे हैं जैसा आप सोचते हैं पढिये कथा

 

क्या भगवान वैसे हैं जैसा आप सोचते हैं




गाँँव के मन्दिर में एक बडे धर्मात्मा पुजारी थे और कभी भी, किसी को दान देने के लिए उकसाते नहीं थे, न ही कभी किसी से दान-दक्षिणा की मांग करते थे। वे इतने स्वाभिमानी व्यक्ति थे कि जितना मंदिर चढ़ावे की राशि आती, उसमें से भी वे केवल उतनी ही राशि लेते थे जिससे उन दोनों दंपत्ति का जीवन-निर्वाह हो जाए, शेष राशि वे मंदिर के ट्रस्टी को पहूँँचा देते थे। अब उनको अहंकारी कहें या धर्मात्मा, उनका कहना था कि भगवान उन्हें जितना देना चाहते हैं, उतना चढ़ावे के रूप में ही दे देते हैं और मैं उससे ज्यादा की मांग नहीं कर सकता।

          समय बीतता गया और पुजारी व उनकी पत्नी काफी वृद्ध हो गए। धीरे-धीरे किसी कारणवश उनकी धर्म पत्नी की तबीयत बहुत खराब रहने लगी। जब वे अपनी पत्नी को लेकर अस्पताल गए तो डॉक्टर ने उनकी पत्नी की जाँच करके बताया कि, “पुजारीजी, आपकी पत्नी का ऑपरेशन करना पड़ेगा, और ऑपरेशन के लिए लगभग एक लाख रूपये तक का खर्चा आएगा। अगर आपने जल्दी से जल्दी पैसों का इंतजाम नहीं किया, तो हम इन्हे नहीं बचा पाऐंगे।“

          पुजारी ने जब ईलाज के लिए इतनी बड़ी रकम सुनी तो उनकी हालत खराब हो गई क्योंकि उनके पास केवल इतना ही रूपया था, जिससे वे दोनों अपना गुजारा कर सकें। उनके पास उनके पूर्वजों की कोई जमीन-जायदाद या सम्पत्ति आदि भी नहीं थी, जिसे बेचकर वे एक लाख रूपये का इंतजाम कर पाते। इसलिए जब उन्हें रूपयों का इन्तजाम करने के लिए कोई भी रास्ता समझ में नहीं आया, तो अन्त में वे मंदिर में ही प्रार्थना करने लगे कि, ”हे भगवान, मुझे मेरी पत्नी के ईलाज के लिए एक लाख रूपये की जरूरत है। इसलिए कृपया मुझे एक लाख रूपये दे दीजिए।”

          उसी रास्ते से एक जुआरी रोज गुजरता था, जो दिन भर की कमाई से रात को जुआ खेलता और हर रोज हार जाता था। पुजारी जब ईश्वर से यह प्रार्थना कर रहे थे, ठीक उसी वक्त वह जुआरी वहाँ से गुजर रहा था और संयोगवश उसने पुजारी की ये सारी बाते सुन ली, लेकिन वह नशे में था इसलिए पुजारी पर कोई ध्यान दिए बिना वहाँ से चला गया और रोज की तरह जुआ खेलने लगा।

          रोज तो वह जुआरी अपनी सारी कमाई हार जाता था, लेकिन आज पता नहीं क्यों वह जुआरी जीत रहा था। उस रात वह जुआरी दो लाख रूपये जीत कर लौटा और उसे वह पुजारी वहीं बैठे मिले। जुआरी पुजारी के पास आकर बोला कि, ”ये एक लाख रूपये ले लीजिए और अपनी पत्नी का ईलाज करवाइए।” लेकिन पुजारी ने कहा, “मैं तुमसे ये पैसे नहीं ले सकता। मुझे मेरा भगवान आकर पैसा देगा।”

          पंडित की बात जुआरी को बड़ी अजीब लगी। उसने सवाल किया- “आपका भगवान स्वयं आकर पैसा कैसे देगा ? आप कैसे भगवान का इन्तजार कर रहे हैं ? मैं ही भगवान हूँ। लीजिए यह पैसा और ईलाज करवाईए अपनी पत्नी का।“

          लेकिन वह पुजारी नहीं माना। उसने जुआरी के पैसे नहीं लिए। अन्त में जुआरी भी उस पुजारी से नाराज होकर चला गया और वही हुआ जो होना था। पुजारी के लिए कोई भगवान पैसे लेकर नहीं आया और पैसे जमा न करवा पाने के कारण उनकी पत्नी का ईलाज न हो सका व उसकी मृत्यु को प्राप्त हो गई।

          कुछ दिन बाद वही जुआरी फिर से मंदिर के आगे से गुजर रहा था, तभी वह पुजारी के पास आया और पूछा, “क्या आपकी पत्नी का ईलाज हो गया ? क्या अब वो ठीक है ?”

          पुजारी ने प्रत्युत्तर दिया, “नहीं, वो मर गई। भगवान ने मेरी पत्नी को मार दिया। भगवान मेरे लिए एक लाख रूपये लेकर नहीं आया। इसलिए भगवान की वजह से मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई।“

          उस जुआरी ने पुजारी से कहा, “आपकी पत्नी को भगवान ने नहीं बल्कि आपने ही मारा है, क्योंकि उस रात पहली बार मैं जुए में इतनी बडी रकम जीता था। शायद भगवान मेरे माध्यम से आपको ही वह रूपया पहुँचाना चाहते थे, इसीलिए तो जब मैं उतनी बड़ी रकम जीता, तो जाने क्यों मेरे मन में खयाल आया कि मैं आपको उसमें से 1 लाख रूपए दे दूँ,  ताकि आप अपनी पत्नी का ईलाज करवा सकें। लेकिन आपने वो पैसे स्वीकार ही नहीं किए और चमत्कार देखिए, मैं वो सारा पैसा अगले ही दिन फिर जुए में हार गया। निश्चित ही भगवान ने मुझे वह पैसा आपके लिए ही जितवाया था, अन्यथा मैं अगले ही दिन फिर से सारा पैसा क्यों हार जाता लेकिन आप जाने किस तरह के भगवान का इंतजार कर रहे थे ?“

          इतना कहकर जुआरी तो वहाँ से चला गया, लेकिन उस दिन के बाद वह पुजारी मंदिर में भगवान की पूजा-अर्चना नहीं कर पाया।

          सही ही तो कहा था जुआरी ने। वह किस तरह के भगवान का इंतजार कर रहा था ? उस मूर्ति जैसे स्वरूप वाले भगवान का, जिसकी वह हर रोज पूजा-अर्चना किया करता था ?

          क्योंकि भगवान की मूर्ति का वह स्वरूप तो किसी ऐसे इंसान ने ही बनाया था, जिसने स्वयं कभी भगवान को नहीं देखा था। उस पुजारी के लिए भगवान एक जुआरी के रूप में आये थे, लेकिन वह पुजारी उन्हें नहीं पहचान सका।



शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

मुसीबत या परेशानी स्थाई नहीं होती दिल को छू लेने वाली कहानी ......


दिल को छू लेने वाली कहानी


        एक साधु यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका।आनंद ने साधू  की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।


साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की  - "भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।"

       *साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - "अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला।" साधू आनंद  की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया 


      दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है । पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है । साधू आनंद से मिलने गया।


  आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया । झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया । खाने के लिए सूखी रोटी दी । दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे । साधू कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या किया ?"

     आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "महाराज  आप क्यों दु:खी हो रहे है ? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और हां सुनो ! यह भी नहीं रहने वाला।"


      साधू मन ही मन सोचने लगा - "मैं तो केवल भेष से साधू  हूँ । सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।"


      कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद  तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है ।  मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया। 


साधू ने आनंद  से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया। भगवान्  करे अब तू ऐसा ही बना रहे।"

    यह सुनकर आनंद  फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "महाराज ! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।"

  साधू ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला ?"

    आनंद उत्तर दिया - "हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा । कुछ भी रहने वाला नहीं  है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।"

आनंद  की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।

       साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं,और आनंद का देहांत हो गया है। बेटे अपनी पत्नियों के साथ शहर चले गए बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं,बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।


साधू  सोचता है - "अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है ? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ । लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"


 साधू सोचता है - "धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।"


साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद  ने अपनी तस्वीर  पर लिखवा रखा है -"आखिर में यह भी नहीं रहेगा।


कुछ वर्ष बाद आनंद के बेटो ने यह हवेली बगल के गांव वाले जमीदार को बेच दी। हवेली फिर पहले से भी ज्यादा रोशन होकर चमक रही थी..!!


गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

रामायण और रामचरितमानस के 10 बड़े अंतर


रामायण और रामचरितमानस के 10 बड़े अंतर



वाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीदास कृत रामायण में कई बड़े अंतर हैं। 


1. काल का अंतर : महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना प्रभु श्रीराम के जीवन काल में ही की थी। राम का काल 5114 ईसा पूर्व का माना जाता है, जबकि गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस को मध्यकाल अर्थात विक्रम संवत संवत्‌ 1631 अंग्रेंजी सन् 1573 में रामचरित मान का लेखन प्रारंभ किया और विक्रम संवत 1633 अर्थात 1575 में पूर्ण किया था। एक शोध के अनुसार रामायण का लिखित रूप 600 ईसा पूर्व का माना जाता है।


2. भाषा का अंतर : महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण को संस्कृत भाषा में लिखा था जबकि तुलसीदासजी ने रामचरित मानस को अवधी में लिखा था। हालांकि रामचरितमानस की भाषा के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। कोई इसे अवधि मानता है तो कोई भोजपुरी। कुछ लोक मानस की भाषा अवधी और भोजपुरी की मिलीजुली भाषा मानते हैं। मानस की भाषा बुंदेली मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है।

 

3. कथा के आधार में अंतर : महर्षि वाल्मीकि जी ने श्रीराम के जीवन को अपनी आंखों से देखा था। उनकी कथा का आधार खुद राम का जीवन ही था जबकि तुलसीदासजी ने रामायण सहित अन्य कई रामायणों को आधार बनाकर रामचरितमानस को लिखा था। यह भी कहते हैं कि उनकी सहायता हनुमानजी ने की थी। 

 

4.श्लोक और चौपाई : रामायण को संस्कृत काव्य की भाषा में लिखा गया जिसमें सर्ग और श्लोक होते हैं, जबकि रामचरित मानस के दोहो और चौपाइयों की संख्या अधिक है। रामायण में 24000 हजार श्लोक और 500 सर्ग तथा 7 कांड है। रामचरित मानस में श्लोक संख्या 27 है, चौपाई संख्या 4608 है, दोहा 1074 है, सोरठा संख्या 207 है और 86 छन्द है।


5. रामायण से ज्यादा प्रचलित है रामचरित मानस : वर्तमान में वाल्मीकि कृत रामायण को पढ़ना और समझना कठिन है क्योंकि उसकी भाषा संस्कृत है जबकि रामचरित मानस को वर्तमान की आम बोलचाल की भाषा में लिखा गया है। जनामनस की इस भाषा के कारण ही रामचरित मानस का पाठ हर जगह प्रचलित है।

 

6.राम के चरित्र का अंतर : वाल्मीकि कृत रामायण में राम को एक साधारण लेकिन उत्तम पुरुष के रूप में चित्रित किया है, जबकि रामचरित मानस में पात्रों और घटनाओं का अलंकारिक चित्रण किया गया है। इस चरित्र चित्रण में तुलसीदास ने हिन्दी भाषा के अनुप्रास अलंकार, श्रृंगार, शांत और वीररस का प्रयोग मिलेगा। इसमें तुलसीदासजी ने भगवान राम के हर रूप का चित्रण किया गया है। रामचरित मानस में राम ही नहीं रामायण के हर पात्र को महत्व दिया गया है। सभी के चरित्र का खुलासा हुआ है। तुलसीदासजी ने राम के चरित को एक महानायक और महाशक्ति के रूप में चित्रित किया।


7. घटनाओं में अंतर : वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में घटनाओं में कुछ अंतर मिलेगा। जैसे श्रीराम और सीता जनकपुरी में बाग में एक दूसरे को देखते हैं तब सीताजी शिवजी से प्रार्थना करती हैं कि श्रीराम से ही उनका विवाह हो यह प्रसंग तुलसीकृत रामचरित मानस में है वाल्मीकि रामायण में नहीं।


धनुष प्रसंग भी तुलसीकृत रामचरित मानस में भिन्न मिलेगा। अंगद के पैर का नहीं हिलना, हनुमानजी का सीना चीरकर रामसीता का चित्र दिखाना, अहिरावण का प्रसंग यह तुलसीकृत रामचरित मानस में ही मिलेगा। वाल्मीकि रामायण में इंद्र के द्वारा भेजे गए मातलि राम को बताते हैं कि रावण का वध कैसे करना है जबकि तुलसीकृत रामचरित मानस में यह प्रसंग नहीं मिलता। रावण के वध के लिए ह्रदय में उस समय वार करना जब रावण अति पीड़ा से सीताजी के बारे में विचार न कर रहा हो यह विभीषण द्वारा बताया जाना भी तुलसीकृत रामचरितमानस में है जबकि रामायण में नहीं। 

 

वाल्मीकि रामायण में रावण इत्यादि की तप साधना के बारे में विस्तार से वर्णन है जबकि तुलसीकृत रामायण में नहीं। विश्वामित्र द्वारा दशरथ से राम को राक्षसों के वध के लिए मांगने का प्रसंग भी तुलसीकृत रामायण में भिन्न मिलेगा। विश्वामित्रजी से बला और अतिबला नमक विद्या की प्राप्ति का वर्णन भी तुलसीकृत रामायण में नहीं मिलेगा। ताड़का वध प्रसंग प्रसंग भी थोड़ा अलग है।


कैकेयी द्वारा वरदान का वर्णन भी भिन्न मिलेगा। जब भरत श्री रामचन्द्रजी को लेने वन में जाते हैं तो वहां राजा जनक भी पधारते हैं। जनक का उल्लेख तुलसीकृत रामायण में नहीं मिलेगा। इसी तरह और भी कई प्रसंग है जो या तो तुलसीकृत रामचरित मानस में नहीं हैं और है तो भिन्न रूप में।


दरअस, गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस को लिखने के पहले उत्तर और दक्षिण भारत की सभी रामायणों का अध्ययन किया था। उन्होंने रामचरित मानस में उसी प्रसंग को रखा जो कि महत्वपूर्ण थे। कहते हैं कि रामायण में जो वाल्मीकि नहीं लिख पाए उन्होने वह आध्यात्म रामायण में लिखी थी। तुलसीदानसजी ने कुछ प्रसंग आध्यात्म रामायण से भी उठाएं थे। 

 

8. रामायण और रामचरित मानस का अर्थ : रामायण का अर्थ है राम का मंदिर, राम का घर, राम का आलय या राम का मार्ग, जबकि रामचरित मानस का अर्थ राम के रचित्र का सरोवर। राम के मन का सरोवर। रामररित मानस को राम दर्शन भी कहते हैं। मंदिर में जाने के जो नियम है वही सरोवर में स्नान के नियम है। मंदिर जाने से भी पाप धुल जाते हैं और पवित्र सरोवर में स्नान करने से भी।


9. ऋषि और भक्त की लिखी रामायण : महर्षि वाल्मीकि प्रभु श्रीराम के प्रशंसक जरूर थे लेकिन वे भक्त तो भगवान शिव के थे। उन्होंने शिव की मदद से ही इस रामायण को लिखा था, जबकि तुलसीदासजी प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त थे और उन्होंने स्वप्न में भगवान शिव के आदेश से रामभक्त हनुमान की मदद से रामचरित मानस को लिखा था।

 

10. कांड : रामचरित मानस में आखिरी से पहले काण्ड को लंकाकाण्ड कहा गया जबकि रामायण में आखिरी से पहले काण्ड को युद्धकाण्ड कहा गया। कहते हैं कि उत्तरकांड को बाद में जोड़ा गया था।

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

आखिर "शहर" हार गया , रिश्तों की डोर मजबूत होती है

 

विरासत


  महेश के घर आते ही बेटे ने बताया कि   

वर्मा अंकल   "आर्टिगा" गाड़ी ले आये हैं। पत्नी ने चाय का कप पकड़ाया और बोली पूरे   "13 लाख" की गाड़ी खरीदी और वो भी कैश में !!


 महेश  - हाँ हूँ" करता रहा। आखिर में पत्नी का धैर्य जवाब दे गया !! हम लोग भी अपनी एक गाड़ी ले लेते हैं, तुम मोटर साईकल से दफ्तर जाते हो क्या अच्छा लगता है कि सभी लोग गाड़ी से आएं और तुम बाइक चलाते हुए वहाँ पहुंचो, कितना खराब लगता है। तुम्हे न लगे  पर मुझे तो लगता है !!


      देखो , घर की किश्त और बाल बच्चों के पढ़ाई लिखाई के बाद इतना नही बचता कि गाड़ी लें। फिर आगे भी बहुत खर्चे हैं !! महेश धीरे से बोला। बाकी लोग भी तो कमाते हैं, सभी अपना शौक पूरा करते हैं, तुमसे कम तनखा पाने वाले लोग भी, "स्कोर्पियोसी  से चलते हैं, तुम जाने कहाँ  "पैसे फेंक कर आते हो। पत्नी तमतमाई !! अरे भई सारा पैसा तो तुम्हारे हाथ मे ही दे देता हूँ, अब तुम जानो   "कहाँ खर्च होता है !! महेश ने कहा !!


 मैं कुछ नही जानती, तुम गाँव की जमीन बेंच दो !! यही तो समय है जब घूम घाम लें हम भी ज़िंदगी जी लें। मरने के बाद क्या जमीन साथ लेकर जाओगे। क्या करेंगे उसका। मैं कह रही हूँ   कल ही गाँव जाकर सौदा तय करके आओ बस्स !! पत्नी ने निर्णय सुना दिया।


 अच्छा ठीक है पर तुम भी साथ चलोगी। महेश बोला । पत्नी खुशी खुशी मान गयी और शाम को सारे मुहल्ले में खबर फैल गयी कि "सरला" जल्द ही गाड़ी लेने वाली है !!


 दूसरे दिन महेश और सरला खेत पहुँच गये। गाँव में भाई का परिवार था। चाचा को आते देख बच्चे दौड़ पड़े। बच्चों ने उन्हें खेत पर ही रुकने को बोला ...!! चाचा माँ आ रही है। तब तक महेश की भाभी लोटे में पानी लेकर वहाँ आईं और दोनों के  "धार" (नजर) उतारने के बाद बोलीं लल्ला अब घर चलो।


 बहुत दिन बाद वे लोग गाँव आये थे !! कच्चा घर एक तरफ गिर गया था। एक छप्पर में दो गायें बंधीं थीं !! बच्चों ने आस पास फुलवारी बना रखी थी, थोड़ी सब्जी भी लगा रखी थी। सरला को उस जगह की सुगंध ने मोह लिया !! भाभी ने अंदर बुलाया पर वह बोली .... यहीं बैठेंगे !!  और वह वहीं रखी खटिया पर बैठ गयी। 


 महेश के भाई  कथा कहते थे। एक बालक भाग कर उन्हें बुलाने गया। उस समय वह "राम और भरत" का "संवाद" सुना रहे थे !! बालक ने कान में कुछ कहा, उनकी "आंख" से झर झर आँसू गिरने लगे !! कण्ठ अवरुद्ध हो गया !! जजमानों से क्षमा मांगते बोले, आज "भरत" ..... वन से आया है ..... "राम" की नगरी !!


 श्रोता गण समझ नही सके कि   महाराज आज यह उल्टी बात क्यों कह रहे हैं !! नरेश पंडित अपना झोला उठाये नारायण को विश्राम दिया !! और घर को चल दिये , महेश ने जैसे ही भैया को देखा ,  दौड़ पड़ा  !! पंडित जी के हाथ से झोला छूट गया, भाई को अँकवार में भर लिए। दोनो भाइयों को इस तरह लिपट कर रोते देखना सरला के लिए अनोखा था। उसकी भी आंखे नम हो गयीं !! भाव के बादल किसी भी सूखी धरती को.... "हरा भरा" कर देते हैं।


 वह उठी और "जेठ" के पैर छुए !! पंडित जी के "मांगल्य और वात्सल्य" शब्दों को सुनकर वह .... अन्तस तक भरती चली गयी !! दो पैक कमरे में रहने की अभ्यस्त आंखें सामने की हरियाली और निर्दोष हवा से सिर हिलाती नीम, आम और पीपल को देखकर सम्मोहित सी हो रहीं थीं !! लेकिन "आर्टिगा का चित्र"   बार बार उस सम्मोहन को तोड़ रहा था। वह खेतों को देखती तो उसकी कीमत का अनुमान लगाने बैठ जाती।


 दोपहर में खाने के बाद पण्डित जी  नित्य "मानस" पढ़ कर बच्चों को सुनाते थे। आज घर के सदस्यों में दो सदस्य और बढ़ गए थे। अयोध्याकांड चल रहा था। मन्थरा , कैकेयी को समझा रही थी , "भरत" को राज कैसे मिल सकता है !! पाठ के दौरान .. सरला असहज होती जाती !!  जैसे किसी ने उसकी चोरी पकड़ ली हो। पाठ खत्म हुआ। पोथी रख कर पण्डित जी गाँव देहात की समसामयिक बातें सुनाने लगे !! सरला को इसमें बड़ा रस आने लगा। उसने पूछा कि क्या सभी खेतों में फसल उगाई जाती है? पण्डित जी ने सिर हिलाते हुए कहा कि एक हिस्सा "परती" पड़ा है !! सरला को लगा बात बन गयी, उसने कहा - क्यों न उसे बेंच कर हम कच्चे घर को पक्का कर लें।


 पण्डित जी अचकचा गए। बोले बहू, यह दूसरी गाय देख रही हो, दूध नही देती पर हम इसकी सेवा कर रहे हैं। इसे कसाई को नही दे सकते। तुम्हे पता है, इस परती खेत में हमारे पुरखों का "नाड़ा" गड़ा हुआ है !!


  यह हमारे पुरखों की विरासत  है , और "विरासत" को कभी बेंचा थोड़े  ही जाता है।


 "विरासत" को संभालते हुए हम लोगों की  कितनी पीढ़ियाँ खप गयीं। कितने बलिदानों के बाद आज भी हमने अपनी माता  को बचा कर रखा है !! बहुत लोगों ने खेत बेंच दिए, उनकी पीढ़ियाँ अब मनरेगा में मजूरी कर रही हैं या शहर के महासमुन्दर में कहीं विलीन हो गए !! 


तुम अपनी जमीन पर बैठी हो !! इन खेतों की रानी हो !! इन खेतों की सेवा ठीक से हो तो देखो  ...? कैसे माता मिट्टी से  सोना देती है।  शहर में जो हर लगा है बेटा वो सब कुछ हरने पर तुला है, सम्बन्ध, भाव, प्रेम, खेत, मिट्टी, पानी हवा सब कुछ !! आज तुम लोग आए तो लगा  "मेरा गाँव" , "शहर" को पटखनी देकर आ गया। "शहर" को जीतने नही देना बेटा। शहर की जीत आदमी को मशीन बना देता है।


  हम लोग "रामायण" पढ़ने वाले लोग हैं जहाँ भगवान राम सोने की लंका को जीतने के बाद भी  उसे तज कर वापस अयोध्या ही आते है !! भगवान भी अपनी माटी को "स्वर्ग" से भी बढ़कर मानते हैं |


 तब तक अंदर से भाभी आयीं और उसे अंदर ले गईं। "कच्चे" घर का तापमान ठंडा था। उसकी मिट्टी की दीवारों से उठती खुशबू सरला को अच्छी लग रही थी। भाभी ने एक पोटली  सरला के सामने रख दी और बोलीं, मुझे लल्ला ने बता दिया था !! इसे ले लो और देखो इससे कार आ जाये , तो "ठीक" है | नही तो हम इनसे कहेंगे  कि खेत बेंच दें  सरला मुस्कुराई, और बोली ...-


 "विरासत" कभी बेंचा नही जाता भाभी। मैं बड़ों की संगति से दूर रही  न  इसलिए मैं विरासत को कभी समझ नही पाई। अब यहीं इसी खेत से सोना उपजाएँगे  !! और फिर गाड़ी खरीदकर आप दोनों को तीरथ पर ले जायेंगे, कहते हुए ,सरला रो ...  पड़ी !!  क्षमा करना भाभी।


 दोनो बहने रोने लगीं। बरसों बरस की कालिख धुल गयी। अगले दिन जब महेश और सरला जाने को हुए तो उसने अपने पति से कहा, सुनो मैंने कुछ पैसे गाड़ी के डाउन पेमेंट के लिए जमा किये थे उससे परती पड़े खेत पर अच्छे से खेती करवाइए। अगली बार  उसी फसल से हम एक छोटी सी कार लेंगे और भैया भाभी के साथ हरिद्वार चलेंगे।


 "शहर" हार गया !! जाने कितने बरस बाद ""गाँव"" अपनी "विरासत" को  मिले इस ""मान"" पर गर्वित हो उठा था .... 

आखिर शहर हार गया और गांव जीत ही गया 

रिश्तों की डोर मजबूत होती है 

पूर्वजों की विरासत अनमोल होती है जिसकी कोई कीमत नहीं होती 

आँखों मे आंसू  आने से रोक नहीं पायेगें 

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

दूसरों का अमंगल करने के पहले इस कहानी को जरूर पढ़ें.........

 




देवराज इन्द्र तथा देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करके महाशैव महर्षि दधीचि ने देह त्याग किया। उनकी अस्थियाँ लेकर विश्वकर्मा ने वज्र बनाया। उसी वज्र से अजेयप्राय वृत्रासुर को इन्द्र ने मारा और स्वर्ग पर पुनः अधिकार किया। ये सब बातें अपनी माता सुवर्चा से बालक पिप्पलाद ने सुनीं। अपने पिता दधीचि के घातक देवताओं पर उन्हें बड़ा क्रोध आया। 'स्वार्थवश ये देवता मेरे तपस्वी पिता से उनकी हड्डियाँ माँगने में भी लज्जित नहीं हुए!' पिप्पलाद ने सभी देवताओं को नष्ट कर देने का संकल्प करके तपस्या प्रारम्भ कर दी।


पवित्र नदी गौतमी के किनारे बैठकर तपस्या करते हुए पिप्पलाद को दीर्घकाल बीत गया। अन्त में भगवान् शंकर प्रसन्न हुए। उन्होंने पिप्पलाद को दर्शन देकर कहा-'बेटा! वर माँगो।'


पिप्पलाद बोले- 'प्रलयंकर प्रभु ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो अपना तृतीय नेत्र खोलें और स्वार्थी देवताओं को भस्म कर दें।'


भगवान् आशुतोष ने समझाया-'पुत्र! मेरे रुद्ररूप का तेज तुम सहन नहीं कर सकते थे, इसीलिये मैं तुम्हारे सम्मुख सौम्य रूप में प्रकट हुआ। मेरे तृतीय नेत्र के तेज का आह्वान मत करो। उससे सम्पूर्ण विश्व भस्म हो जायगा।'


पिप्पलाद ने कहा-'प्रभो! देवताओं और उनके द्वारा संचालित इस विश्व पर मुझे तनिक भी मोह नहीं। आप देवताओं को भस्म कर दें, भले विश्व भी उनके साथ भस्म हो जाय।'


परमोदार मंगलमय आशुतोष हँसे। उन्होंने कहा- 'तुम्हें एक अवसर और मिल रहा है। तुम अपने अन्तःकरण में मेरे रुद्ररूप का दर्शन करो।'


पिप्पलाद ने हृदय में कपालमाली, विरूपाक्ष, त्रिलोचन, अहिभूषण भगवान् रुद्र का दर्शन किया। उस ज्वालामय प्रचण्ड स्वरूप के हृदय में प्रादुर्भाव होते ही पिप्पलाद को लगा कि उनका रोम-रोम भस्म हुआ जा रहा है। उनका पूरा शरीर थर-थर काँपने लगा। उन्हें लगा कि वे कुछ ही क्षणों में चेतनाहीन हो जायँगे। आर्तस्वर में उन्होंने फिर भगवान् शंकर को पुकारा। हृदय की प्रचण्ड मूर्ति अदृश्य हो गयी। शशांकशेखर प्रभु मुसकराते सम्मुख खड़े थे।


'मैंने देवताओं को भस्म करने की प्रार्थना की थी,आपने मुझे ही भस्म करना प्रारम्भ किया।' पिप्पलाद उलाहने के स्वर में बोले।


शंकरजी ने स्नेहपूर्वक समझाया-'विनाश किसी एक स्थल से ही प्रारम्भ होकर व्यापक बनता है और सदा वह वहीं से प्रारम्भ होता है, जहाँ उसका आह्वान किया गया हो। 

तुम्हारे हाथ के देवता इन्द्र हैं, नेत्र के सूर्य, नासिका के अश्विनीकुमार, मन के चन्द्रमा। इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय तथा अंग के अधिदेवता हैं। उन अधिदेवताओं को नष्ट करने से शरीर कैसे रहेगा? बेटा! इसे समझो -- "कि दूसरों का अमंगल चाहने पर पहले स्वयं अपना अमंगल होता है।"


तुम्हारे पिता महर्षि दधीचि ने दूसरों के कल्याण के लिये अपनी हड्डियाँ तक दे दीं। उनके त्याग ने उन्हें अमर कर दिया। वे दिव्यधाम में अनन्त काल तक निवास करेंगे। तुम उनके पुत्र हो। तुम्हें अपने पिता के गौरव के अनुरूप सबके मंगल का चिन्तन करना चाहिये।


पिप्पलाद को ज्ञान हुआ और उसने भगवान् विश्वनाथ के चरणों में मस्तक झुका दिया।

 [ ब्रह्मपुराण]


सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

क्या होता है ये कन्यादान ...... तो आइये आज मे आपको असली मतलब समझाता हूँ ........

 

क्या होता है ये कन्यादान ...... तो आइये आज मे आपको असली मतलब समझाता हूँ ........ 

कन्यादान



 कन्यादान शब्द पर समाज में गलत फहमी पैदा होने से अकारण भ्रांतियां उत्पन्न हो गई है,अतःसमाज को यह समझने की जरूरत है कि कन्यादान का मतलब संपत्ति दान नही होता और न ही लड़की का दान,बल्कि कन्यादान का मतलब "गोत्र दान " होता है क्योंकि कन्या पिता का गोत्र छोड़कर "वर" के गोत्र में प्रवेश करती है,पिता कन्या को अपने गोत्र से विदा करता है और उस गोत्र को अग्नि देव को दान कर देता हैऔर"वर" अग्नि देव को साक्षी मानकर कन्या को अपना गोत्र प्रदान करता है, अपने गोत्र में स्वीकार करता है इसे ही "कन्यादान" कहते हैं।      

लेकिन हमारे समाज मे व्याप्त अज्ञानता के कारण वाममार्गी ये प्रसारित करते रहते है कि लडकी कोई दान की वस्तु नही है, और हिन्दू समाज को उकसाते है कि कहो, हम नही करेंगे कन्यादान जबकि कन्यादान का हमारे शास्त्रोक्त अर्थ है कन्या अपने पिता का गोत्र त्याग कर अपना नवजीवन प्रारम्भ करती है और उससे उत्पन्न होने वाली संतान भी अपने पिता अर्थात नाना के गोत्र की नही मानी जाती बल्कि उसके पति के गोत्र की ही मानी जाती है।

अतः निवेदन है कि समाज मे भारतीय संस्कृति व परम्पराओ को लेकर जो भ्रांति उत्पन्न की जा रही उसे दूर करने में अपना योगदान दे, भारतीय संस्कृति की रक्षा हेतु निरंतर वर्तमान व भावी पीढ़ी को जागरूक करते रहे.

पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर की अद्भुद कहानी जो अपने कभी नहीं सुनी होगी। ......

पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर
 
बिहार के औरंगाबाद जिले में देव स्थित ऎतिहासिक त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी विशिष्ट कलात्मक भव्यता के साथ साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है। देव स्थित भगवान् भास्कर (सूर्य) का विशाल मंदिर अपने अप्रतिम सौंदर्य और शिल्प के कारण सदियों से श्रद्धालुओं, वैज्ञानिकों एवं आमजनों के लिए आकर्षण का केन्द्र है।


 डेढ़ लाख वर्ष पुराना है यह सूर्य मंदिर :- 


काले और भूरे पत्थरों की अप्राप्य शिल्पकारी से बना यह सूर्य-मंदिर उड़ीसा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता जुलता है। मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में उसके बाहर ब्राही लिपि में लिखित और संस्कृत में अनुवादित एक श्लोक जड़ा है, जिसके अनुसार १२ लाख १६ हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इलापुत्र पुरूरवा ऎल ने देव सूर्य मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि सन् २०१४ ईस्वी में इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल को एक लाख पचास हजार चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं।


 विश्व का एकमात्र पश्चिमाभिमुख सूर्यमंदिर है :- 


देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (प्रात:) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य, और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान है। पूरे देश में यही एकमात्र सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट अथवा चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है। जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किंवदतियां प्रसिद्ध है जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता तो चलता है।


सूर्य पुराण में भी है इस मंदिर की कथा उपलब्ध है :-


सूर्य पुराण के अनुसार ऎल एक राजा थे, जो किसी ऋषि के शापवश श्वेत कुष्ठ रोग से पीडित थे। वे एक बार शिकार करने देव के वनप्रांत में पहुंचने के बाद राह भटक गए। राह भटकते भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा सा सरोवर दिखाई पड़ा जिसके किनारे वे जल पीने गए और अंजुरी में भरकर जल पिया। जल पीने के क्रम में वे यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन जगहों पर जल का स्पर्श हुआ उन जगहों के श्वेत कुष्ठ के दाग जाते रहे। इससे अति प्रसन्न और आश्चर्यचकित राजा अपने वस्त्रों की परवाह नहीं करते हुए सरोवर के मैले जल में लेट गए और इससे उनका श्वेत कुष्ठ रोग पूरी तरह जाता रहा। शरीर में आशर्चजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऎल ने इसी वन में रात्रि विश्राम करने का निर्णय लिया। रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि उसी सरोवर में भगवान भास्कर की प्रतिमा दबी पड़ी है। प्रतिमा को निकालकर वहीं मंदिर बनवाने और उसमे प्रतिष्ठित करने का निर्देश उन्हें स्वप्न में प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि राजा ऎल ने इसी निर्देश के अनुसार सरोवर से दबी मूर्ति को निकालकर मंदिर में स्थापित कराने का काम किया और सूर्य कुंड का निर्माण कराया लेकिन मंदिर के यथावत रहने के बाद भी उस मूर्ति का आज तक पता नहीं है। जो अभी वर्तमान मूर्ति है वह प्राचीन अवश्य है, लेकिन ऎसा लगता है मानो बाद में स्थापित की गई हो।


देवशिल्पी विश्वकर्मा ने एक ही रात में बनाया था सूर्य मंदिर :-


मंदिर निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने अपने हाथों से किया था। कहा जाता है कि इतना सुंदर मंदिर कोई साधरण शिल्पी बना ही नहीं सकता। इसके काले पत्थरों की नक्काशी अप्रतिम है और देश में जहां भी सूर्य मंदिर है, उनका मुंह पूर्व की ओर है, लेकिन यही एक मंदिर है जो सूर्य मंदिर होते हुए भी प्रात:कालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता वरन अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ही मंदिर का अभिषेक करती हैं।

जनश्रुति है कि एक बार बर्बर लुटेरा काला पहाड़ मूर्तियों एवं मंदिरों को तोड़ता हुआ यहां पहुंचा तो देव मंदिर के पुजारियों ने उससे काफी विनती की कि इस मंदिर को न तोड़ें क्योंकि यहां के भगवान का बहुत बड़ा महात्म्य है। इस पर वह हंसा और बोला यदि सचमुच तुम्हारे भगवान में कोई शक्ति है तो मैं रात भर का समय देता हूं तथा यदि इसका मुंह पूरब से पश्चिम हो जाए तो मैं इसे नहीं तोड़ूंगा। पुजारियों ने सिर झुकाकर इसे स्वीकार कर लिया और वे रात भर भगवान से प्रार्थना करते रहे। सबेरे उठते ही हर किसी ने देखा कि सचमुच मंदिर का मुंह पूरब से पश्चिम की ओर हो गया था और तब से इस मंदिर का मुंह पश्चिम की ओर ही है। हर साल चैत्र और कार्तिक के छठ मेले में लाखों श्रद्धालु विभिन्न स्थानों से यहां आकर भगवान भास्कर की आराधना करते हैं भगवान भास्कर का यह त्रेतायुगीन मंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देने वाला पवित्र धर्मस्थल रहा है। यूं तो वर्षों भर देश के विभिन्न जगहों से श्रद्धालु यहां मनौतियां मांगने और सूर्यदेव द्वारा उनकी पूर्ति होने पर अर्ध्य देने आते हैं।


शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

एक ऐसे सरल भक्त की कहानी जो आपको प्रेम से भर देगी.....





एक गरीब बालक था जो कि अनाथ था।

एक दिन वो बालक एक संत के आश्रम मे आया और बोला के बाबा आप सबका ध्यान रखते है, मेरा इस दुनिया मेँ कोई नहीँ हैँ तो क्या मैँ यहाँ आपके आश्रम मेँ रह सकता हूँ ?

बालक की बात सुनकर संत बोले बेटा तेरा नाम क्या है ?

उस बालक ने कहा मेरा कोई नाम नहीँ हैँ।

तब संत ने उस बालक का नाम रामदास रखा और बोले की अब तुम यहीँ आश्रम मेँ रहना।

रामदास वही रहने लगा और आश्रम के सारे काम भी करने लगा।

उन संत की आयु 80 वर्ष की हो चुकी थी। एक दिन वो अपने शिष्यो से बोले की मुझे तीर्थ यात्रा पर जाना हैँ तुम मेँ से कौन कौन मेरे मेरे साथ चलेगा और कौन कौन आश्रम में रुकेगा ?

संत की बात सुनकर सारे शिष्य बोले की हम आपके साथ चलेंगे.! क्योँकि उनको पता था की यहाँ आश्रम मेँ रुकेंगे तो सारा काम करना पड़ेगा इसलिये सभी बोले की हम तो आपके साथ तीर्थ यात्रा पर चलेंगे।

अब संत सोच मेँ पड़ गये की किसे साथ ले जाये और किसे नहीँ क्योँकि आश्रम पर किसी का रुकना भी जरुरी था।

बालक रामदास संत के पास आया और बोला बाबा अगर आपको ठीक लगे तो मैँ यहीँ आश्रम पर रुक जाता हूँ।

संत ने कहा ठीक हैँ पर तुझे काम करना पड़ेगा... आश्रम की साफ सफाई मे भले ही कमी रह जाये पर ठाकुर जी की सेवा मे कोई कमी मत रखना।

रामदास ने संत से कहा की बाबा मुझे तो ठाकुर जी की सेवा करनी नहीँ आती आप बता दीजिये  की ठाकुर जी की सेवा कैसे करनी है ? फिर मैँ कर दुंगा।


संत रामदास को अपने साथ मंदिर ले गये वहाँ उस मंदिर मे राम दरबार की झाँकी थी।

श्रीराम जी, सीता जी, लक्ष्मणजी और हनुमान जी थे।

संत ने बालक रामदास को ठाकुर जी की सेवा कैसे करनी है सब सिखा दिया।

रामदास ने गुरु जी से कहा की बाबा मेरा इनसे रिश्ता क्या होगा ये भी बता दो क्योँकि अगर रिशता पता चल जाये तो सेवा करने मेँ आनंद आयेगा।

उन संत ने बालक रामदास कहा की तु कहता था ना की मेरा कोई नहीँ हैँ तो आज से ये रामजी और सीताजी तेरे माता-पिता हैँ।

रामदास ने साथ मेँ खड़े लक्ष्मण जी को देखकर कहा अच्छा बाबा और ये जो पास मेँ खड़े है वो कौन है?

संत ने कहा ये तेरे चाचा जी है और हनुमान जी के लिये कहा की ये तेरे बड़े भैय्या है।

रामदास सब समझ गया और फिर उनकी सेवा करने लगा। संत शिष्यों के साथ यात्रा पर चले गये।

आज सेवा का पहला दिन था रामदास ने सुबह उठकर स्नान किया और भिक्षा माँगकर लाया और फिर भोजन तैयार किया फिर भगवान को भोग लगाने के लिये मंदिर आया।

रामदास ने श्रीराम सीता लक्ष्मण और हनुमान जी आगे एक-एक थाली रख दी और बोला अब पहले आप खाओ फिर मे भी खाऊँगा।

रामदास को लगा की सच मे भगवान बैठकर खायेंगे.

पर बहुत देर हो गई रोटी तो वैसी की वैसी थी।

तब बालक रामदास ने सोचा नया नया रिशता बना है तो शरमा रहेँ होँगे।

रामदास ने पर्दा लगा दिया बाद मेँ खोलकर देखा तब भी खाना वैसे का वैसा पडा था।


अब तो रामदास रोने लगा की मुझसे सेवा मे कोई गलती हो गई इसलिये खाना नहीँ खा रहेँ हैँ !

और ये नहीँ खायेंगे तो मैँ भी नहीँ खाऊँगा और मे भुख से मर जाऊँगा..

इसलिये मै तो अब पहाड़ से कूदकर ही मर जाऊँगा।

रामदास मरने के लिये निकल जाता है तब भगवान रामजी हनुमान जी को कहते हैँ हनुमान जाओ उस बालक को लेकर आओ और बालक से कहो की हम खाना खाने के लिये तैयार हैँ।

हनुमान जी जाते है।और रामदास कूदने ही वाला होता है, की हनुमान जी पीछे से पकड़ लेते हैँ और बोलते हैँ क्याँ कर रहे हो ?

रामदास कहता है आप कौन ?

हनुमान जी कहते है में तेरा भैय्या हूँ इतनी जल्दी भूल गये ?

रामदास कहता है अब आये हो इतनी देर से वहा बोल रहा था की खाना खालो तब आये नहीँ अब क्योँ आ गये ?


तब हनुमान जी बोले पिता श्री का आदेश हैँ अब हम सब साथ बैठकर खाना खायेँगे।

फिर रामजी, सीताजी, लक्ष्मणजी, हनुमान जी साक्षात बैठकर भोजन करते हैँ।

इसी तरह रामदास रोज उनकी सेवा करता और भोजन करता।

सेवा करते 15 दिन हो गये एक दिन रामदास ने सोचा की कोई भी माँ बाप हो वो घर मेँ काम तो करते ही है. 

पर मेरे माँ बाप तो कोई काम नहीँ करते सारे दिन खाते रहते हैँ. मैँ ऐसा नही चलने दूँगा।

रामदास मंदिर जाता हैँ ओर कहता है, पिता जी कुछ बात करनी हैँ आपसे।

रामजी कहते हैँ बोल बेटा क्या बात है?

रामदास कहता हैँ की अब से मैँ अकेले काम नहीँ करुंगा आप सबको भी काम करना पड़ेगा,

आप तो बस सारा दिन खाते रहते हो और मैँ काम करता रहता हूँ अब से ऐसा नही होगा।

राम जी कहते है,तो फिर बताओ बेटा हमे क्या काम करना है ?

रामदास ने कहा माता जी (सीताजी) अब से रसोई आपके हवाले. और चाचा जी (लक्ष्मणजी) आप सब्जी तोड़कर लाओगे.

और भैय्या जी (हनुमान जी) आप लकड़ियां लायेगे. और पिता जी (रामजी) आप पत्तल बनाओगे।

सबने कहा ठीक हैँ।

अब सभी साथ मिलकर काम करते हुऐँ एक परिवार की तरह सब साथ रहने लगे।

एक दिन वो संत तीर्थ यात्रा से लौटे तो सीधा मंदिर मेँ गये और देखा की मंदिर से प्रतिमाऐ गायब है।

संत ने सोचा कही रामदास ने प्रतिमा बेच तो नहीँ दी ? संत ने रामदास को बुलाया और पुछा भगवान कहा गये ?

रामदास भी अकड़कर बोला की मुझे क्या पता रसोई मेँ कही काम कर रहेँ होंगे।

संत बोले ये क्या बोल रहा ?

रामदास ने कहा बाबा मैँ सच बोल रहा हूँ जबसे आप गये हैँ ये चारोँ काम मेँ लगे हुऐँ हैँ।

वो संत भागकर रसोई मेँ गये और सिर्फ एक झलक देखी की सीता जी भोजन बना रही है,रामजी पत्तल बना रहे है और फिर वो गायब हो गये और मंदिर मेँ विराजमान हो गये।

संत रामदास के पास गये और बोले आज तुमने मुझे मेरे ठाकुर का दर्शन कराया तु धन्य हैँ।

और संत ने रो रो कर रामदास के पैर पकड़ लिये...!


भक्त मित्रोँ कहने का अर्थ यही हैँ की ठाकुर जी तो आज भी तैयार हैँ दर्शन देने के लिये पर कोई रामदास जैसा भक्त भी तो होना चाहिये...

     राम जी हमारे बापू सीता जी मेरी मैय्या हैँ,

लक्ष्मण जी है चाचा हमारे हनुमान जी मेरे भैय्या हैं।

एक ऐसी कहानी जो आपके दिल को छू जायगी 

एक ऐसे सरल भक्त की कहानी जो आपको प्रेम से भर देगी 

भक्त के वश मे भगवान् ऐसे हो जाते है ? जानते है..... 

एक ऐसे सरल भक्त की कहानी जो आपको प्रेम से भर देगी  भक्त के वश में भगवान  भाव पूर्ण कहानी 

Impotant

रोचक कहानी संपत्ति बड़ी या संस्कार

       दक्षिण भारत में एक महान सन्त हुए तिरुवल्लुवर। वे अपने प्रवचनों से लोगों की समस्याओं का समाधान करते थे। इसलिए उन्हें सुनने के लिए दूर-...