मंगलवार, 19 नवंबर 2024

पिंजरे का पंछी

                                                                                                                   
पिंजरे का पंछी

                                                          
 एक सेठ और सेठानी रोज सत्संग में जाते थे। सेठजी के घर एक पिंजरे में तोता पला हुआ था। 
          एक दिन तोता बोला–‘सेठजी आप रोज कहाँ जाते हैं ?’
          सेठजी बोले–‘सत्संग में ज्ञान सुनने जाते है।’
          तोता कहता है–‘सेठजी ! सन्त महात्मा से एक बात पूछना कि मैं आजाद कब होऊँगा।’
          सेठजी सत्संग समाप्त होने के पश्चात सन्त के पास गये।
          सेठजी ने पूछा–‘महाराज ! हमारे घर पे एक तोता है उसने पूछा है कि ‘वो आजाद कब होगा..?’
          सन्तजी ऐसा सुनते ही बेहोश होकर गिर जाते है। सेठजी सन्त की हालत देख कर चुप-चाप वहाँ से निकल घर आ जाते हैं। 
          तोता सेठजी से पूछता है–‘सेठजी ! सन्त ने क्या कहा।’
          सेठजी कहते है–‘तेरी किस्मत ही खराब है, जो तेरी आजादी की बात पूछते ही वो बेहोश हो गए।’
          तोता कहता है–‘कोई बात नही सेठजी मै सब समझ गया।’
          दूसरे दिन सेठजी सत्संग में जाने लगते है, तब तोता पिंजरे में जानबूझ कर बेहोश होकर गिर जाता है।  सेठजी उसे मरा हुआ मानकर जैसे ही उसे पिंजरे से बाहर निकालते है, तो वो उड़ जाता है। 
          सत्संग में सन्त सेठजी से पूछते–‘कल आप उस तोते के बारे में पूछ रहे थे ना, अब वो कहाँ हैं।’ 
          सेठजी कहते हैं–‘हाँ महाराज आज सुबह-सुबह वो जानबूझ कर बेहोश हो गया, मैंने सोचा ये मर गया है इसलिये मैंने उसे जैसे ही बाहर निकाला–वो तुरन्त उड़ गया।’
          सन्त ने सेठजी से कहा–‘देखो तुम इतने समय से सत्संग सुनकर भी आज तक संसारिक मोह-माया के पिंजरे में फंसे हुए हो और उस तोते को देखो बिना सत्संग में आये मेरा एक इशारा समझ कर आजाद हो गया।’
          इस कहानी से तात्पर्य ये है कि हम सत्संग में तो जाते हैं ज्ञान की बातें करते हैं या सुनते भी हैं, पर हमारा मन हमेशा संसारिक बातों में ही उलझा रहता है। 

          सत्संग में भी हम सिर्फ उन बातों को पसन्द करते हैं जिसमें हमारा स्वार्थ सिद्ध होता है जबकि सत्संग जाकर हमें सत्य को स्वीकार कर सभी बातों को महत्व देना चाहिये और जिस असत्य, झूठ और अहंकार को हम धारण किये हुए हैं 

उसे साहस के साथ मन से उतार कर सत्य को स्वीकार करना चाहिए।


गुरुवार, 14 नवंबर 2024

भक्तराज ध्रुव की अद्भुद और समर्पण की कहानी...

कार्तिक माह में भक्त ध्रुव की कहानी




महाराज उत्तानपाद की दो रानियाँ थी| उनकी बड़ी रानी का नाम सुनीति तथा छोटी रानी का नाम सुरुचि था। 


सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नाम के पुत्र पैदा हुए। महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे और सुनीति प्राय: उपेक्षित रहती थी। 


इसलिए वह सांसारिकता से विरक्त होकर अपना अधिक से अधिक समय भगवान के भजन पूजन में व्यतीत करती थी। 


एक दिन बड़ी रानी का पुत्र ध्रुव अपने पिता महाराज उत्तानपाद की गोद में बैठ गया। यह देख सुरुचि उसे खींचते हुए गोद से उतार देती है और फटकारते हुए कहती है – 


‘यह गोद और राजा का सिंहासन मेरे पुत्र उत्तम का है। तुम्हें यह पद प्राप्त करने के लिए भगवान की आराधना करके मेरे गर्भ से उत्पन्न होना पड़ेगा।’


ध्रुव सुरुचि के इस व्यवहार से अत्यन्त दु:खी होकर रोते हुए अपनी माँ सुनीति के पास आते हैं और सब बात कह सुनाते हैं। 


अपनी सौत के व्यवहार के विषय में जानकर सुनीति के मन में भी अत्यधिक पीड़ा होती है। वह ध्रुव को समझाते हुए कहती है – 


‘पुत्र ! तुम्हारी विमाता ने क्रोध के आवेश में भी ठीक ही कहा है। भगवान ही तुम्हें पिता का सिंहासन अथवा उससे भी श्रेष्ठ पद देने में समर्थ हैं। अत: तुम्हें उनकी ही आराधना करनी चाहिए।’


माता के वचनों पर विश्वास करके पाँच वर्ष का बालक ध्रुव वन की ओर चल पड़ा। मार्ग में उसे देवर्षि नारद मिले। उन्होंने ध्रुव को अनेक प्रकार से समझाकर घर लौटाने का प्रयास किया किंतु वे उसे वापिस भेजने में असफल रहे। 


अन्त में उन्होंने ध्रुव को द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) की दीक्षा देकर यमुना तट पर अवस्थित मधुवन में जाकर तप करने का निर्देश दिया।


ध्रुव देवर्षि को प्रणाम करके मधुवन पहुँचे। उन्होंने पहले महीने में कैथ तथा बेर, दूसरे महीने में सूखे पत्ते, तीसरे महीने में जल और चौथे महीने में केवल वायु ग्रहण करके तपस्या की। 


पाँचवें महीने में उन्होंने एक चरण पर खड़े होकर श्वास लेना भी बन्द कर दिया। मन्त्र के अधिष्ठाता भगवान वासुदेव में ध्रुव का चित्त एकाग्र हो गया। संसार के एकमात्र आधार भगवान में एकाग्र होकर ध्रुव के श्वास-अवरोध कर देने से देवताओं को श्वासावरोध स्वत: हो गया। 


उनके प्राण संकट में पड़ गए। देवताओं ने भगवान के पास जाकर उनसे ध्रुव को तप से निवृत करने की प्रार्थना की।


ध्रुव भगवान के ध्यान में लीन थे। अचानक उनके हृदय की ज्योति अन्तर्विहित हो गई। ध्रुव ने घबराकर अपनी आँखें खोली तो उनके सामने शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान स्वयं खड़े थे। 


ध्रुव अज्ञान बालक थे| उन्होंने हाथ जोड़कर स्तुति करनी चाही किंतु वाणी ने साथ नहीं दिया। भगवान ने उनके कपोलों से अपने शंख का स्पर्श करा दिया। 


बालक ध्रुव के मानस में सरस्वती जाग्रत हो गई। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान की भावभीनी स्तुति की। 

भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें अविचल पद का वरदान दिया।


घर लौटने पर महाराज उत्तानपाद ने ध्रुव का अभूतपूर्व स्वागत किया और उनका राज्याभिषेक करके तप के लिए वन में चले गये। 


ध्रुव नरेश हो गये। संसार में प्रारब्ध शेष हो जाने पर ध्रुव को लेने के लिए स्वर्ग से विमान आया। ध्रुव मृत्यु के मस्तक पर पैर रखकर विमान में आरूढ़ होकर स्वर्ग पधारे। 


उन्हें अविचल धाम प्राप्त हुआ। उत्तर दिशा में स्थित ध्रुव तारा आज भी उनकी अपूर्व तपस्या का साक्षी है।


भक्तराज ध्रुव की अद्भुद और समर्पण की कहानी 


शनिवार, 9 नवंबर 2024

बुद्धि का भ्रम (ज्ञानवर्धक लेख)


बुद्धि का भ्रम (ज्ञानवर्धक लेख)



एक सज्जन का नियम था कि प्रतिदिन तीन ग़रीब लोगों को भोजन कराने के पश्चात् ही स्वयं भोजन करते थे। 


एक दिन बहुत खोजने पर भी कोई ग़रीब न मिला। 


दोपहर हो गई। त्योहार निकट थी। दुकानों पर नाना प्रकार की मिठाइयाँ और चीनी के खिलौने सजे थे। एक हलवाई ने चीनी से आदमी की आकृति बना रखे थे। 


इन्होंने देखा तो सोचा, दूसरे ग़रीब तो मिले नहीं, चीनी से बने इन गरीबों को ही ले चलो। इन्हीं को भोग लगाकर खाना खा लेंगे।


तीन चीनी के मिटाई नुमा आदमी खरीदकर वे घर आए तो देखा कि वहाँ तीन असली निर्धन लोग खड़े हैं। 


उसने उनका स्वागत करते हुए कहा- भाइयों ! मैं तो सुबह से आपको ही खोज रहा था। आएँ भोजन करें।


उसने तीनों गरीबों को बैठाया और पत्नी से बोले- तुम जल्दी से भोजन बनाओ, मैं बाजार से दही ले आता हूँ।


वह बाजार चले गए, पत्नी खाना बनाने लगी। 


इतने में ही उनका पुत्र भीतर आया। उसने थैले में पड़े वे चीनी से बने मिटाई नुमा आदमी देखे तो बोला- माँ! एक आदमी तो मैं खाऊँगा।


साथ वाले कमरे में बैठे आदमियों ने यह बात सुनी तो घबराए। 


इतने में उस माँ की आवाज आई- इतना उतावला क्यों होता है? अभी तेरे पिताजी आएँगे। यहाँ आदमी तीन हैं। एक तुम खाना, एक तेरे पिताजी खाएँगे, एक मैं खाऊँगी।


उन तीनों आदमियों ने जब यह बात सुनी तो उनके होश उड़ गये कि आख़िर हम लोग कहाँ आकर फंस गए? ये लोग तो आदमियों तक को खाते हैं, मनुष्य नहीं राक्षस मालूम पड़ते हैं।


उसके बाद एक आदमी लघुशंका के बहाने घर से बाहर हो गया। दूसरे ने भी ऐसा ही किया, तीसरे ने भी। तीनों ने अपने अपने जूते उठाए और लगे भागने। 


सामने से वही सज्जन दही लेकर आ रहे थे। देखा तो पत्नी से पूछा- क्या हुआ?


 वह बोली- मुझे तो पता नहीं, वे लघुशंका जाने की बात कह रहे थे। न जाने क्यों भाग रहे हैं?


 वह सज्जन तो सुबह से ही भूखे थे। उन तीन आदमियों के पीछे भागे, बोले- भाइयों ! कहाँ भागे जाते हो? हम लोग तो सुबह से भूखे हैं।


उन आदमियों ने दौड़ते हुए कहा- आज तो ये दुष्ट हमें ही खाकर अपनी भूख मिटाएँगे।


अन्ततः वह सज्जन उन तीनों आदमियों के पास पहुँचे। उनकी बात सुनी, उन्हें चीनी के मिटाई नुमा आदमियों की बात बताई, तब उन तीनों की जान में जान आई और फ़िर उन सब ने भोजन किया। 


इसलिए अगर पूरी बात मालूम न होने से अच्छी भली बुद्धि में भी भ्रम पैदा हो जाता है।


Impotant

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